मन अनमन है, पल भर को
अपना मन देना
दही जमाने को, थोड़ा-सा
जामन देना
सिर्फ़ तुम्हारे छू लेने से
चाय, चाय हो जाती
धूप छलकती दूध सरीखी
सुबह गाय हो जाती
उमस बढ़ी है, अगर हो सके
सावन देना
नहीं बाँटते इस देहरी
उस देहरी बैना
तोता भी उदास, मन मारे
बैठी मैना
घर से ग़ायब होता जाता,
आँगन देना
अलग-अलग रहने की
ये कैसी मजबूरी
बहुत दिन हुए, आओ चलो
कुतर लें दूरी
आ जाना कुछ पास,
ज़रा-सा जीवन देना।
- यश मालवीय
----------------
संपादकीय चयन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें