शनिवार, 31 मई 2025

नींद उचट जाती है

जब-तब नींद उचट जाती है

पर क्या नींद उचट जाने से

रात किसी की कट जाती है?


देख-देख दु:स्वप्न भयंकर,

चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;

पर भीतर के दु:स्वप्नों से

अधिक भयावह है तम बाहर!

आती नहीं उषा, बस केवल

आने की आहट आती है!


देख अँधेरा नयन दूखते,

दुश्चिंता में प्राण सूखते!

सन्नाटा गहरा हो जाता,

जब-जब श्वान श्रृगाल भूँकते!

भीत भावना,भोर सुनहली

नयनों के न लाती है!


मन होता है फिर सो जाऊँ,

गहरी निद्रा में खो जाऊँ;

जब तक रात रहे धरती पर,

चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ

उस करवट अकुलाहट थी, पर

नींद न इस करवट आती है!


करवट नहीं बदलता है तम,

मन उतावलेपन में अक्षम!

जगते अपलक नयन बावले,

थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!

साँस आस में अटकी, मन को

आस रात भर भटकाती है!


जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,

नहीं गई भव-निशा अँधेरी!

अंधकार केंद्रित धरती पर,

देती रही ज्योति चकफेरी!

अंतर्नयनों के आगे से

शिला न तम की हट पाती है!


 - नरेंद्र शर्मा

-----------------

 

-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें