रविवार, 25 मई 2025

जब वफ़ा के खेत बंजर हो गये

 
जब वफ़ा के खेत बंजर हो गये
मोम जैसे लोग पत्थर हो गये । 

जब बुझा पाये न मेरी प्यास को
 शर्म से पानी समन्दर हो गये । 

आग जैसी धूप में जो चल पड़े 
वो निखर कर और सुन्दर हो गये । 

कीमती दौलत महक जब खो गई
मोतियों से फूल कंकर हो गये । 

रोज आपस में लड़ायें बिल्लियां 
अब सियाने खूब बन्दर हो गये । 

अब ज़रूरत ही नहीं विषपान की
 नील मलकर लोग शंकर हो गये ।

-अनुपिन्द्र सिंह अनूप

-----------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

-

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें