मंगलवार, 6 मई 2025

कृपया धीरे चलिए

                                                                                                                                                                                                                                 

मुझे किसी महाकवि ने नहीं लिखा

सड़कों के किनारे

मटमैले बोर्ड पर

लाल-लाल अक्षरों में

बल्कि किसी मामूली

पेंटर कर्मचारी ने

मजदूरी के बदले यहाँ वहाँ

लिख दिया

जहाँ-जहाँ पुल कमजोर थे

जहाँ-जहाँ जिंदगी की

भागती सड़कों पर

अंधा मोड़ था

त्वरित घुमाव था

घनी आबादी को चीर कर

सनसनाती आगे निकल जाने की कोशिश थी

बस्ता लिए छोटे बच्चों का मदरसा था

वहाँ-वहाँ लोकतांत्रिक बैरियर की तरह

मुझे लिखा गया

'कृपया धीरे चलिए'

आप अपनी इंपाला में

रुपहले बालोंवाली

कंचनलता के साथ सैर पर निकले हों

या ट्रक पर तरबूजों की तरह

एक-दुसरे से टकराते बँधुआ मजदूर हों

आसाम, पंजाब, बंगाल

भेजे जा रहे हों

मैं अक्सर दिखना चाहता हूँ आप को

'कृपया धीरे चलिए'

मेरा नाम ही यही है साहब

मैं रोकता नहीं आपको

मैं महज मामूली हस्तक्षेप करता हूँ,

प्रधानमंत्री की कुर्सी पर

अविलंब पहुँचना चाहते हैं तो भी

प्रेमिका आप की प्रतीक्षा कर रही है तो भी

आई.ए.एस. होना चाहते हों तो भी

रुपयों से गोदाम भरना चाहते हों तो भी

अपने नेता को सबसे पहले माला

पहनाना चाहते हों तो भी

जिंदगी में हवा से बातें करना चाहते हों तो भी

आत्महत्या की जल्दी है तो भी

लपककर सबकुछ ले लेना चाहते हों तो भी

हर जगह मैं लिखा रहता हूँ

'कृपया धीरे चलिए'

मैं हूँ तो मामूली इबारत

आम आदमी की तरह पर

मैं तीन शब्दों का महाकाव्य हूँ

मुझे आसानी से पढ़िए

कृपया धीरे चलिए।


-  अनन्त मिश्र

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

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