मैं कविता की दुनिया का स्थायी नागरिक नहीं हूँ
मेरे पास नहीं है इसका कोई ग्रीन कार्ड
कविता की दुनिया के बाहर
इतने सारे मोर्चे हैं
जिनसे जूझने में खप जाता है जीवन
इनसे न फ़ुरसत मिलती है, न निजात
कि कविता की दुनिया की नागरिकता ले सकूँ
इसलिए जब-तब
आता जाता रहता हूँ
कविता की दुनिया
बस पर्यटन है मेरे लिए
न कोई चुनौती
न कोई मोर्चा
न ही कोई क़िला
जिसे जीतने की बेचैनी हो
छुट्टियों में आता हूँ
बेपरवाह घूमता हूँ
थोड़ी-सी हवा
थोड़ा-सा प्यार
थोड़ी-सी भावुकता
बटोरकर रख लेता हूँ
जैसे ऊँट भर लेता है अपने गुप्त थैले में
ढेर सारा पानी
फिर लौट जाता हूँ
उसी दुनिया में वापस
जहाँ छोटे-मोटे मोर्चे
इंतज़ार करते रहते हैं
जैसे बछड़े
गायों के लौटने का।
- सदानंद शाही
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संपादकीय चयन
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