उपलब्धियाँ, उपहार मुझको।
यह नहीं स्वीकार मुझको!
मूर्ख महिमासिद्ध हों, गौरवमयी उद्बोधनों से।
व्यक्त कर दूँ कंकरों को, मैं शिखर संबोधनों से।
तब मुझे यश-कीर्ति का दे लोभ, मत, मतिभ्रम बढ़ाओ।
है विनय करबद्ध, ये प्रस्ताव लेकर लौट जाओ।
वेदिका पर पाप की,
यजमान का सत्कार मुझको।
यह नहीं स्वीकार मुझको!
मत बताओ मार्ग मुझको, मैं भटकना चाहती हूँ।
मैं स्वयं के तीर्थाटन पर निकलना चाहती हूँ।
पुष्प सब चुन लो, यही सबसे बड़े अवरोध देंगे।
पथ सजाओ कंटकों से, तीव्र गति ये ही बनेंगे।
रोक सकता है अभी,
कोई मृदुल व्यवहार मुझको!
यह नहीं स्वीकार मुझको!
जो स्वयं को सूर्य समझें, शीत से अविदित नहीं हैं!
बस अभी मेरी उचित पहचान से परिचित नहीं हैं।
यदि उठाई आँख कोई, फिर प्रलय तक आ रुकूँगी।
मैं नदी, नभ तक गई हर बूँद वापस माँग लूँगी।
मैं करूँ निर्माण तब,
निर्वाण का अधिकार मुझको।
है यही स्वीकार मुझको!
- इति शिवहरे
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
बहुत सुंदर सार्थक प्रेरक कविता
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