गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

जीवन की हरियाली

नदी पूरी नदी कहाँ होती है
थोड़ी माँ होती है

पहाड़ होते हैं पिता
शामिल होते हैं सुख-दुख में
बारिशें दे देती हैं हमें सब कुछ
अपने तरीक़े से
आकाश और धरती की मंत्रणा से
बिछा देती हैं हरियाली जीवन में

वृक्ष पूरे वृक्ष कहाँ होते हैं
होते हैं सहोदर
जीवन की विचलिताओं में
भर देते हैं ऊष्मा

धरती पूरी धरती कहाँ होती है
होती है स्त्री
आँधी-तूफ़ानों में विवेक संज्ञान बन
बाँध लेती है हमारी हताशाओं को
अपने पल्लू की गाँठ में

आसमान पूरा नीला कहाँ होता है
होता है सखा
जो हमारे स्याह अँधेरों को
छिपा लेता है अपने सीने में

चाँद पूरा चाँद कहाँ होता है
होता है प्रेमी
जो प्रेमिका की उदास आँखों में
बाँध देता है रोशनी की लड़ियाँ

समुद्र पूरा समुद्र कहाँ होता है
होता है उत्सव
जो जीवन के कोलाहल को
बदल देता है उत्ताल लहरों की उमंगो में।

- वंदना गुप्ता
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संपादकीय चयन 

रविवार, 22 दिसंबर 2024

शनिवार, 21 दिसंबर 2024

शाम का संगीत

किनारे की सड़क पर बसें
तेज़ी से भाग रही हैं
भरे तालाब को देखने
दिन भर से ऊबे लोग
मधुमक्खियों की तरह जमा हैं

वे अपने तालाब से बहुत प्यार करते हैं
गाय का रँभाना, बतख़ाें का चिंचिंयाना
दूर से खोमचे वाले की आवाज़ का आकाश में कँपकँपाना
अचानक रुकी बस के पहिए का ज़मीन पर घिसट जाना

रेशा दर रेशा शाम का संगीत बुन रहा है
किनारे पर बैठा
निष्पलक बूढ़ा अपनी उदास आँखों से
पानी पर डगमगाती नाव को
बचाने में लगा है।

- संगीता गुंदेचा
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

हर हाल में बेजोड़

तिनका हूँ
सूखता हुआ। 

लेकिन फिर भी
जंगल का एक बेजोड़ हिस्सा। 

जब हरा-भरा होने में था
तो सूखने में भी हूँ।

- वेणु गोपाल
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 18 दिसंबर 2024

शब्द

शब्द महज़ शब्द नहीं

पूरा संसार है
केंचुए-सा रेंगता
वायलिन-सा बजता
रंगों-सा बिखरता

मुँह खुलता है जब भी
अंकुर-सा प्रस्फुटित होता है
हाथ के खिलाफ़ मुट्ठी-सा तनता है
युद्ध में ज़ोरों से फटता है
युद्ध के विरुद्ध
सफ़ेद पताका-सा लहराता है
शब्द।

- हेमंत जोशी
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कविता कोश से साभार 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

तुम मुझे उगने तो दो

आख़िर कब तक तलाशता रहूँगा
संभावनाएँ अँकुराने की
और आख़िर कब तक
मेरी पृथ्वी
तुम अपना गीलापन दफ़नाती रहोगी,

कब तक करती रहोगी
गेहूँ के दानों का इंतज़ार
मैं जंगली घास ही सही
तुम्हारे गीलेपन को
सबसे पहले मैंने ही तो छुआ है
क्या मेरी जड़ों की कुलबुलाहट
तुमने अपने अंतर में महसूस नहीं की है
मुझे उगाओ मेरी पृथ्वी
मैं उगकर
कोने-कोने में फैल जाना चाहता हूँ

तुम मुझे उगने तो दो
मैं
तुम्हारे गेहूँ के दानों के लिए
शायद एक बहुत अच्छी
खाद साबित हो सकूँ।

- शरद बिलाैरे
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

विश्व शांति का स्वप्न

जब बजता है गहन रात्रि में
ठीक बारह बजे का घंटा
और दुनिया के अमन पसंद देश
मध्य रात्रि में देख रहे होते हैं
विश्व शांति का स्वप्न

उसी क्षण दुनिया के
किसी कोने में बजता है
युद्ध का बिगुल
और तमाम सभ्यताएँ
हो जाती है धराशाई

उजड़ जाते पेड़ की शाखाओं के
न जाने कितने घौंसले

उसी समय रात्रि के
अंतिम पहर एक छोटे से देश से
उड़ कर आया कबूतर
लाता है अमन शांति का दिव्य संदेश
और हम देश की सीमाओं, सरहदों से परे

जुड़ जाते हैं भावात्मक एकता में
नई ज्योति जलाकर
बन जाते हैं शांति के अग्रदूत!

- वंदना गुप्ता
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

आत्मा का गीत

मन के तसले में
रखी जा चुकी है
कच्ची सामग्री
खदबदाती 
और पक जाती

कहने को
घर उसका भी था
पर कहाँ था
वह कोना
जहाँ पकाती वह
अपनी कविता

जी लेती क्षण भर
और गा उठती
आत्मा का गीत।

- मेधा
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

थोड़ा-सा जामन देना

मन अनमन है, पल भर को
अपना मन देना
दही जमाने को, थोड़ा-सा
जामन देना

सिर्फ़ तुम्हारे छू लेने से
चाय, चाय हो जाती
धूप छलकती दूध सरीखी
सुबह गाय हो जाती
उमस बढ़ी है, अगर हो सके
सावन देना

नहीं बाँटते इस देहरी
उस देहरी बैना
तोता भी उदास, मन मारे
बैठी मैना
घर से ग़ायब होता जाता,
आँगन देना

अलग-अलग रहने की
ये कैसी मजबूरी
बहुत दिन हुए, आओ चलो
कुतर लें दूरी
आ जाना कुछ पास,
ज़रा-सा जीवन देना।

- यश मालवीय
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

उड़ते हुए

कभी
अपने नवजात पंखों को देखता हूँ
कभी आकाश को
उड़ते हुए।

लेकिन ऋणी मैं फिर भी
ज़मीन का हूँ
जहाँ
तब भी था
जब पंखहीन था
तब भी रहूँगा
जब पंख झर जाएँगे।

- वेणु गोपाल
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संपादकीय चयन 

रविवार, 8 दिसंबर 2024

एक और ढंग

भागकर अकेलेपन से अपने
तुममें मैं गया।

सुविधा के कई वर्ष
तुममें व्यतीत किए।
कैसे?
कुछ स्मरण नहीं।

मैं और तुम! 
अपनी दिनचर्या के पृष्ठ पर 
अंकित थे
एक संयुक्ताक्षर!

क्या कहूँ! लिपि की नियति
केवल लिपि की नियति थी

तुममें से होकर भी,
बसकर भी,
संग-संग रहकर भी
बिल्कुल असंग हूँ।

सच है तुम्हारे बिना जीवन अपंग है।
लेकिन! 
क्यों लगता है मुझे
प्रेम
अकेले होने का ही
एक और ढंग है।

- श्रीकांत वर्मा
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 7 दिसंबर 2024

होशियारी और तर्क

होशियारी और तर्क से उपजे
आरोप और उलाहने देते है
प्रेम में सिर्फ़ दुख

इसीलिए मैं तुम्हारे पास
आने से पहले ताख़ पर
रख आती हूँ
समझदारी होशियारी और अपना
ज़िद्दी स्वभाव

मूर्ख और अंजान बनकर
हम भरपूर जीते है
प्रेम का अनंत सुख

एक बार फिर से
तुम सुनाना मुझे
ढेर सारी झूठी कहानियाँ
मैं जी लूँगी तुम्हारे

प्रेम का अनंत सुख...(वत्सु)

- वत्सला पांडेय
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

ऋतुओं का दीप

रोमांचित हुई रेत हरी-हरी दूब उगी
आज नई कोंपल ने आकाश उठाया है,

केले के पात हिले
एक-एक हिलने ने अतीत को सँभाल लिया,
एक-एक आग्रह की वर्तमान प्यास बुझी!

ठूँठों के स्वप्न हँसे पतझर के जाने से!
फूल-फूल केसर का नीड़ बना,
किसके मन चोट लगी भौंरों के गाने से?
बल्कि यहाँ एक और सुरभि को झोंकों का पंख मिला

जीवन के दरवाज़े ऋतुओं का यह पहला दीप जला!

- लीलाधर जगूड़ी
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

साइकिल

दोनों पैडल पिता के पाँव हैं
टायर पिता के जूते
मुठिया उनके हाथ
कैरियर उनका झोला
हर रोज़ जाती है
उन्हें लेकर
और लाती है लादकर
गाते हुए लहराते हुए
बिना किसी हेडलाइट के भी
वह घुप्प अँधेरे में
चीन्ह लेती है अपनी राह
और मुड़ जाती है घर की ओर
हर रात पिता को
घर तक छोड़कर
फिर ख़ुद सोती है साइकिल
भूखी दीवार से सटकर
साइकिल
जो पिता की अभिन्न साथी है
किसी पेट्रोल-पंप तक नहीं जाती
कोई पेट्रोल नहीं पीती
जिसका अक्षय ईंधन
छिपा है पिता के पाँव में

 - संदीप तिवारी
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 4 दिसंबर 2024

सुखद सबेरा

खिलखिलाकर उतरी सुबह
उसके होंठों पर

ख़ुशी
पसरकर बैठी
घर के कोने-कोने

छुमक रही थी
ठुमक रही थी
जैसे नन्हीं बच्ची के पाँवों की पैजनिया
उसके भीतर
सुखद सबेरा

झाँक रहा था
उसके मुख पर हौले-हौले

 - संज्ञा सिंह
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

स्थायी नागरिक

मैं कविता की दुनिया का स्थायी नागरिक नहीं हूँ

मेरे पास नहीं है इसका कोई ग्रीन कार्ड
कविता की दुनिया के बाहर
इतने सारे मोर्चे हैं
जिनसे जूझने में खप जाता है जीवन

इनसे न फ़ुरसत मिलती है, न निजात
कि कविता की दुनिया की नागरिकता ले सकूँ
इसलिए जब-तब
आता जाता रहता हूँ

कविता की दुनिया
बस पर्यटन है मेरे लिए
न कोई चुनौती
न कोई मोर्चा
न ही कोई क़िला
जिसे जीतने की बेचैनी हो

छुट्टियों में आता हूँ
बेपरवाह घूमता हूँ
थोड़ी-सी हवा
थोड़ा-सा प्यार
थोड़ी-सी भावुकता
बटोरकर रख लेता हूँ

जैसे ऊँट भर लेता है अपने गुप्त थैले में
ढेर सारा पानी

फिर लौट जाता हूँ
उसी दुनिया में वापस

जहाँ छोटे-मोटे मोर्चे
इंतज़ार करते रहते हैं
जैसे बछड़े
गायों के लौटने का।

- सदानंद शाही
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

मैंने आहुति बन कर देखा

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अंतिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझ पर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

- अज्ञेय
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कविता कोश से साभार 

रविवार, 1 दिसंबर 2024

जाने वाले कब लौटे हैं?

जाने वाले कब लौटे हैं क्यूँ करते हैं वादे लोग
नासमझी में मर जाते हैं हम से सीधे-सादे लोग

पूछा बच्चों ने नानी से, हमको ये बतलाओ ना
क्या सचमुच होती थी परियाँ, होते थे शहज़ादे लोग

टूटे सपने, बिखरे अरमाँ, दाग़-ए-दिल और ख़ामोशी
कैसे जीते हैं जीवन भर इतना बोझा लादे लोग

अम्न वफ़ा नेकी सच्चाई हमदर्दी की बात करें
इस दुनिया में मिलते है अब, ओढ़े कितने लबादे लोग

कट कर रहते-रहते हम पर वहशत तारी हो गई है
ए मेरी तन्हाई जा तू, और कहीं के ला दे लोग

- श्रद्धा जैन
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संपादकीय चयन