जब वफ़ा के खेत बंजर हो गये
मोम जैसे लोग पत्थर हो गये ।
जब बुझा पाये न मेरी प्यास को
शर्म से पानी समन्दर हो गये ।
आग जैसी धूप में जो चल पड़े
वो निखर कर और सुन्दर हो गये ।
कीमती दौलत महक जब खो गई
मोतियों से फूल कंकर हो गये ।
रोज आपस में लड़ायें बिल्लियां
अब सियाने खूब बन्दर हो गये ।
अब ज़रूरत ही नहीं विषपान की
नील मलकर लोग शंकर हो गये ।
-अनुपिन्द्र सिंह अनूप
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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