बुधवार, 23 अप्रैल 2025

पीली साड़ियाँ

हर शाम मेरी माँ बहुत अच्छे-से सजती है

महज़ एक पुरानी क्रीम, चुटकी-भर टैल्कम पाउडर की मदद से


पीले रंग की एक साड़ी पहन उस जगह आ बैठती है

जहाँ किताबें पढ़ते हैं पिता मूर्तियों की तरह तल्लीन


अपनी मद्धम आवाज़ में वह कुछ कहती है

दिन-ब-दिन बहरे होते पिता नहीं सुनते


माँ बुदबुदाती है, जब कान थे, तब भी नहीं सुना,

अब क्या सुनेंगे, पकल नींबुओं जैसी इस उम्र में


उनका ध्यान खींचने के लिए चोरी से

स्टील का एक गिलास गिरा देती है वह टेबल से


सिर उठा देखते हैं पिता, उनकी आँखें चमक जाती हैं

आधी सदी बीत चुकी है शाम के इस कारोबार में


पीला, ऊर्जा व सोहाग का रंग है, तुम पर बहुत फबता है

कहते हैं वह, अपनी सुनहरी दलीलों की ओट में मुस्कुराते


जबकि मैं जानता हूँ, जिन जगहों से आए हैं पिता

वहाँ दूर-दूर तक फैले होते थे सरसों के पीले खेत


जब आँचल लहराती है मेरी माँ, लहरों से भर जाता है

पीले रंग का एक समुद्र : शाम की वह सूरजमुखी शांति


मेरी माँ ने ताउम्र महज़ पीली साड़ियाँ पहनीं

ताकि हर शाम अपने बचपन में लौट सकें मेरे पिता

 

- गीत चतुर्वेदी

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

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