रविवार, 29 जून 2025

लगता है जाने पर मेरे

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ़ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!
 
मैं आया तो चारण-जैसा
गाने लगा तुम्हारा आँगन;
हँसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण?
मुझको द्वारे तक पहुँचाने सब तो आए, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

मौन तुम्हारा प्रश्नचिह्न है, 
पूछ रहे शायद कैसा हूँ 
कुछ-कुछ चातक से मिलता हूँ
कुछ-कुछ बादल के जैसा हूँ; 
मेरा गीत सुना सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई, 
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे! 
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

परिचय से पहले ही बोलो, 
उलझे किस ताने-बाने में?
तुम शायद पथ देख रहे थे, 
मुझको देर हुई आने में;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता है तुम मन-बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

- रामावतार त्यागी
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 28 जून 2025

अकेला पानी

अपने ही अथाह में
खोजता है अकेला पानी
छिपने की जगह रेत में

रेत नहीं छिपाती उसे
ठेलती रहती है गहराई की ओर

रेत से पानी
पानी से रेत
मिल रहे हैं ऐसे ही
न जाने कब से इसी तरह
बचाए हुए अपना प्रेम

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 27 जून 2025

डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना

जिस चाव से विश्वनाथ जी खाते हैं पकवान
उसी चाव से खाते हैं नमक और रोटी
प्याज और मिर्च के साथ
चटनी देखते ही उनका चोला मगन हो जाता है ।

इस तरह कि उन्हें खाता हुआ देखकर
कुबेर के मुँह में पानी आ जाए
डॉक्टर अपनी हिदायतें भूल जाएँ
मंदाग्नि के रोगी की भूख खुल जाए
कुछ ऐसा कि उन्हें खिलाने वाला
उन्हें खाता हुआ देखकर ही अघा जाए ।
मुँह में एक निवाला गया नहीं कि बस
सिर हिला हौले से ‘वाह’
जैसे किसी ने बहुत सलीके से उन्हें
ग़ालिब का कोई शेर सुना दिया हो।
थाली का एक-एक चावल अँगुलियों से
उठाते हैं अक्षत की तरह
हाथ से खाते हैं भात
जैसे चम्मच से चावल खाना
मध्यस्थ के माध्यम से प्रेमिका का चुंबन लेना हो।

रस की उद्भावना में डूबे भरत से
कविता के अध्यापक विश्वनाथ जी ने
सीखा होगा शायद बातों-बातों में भी
व्यंजनों का रस लेना।

रोटी-दाल-भात-तरकारी
पूरी-पराठा-रायता-चटनी
दही बड़े और भरवा बैंगन
इडली-डोसा-चाट-समोसा
ज़रा इनका उच्चारण तो कीजिए
आप भी आदमी हो जाएँगे।

अगर अन्न-जल, भूख-प्यास न होते
तो कितनी उबाऊ होती यह दुनिया
अगर दुनिया में खाने-पीने की चीज़ें न होतीं
तो जीभ को राम कहने में भी रस नहीं मिलता।

विश्वनाथ जी का खाना देखकर मन करता है कि
आज बीवी से कहें कि वह
मटर का निमोना और आलू का चोखा बनाए 
जिसे खाया जा सके छककर।

बाबा किसी ग़रीब बाभन के बेटे रहे होंगे
अन्यथा अमीरी में पले हुए
किसी भी आदमी की जीभ पर
नहीं चढ़ सकता अन्नमात्र का ऐसा स्वाद
उनके खाने की तुलना ग़रीब मजूर या
हलवाहे की, खेत पर खुलने वाली
भूख से ही की जा सकती है।

अन्यथा जिनके पास विकल्प हैं स्वाद के
वे नहीं जानते भूख का स्वाद।

- दिनेश कुशवाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 26 जून 2025

बेटियाँ जब विदा होती हैं

बेटियाँ जब विदा होती हैं
उदासी की बारिश में
भीग जाता है समूचा घर

घर के हर कोने में टँगा
बेटियों की अनुपस्थिति का साइनबोर्ड
दूर से ही चमकता है

जैसे रेगिस्तान में चमकती है
दूर-दूर तक 
सिर्फ़ रेत ही रेत। 

- जसवीर त्यागी
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विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 25 जून 2025

अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ

समय बहुत कम है मेरे पास
और अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ

गोरैया-सा चहकना चाहती हूँ मैं
चाहती हूँ तितली की तरह उड़ना
और सारा रस पी लेना चाहती हूँ जीवन का

नाचना चाहती हूँ इस कदर कि
थक कर हो रहूँ निढाल

एक मछली की तरह तैरना चाहती हूँ
पानी की गहराइयों में

सबसे ऊँचे शिखर से देखना चाहती हूँ संसार
बहुत गहरे में कहीं गुम हो रहना चाहती हूँ मैं

इस कदर टूटकर करना चाहती हूँ प्यार 
कि बाकी न रहे
मेरा और तुम्हारा नाम-ओ-निशान
इस कदर होना चाहती हूँ मुक्त 
कि लाख खोजो
मुझे पा न सको तुम
फिर
कभी भी कहीं भी

- देवयानी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 24 जून 2025

कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य

बहुत छोटी हो गई है हमारी दुनिया
बहुत कम हुई है हमारी दुनिया की दूरी
पर हमारा भय कम नहीं हुआ है।

अलंघ्य कुछ भी नहीं है हमारी दुनिया में आज
पर वहीं की वहीं खड़ी है दो कमरों के बीच
दीवार दुर्भेद्य
जिसे दो जन हटाना चाहते हैं पूरे मन से
जबकि अभी-अभी गिरी है बर्लिन की दीवार।

देशों ने चखा है स्वतंत्रता का स्वाद
पर हमारे मुँह का कसैलापन कम नहीं हुआ है।

आँखों का कोना सहलाने जितनी मुलायमियत से
छूते ही कुछ बटनें
एक आदमी बोलता है हैलो
सात समुंदर पार
पर उस आदमी के लिए
हमारा तरसना कम नहीं हुआ।

आपसी बातचीत बढ़ी है दुनिया में
पर कम नहीं हुए हैं प्रश्न
दुनिया में आदान-प्रदान बढ़ा है
पर कम नहीं हुए हैं युद्ध।
युद्ध के सारे हथियार बदले हैं
पर एक चीज़ बिलकुल नहीं बदली
कि युद्ध में अब भी मरता है आदमी।

मारने की दर बढ़ी है दुनिया में
पर
कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य।

- दिनेश कुशवाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 23 जून 2025

बाँसुरी

मैं बाँस का एक टुकड़ा था
तुमने मुझे यातना देकर
बाँसुरी बनाया

मैं तुम्हारे आनंद के लिए
बजता रहा
फिर रख दिया जाता रहा
घर के अँधेरे कोने में

जब तुम्हें ख़ुश होना होता था
तुम मुझे बजाते थे

मेरे रोम-रोम में पिघलती थीं
तुम्हारी साँसें
मैं दर्द से भर जाया करता था

तुमने मुझे बाँस के कोठ से
अलग किया
अपने ओठों से लगाया

मैं इस पीड़ा को भूल गया कि
मेरे अंदर कितने छेद हैं

मैं तुम्हारे अकेलेपन की बाँसुरी हूँ
तुम नहीं बजाते हो तो भी
मैं आदतन बज जाया करता हूँ।

- स्वप्निल श्रीवास्तव
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 22 जून 2025

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है
बहार आने की सूरत निकल भी सकती है

जला के शम्अ अब उठ-उठके देखना छोड़ो
वो ज़िम्मेदारी से अज़-ख़ुद पिघल भी सकती है

है शर्त सुब्ह के रस्ते से हो के शाम आए
तो रात उस को सहर में बदल भी सकती है

ज़रा सँभल के जलाना अक़ीदतों के चराग़
भड़क न जाएँ कि मसनद ये जल भी सकती है

अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का
अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है

ये आफ़्ताब से कह दो कि फ़ासला रक्खे
तपिश से बर्फ़ की दीवार गल भी सकती है

तिरे न आने की तशरीह कुछ ज़रूरी नहीं
कि तेरे आते ही दुनिया बदल भी सकती है

कोई ज़रूरी नहीं वो ही दिल को शाद करे
'अलीना' आप तबीअत बहल भी सकती है

- अलीना इतरत
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 21 जून 2025

मुलाक़ात

कल 
मेरी मुलाक़ात हुई 
मुझसे 
आईने के बिना 
अपना चेहरा 
देखने का
यह एक दुर्लभ 
दृश्य था!

- ज्योति कृष्ण वर्मा
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 20 जून 2025

पुखराजी धूप

सुबह की नरम पुखराजी वो धूप
खिड़की से आ के बिछौने पे मेरे
गुनगुने हाथों से छू के मुझे
कानों में प्यार से गुनगुन करे,
पीताभ, स्वर्णिम किरणों की चकमक
दूर के पीपल पे झलमल झलकती
मुंदी आँखों पे मेरी नर्तन करे,
मैं न उठूँ और लेटी रहूँ तो
भेजे गौरैया को, कुटकुट बधैय्या को
जो चूँ चूँ चहकती शरारत करें
भेजे हवाओं को, फूलों के सौरभ को
जो मन को मेरे, ताजगी से भरे!

फिर भी मैं आँखें मूंदे रहूँ
मलमल-सी आभा से लिपटी रहूँ तो,
तीखे परस से छूकर के मुझको
उठने को बेहद तंग वो करे,
उठते ही मेरे, बादल के पीछे
छुपती छुपाती, मिचौली-सी करती
खिड़की से कमरे में,
कमरे से आँगन में
दादी की खटिया से,
गैया की बछिया पे
थिरकती मचलती रुक-रुक के चलती
सबको उजाले से भर के हँसे,
कितनी सलोनी, कितनी अनूठी
पीली, सुनहरी, सरकती वो धूप
गरमा के आँगन, दीवारों और आलों को
पशमीने से कोमल मेरे ख्यालों को
दिनभर गलबहियाँ वो डाले मेरे

साँझ को पूरब की ऊँची मुँडेर पे
खिसक जाती, कहती - ‘अब हम चले’!

- दीप्ति गुप्ता
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 19 जून 2025

तुम

एक तुम वह हो
जो तुम हो
बतियाते हो मुझसे
मुझे सुनते हो
जाने क्या सोचते हो
जाने कैसे रहते हो
क्या चाहते हो
क्यों चाहते हो
चाहते भी हो या नहीं चाहते हो

एक तुम है
जो मुझमें है
शायद तुमसे मिलता-सा
शायद न मिलता हो तुमसे इस तरह
मैं अपने भीतर के इस तुम से बतियाती हूँ
उसकी आवाज़ें तुम तक जाती हैं

जब तुम कहते हो
मैं मुझमें बैठे तुम को सुनती हूँ
यह जो तुम बाहर हो मेरे सामने
यह जो मुझमें है
क्या यह भी बतियाते हैं दोनों

- देवयानी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 18 जून 2025

प्रीत किये दुख होय

हिमगिरी-सी पीड़ा सह जाने वाला हृदय
गौरेया के पंख की ठेस से टूट जाता है
जाते हुए तुम्हारी पीठ देखती हूँ
मेरी अंजुरी से छलक जाता है अमृत 

न धरती फटी न आसमान टूटा
ये संसार यथावत चलता रहा 
कहीं कोई पत्ता भी नहीं खड़का
मैंने अपने ही प्राण निकलते देखे
मेरी आँख से एक आँसू नहीं गिरा

सब इतना ठीक था, 
जैसे घड़ी न थमी 
न वक्त बदला
दीवार पर एक जाला नहीं था
मेरी चादर धुली हुई थी
मेरे माथे पर थी वही बिंदी
मैंने हँसना छोड़ा न गुनगुनाना
बस तुम्हारी पसंद का इत्र लगाना भूल गई 

तुम्हारे बाद आयु बची, जीवन नहीं

- श्रुति कुशवाहा
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विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 17 जून 2025

ये समय है

ये समय है 
बोलने का समय है
खुलेआम
भेद खोलने का समय है

लोग शोर में ज़िंदगी गुज़ारने लगे हैं
शोर मचाकर चुप रहना सीख जाते हैं
बोलना बेकार हो जाता है
लोग बोलना बंद करते जा रहे हैं
तभी तो बोलियाँ मिटती जा रही हैं
गोलियों की आवाज़ बढ़ती जा रही है

ये बेख़बर रहकर जीने का नहीं
समझकर बोलने का समय है
ये शैतान से संवाद का समय है
हैवान से जेहाद का समय है

ये किसी के बचने का नहीं
इसीलिए सबको बचाने का समय है
ये समय काम आ जाए तो बहुत अच्छा
न आए तो फिर सबके मिट जाने का समय है

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 16 जून 2025

प्रत्युत्तर

पड़ताली तर्जनी
हमारे पास है औ’
दिखाते हैं वे
अँगूठा-समाधान!

- देवी प्रसाद मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 15 जून 2025

कुछ नहीं

समंदर कभी किसी के 
घावों के बारे में 
नहीं पूछता 
उसके पास 
नमक के सिवा 
कुछ नहीं

- ज्योति कृष्ण वर्मा 
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विजया सती के सौजन्य से 

शनिवार, 14 जून 2025

हे सृष्टिपिता!

हे सृष्टिपिता!
स्त्री देह गढ़ने वाले
तुम्हारे साँचे में ही कोई दोष है 
या मिट्टी ही वह किसी काम की नहीं 
या फिर नाप-तौल की समझ ही ज़रा कच्ची है तुम्हारी! 

आओ 
मैं तुम्हे सिखाती हूँ 
न्यून और आधिक्य का हिसाब 
और सधे हुए अनुपातों का गणित 
तुम ईश्वर हो तो क्या हुआ!
अपनी ही संतति से सीखने में कैसा संकोच! 

चलो पहले स्त्री के कंधे बनाऐंगे
देखो! बहुत कंजूसी ठीक नहीं
इतनी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने के लिए 
मज़बूत कँधों की पेशियाँ बनाने में 
शक्ति की ज़रा ज़्यादा टिकाऊ मिट्टी लगती है

दिल धड़के भी, प्रेम भी करे और आघात भी सहे
यही दस्तूर है न तुम्हारी दुनिया का!
लिहाजा हृदय बनाऐंगे 
ज़रा मज़बूत और ख़ूब पक्की मिट्टी से
कि ज़रा ज़रा-सी बात पर आहत होकर टूट न जाए

हाथ पैरों को देंगे 
थोड़ा इस्पाती कलेवर
कि बाहर निकलकर कमा खा सके, 
इच्छा के विरुद्ध किसी बात पर
वक़्त पड़ने पर तमाचा या लात जड़ सके
सिर्फ धीरज के बल पर कोई कितना निर्वाह करे बाबा?

मति गढ़ेंगे, सूझ-बूझ से भरी प्रत्युत्तपन्नता वाली
कि निर्णय ले सके स्वयं समय पर
मुंह ही न देखती रहे किसी का

स्मृतियों के ख़ाने अलग-अलग रखेंगे 
कटु स्मृति को रखेंगे थोड़े ही समय रहने वाले ख़ाने में
कि दुखों की उम्र ज़रा कम लंबी हो

आत्मा हो
ज़रा कम लजीली, कम संकोची 
कि उम्र इज़्ज़त मर्यादा संस्कार 
और लोक व्यवहार की भेंट न चढ़ जाए

ओ प्यारे पिता 
अब के जो भेजो पृथ्वी पर कोई स्त्री 
तो उसकी देह की प्राण प्रतिष्ठा 
सम्मान और स्नेह के मंत्रों से करना

देना कम दुर्भाग्य,
कम लाज और भय
कम तिरस्कार, कम अपमान 
कम समझौते, कम हीनताबोध के घाव

देखो!
पिता होकर भेद न करना! 
अब अगर कोई निर्मिति हो  
तो अपनी दोनों संतानों को बराबर देना अवसर।

- सपना भट्ट
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 13 जून 2025

प्रतीक्षा

मछली
पानी में रह सकती है 
पानी की तस्वीर में नहीं 
तुम अपनी 
तस्वीर 
मत भेजो 
चली आओ!

- ज्योति कृष्ण वर्मा 
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विजया सती के सौजन्य से 

गुरुवार, 12 जून 2025

वे लड़कियाँ

वे लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी थीं
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ
बिन रोपे ही उग आता है
ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ
बेटों की चाह में अनचाहे ही आ जाती हैं!

पीर से जड़ी सुधियों की माला
पहनकर वे बिहँसती रहीं!

ख़ुद को खरपतवार मान
वे साध से गिनाती रहीं
कि भाई के जन्म पर क्या-क्या उछाह हुआ
और गर्व से बताती रहीं
कि कितने नाज़-नखरे से पला है
हम जलखुंभियों के बीच में ये स्वर्णकमल!

बिना किसी डाह के वे प्रसन्न रहीं
अपने परिजनों की इस दक्षता पर
कि कैसे एक ही कोख से
एक ही रक्त-माँस से
और एक ही
चेहरे-मोहरे के बच्चों के पालन में
दिन-रात का अंतर रखा गया!

समाज के शब्दकोश में दुख के कुछ स्पष्ट पर्यायवाची थे
जिनमें सिर्फ़ सटीक दुखों को रखा गया
इस दुख को पितृसत्तात्मक वेत्ताओं ने ठोस नहीं माना
बल्कि जिस बेटी की पीठ पर बेटा जन्मा
उस पीठ को घी से पोत दिया गया
इस तरह उस बेटी को भाग्यमानी कहकर मान दे दिया!

लल्ला को दुलारती दादी और माँ
लल्ला की कटोरी में बचा दूध-बताशा उसे ही थमातीं!
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ भी अनायास सींच दिया जाता है
पर प्यास गेहूँ की ही देखी जाती है!

अपने भाग्य पर इतराती
वे लड़कियाँ कभी देख ही नहीं पाईं
कि भूख हमेशा लल्ला की ही मिटाई गई!

तुम बथुए की तरह उनके लल्ला के पास ही उगती रहीं
तो तुम्हें तुरंत कहाँ उखाड़कर फेंका जाता!

इसलिए दबी ही रहना
ज़्यादा छतनार होकर
बाढ़ न मार देना उनके दुलरुआ की!
जो ढेरों मनौतियों और देवी-देवता के अथक आशीष का फल है।

- रूपम मिश्रा 
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विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 11 जून 2025

मनाकाश

आज निरभ्र है मनाकाश 
अगणित तारों के अनंत पसार तले
आज बदल सकती हूँ वस्त्र 
आज केवल सतरंगी ओस से ढक सकती हूँ
देह की अनन्य लाज 

आज तुम्हारे स्पर्श से आह्लादित है
गात का तटस्थ जल 
आज प्रतीक्षाओं को दे सकती हूँ
पूर्णता के सारे चमकीले क्षण

आज निर्भय हूँ!
आज चाहूँ तो 
दुख वाले हस्तक्षेपों के उमेठ सकती हूँ कान 
आज मृत्यु को बरजकर द्वार पर रोक सकती हूँ

आज खूब दिनों बाद 
भय और लज्जा के बहुलार्थों से मुक्त है आत्मा
आज रोक सकती हूँ युद्ध
लिख सकती हूँ कविता 

आज अथाह सुख से भरी हैं
देह की सब शिराएँ 

आज निकालकर दे सकती हूँ
तुम्हे अपना हृदय निसंकोच 

चटख लाल, गर्म और लबालब प्रेम से भरा

- सपना भट्ट
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विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 10 जून 2025

मृत्यु भी प्रबोधन है

सहसा किसी उदात्त क्षण 
धूप का उजला फूल अपनी वेणी में खोंसे 
विहँसती है जीवन की अंतिम साँझ

किसी अतिरेकी क्षण
देह के अंतिम दर्रे को लाँघकर 
आत्मा के सीले अँधेरे में उतरता है प्रभात 

रस छंद और अलंकारों की 
नाटकीयता से ऊबकर 
अचानक कागज़ पर स्याही उलट देता है कवि,
कविता शोक के धवल वस्त्र पहन लेती है

एकाएक असंभव, संभव हो जाता है

मन का मलंग मल्लाह 
मझधार में अकस्मात डुबो देता है नौका 
फेंक देता है पतवार 

प्रतीक्षालय में 
याद की आख़िरी सिगरेट फूँकते 
छूट जाती है प्लेटफॉर्म पर देर से खड़ी रेलगाड़ी 

धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है
मिलन की एषणा, प्रतीक्षा का सौंदर्य;

प्रेय को चूमने की उत्कट चाह 
धीरे से झर जाती है 

पीछे छूटे गझिन विलाप की 
रुआँसी प्रतिध्वनि कहती है 
कि "क्या हुआ जो तुमने किसी को चीह्नने में चूक की"!

सुख में फ्योंली के पीले फूलों को 
किसने वेणी में नहीं खोंसा! 

शोक में काँटों से उलझने का संताप
किसके अँचरे से नहीं बंधा!

जानती हूँ अनित्य है संसार!
और तो और भंगुर है प्रेम की यह मूक यातना भी

फिर भी इतना विलंब नहीं हुआ अभी
कि देह की सब शिराएँ निचोड़कर भी
बिछोह की निषिद्ध ऋतु की साँवली छाया को 
बुराँस के एक लाल फूल में न बदल सकूँ

इतनी संदिग्ध नहीं है बेला 
कि उसी मृदुल फूल को 
अपनी अनुरक्तियों के तमिस्र शवागार में रखकर 
प्रेम के अभीष्ट से मुक्ति की अभ्यर्थना भी न कर सकूँ 

- सपना भट्ट
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 9 जून 2025

कई बार मैंने

कई बार मैंने कोशिश की
इस बाढ़ में से अपना एक हाथ निकालने की
कई बार भरोसा हुआ
कई बार दिखा यह है अंत

मैं कहना चाहता था
एक या दो मालूमी शब्द
जिन पर फ़िलहाल विश्वास किया जा सके
जो सबसे ज़रूरी हों फ़िलहाल

मैं चाहता था
एक तस्वीर के बारे में बतलाना
जो कुछ देर क़रीब-क़रीब सच हो
जो टँगी रहे चेहरों और

दृश्यों के मिटने के बाद कुछ देर
मैं एक पहाड़ का
वर्णन करना चाहता था
जिस पर चढ़ने की मैंने कोशिश की
जो लगातार गिराता था धूल और कंकड़
रहा होगा वह भूख का पहाड़

मैं एक लापता लड़के का
ब्यौरा देना चाहता था
जो कहीं गुस्से से खाता होगा रोटी
देखता होगा अपनी चोटों के निशान
अपने को कोसता
कहता हुआ चला जाऊँगा घर

मैं अपनी उदासी के लिए
क्षमा नहीं माँगना चाहता था
मैं नहीं चाहता था मामूली
इच्छाओं को चेहरे पर ले आना
मैं भूल नहीं जाना चाहता था
अपने घर का रास्ता।

- मंगलेश डबराल
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विजया सती के सौजन्य से 

रविवार, 8 जून 2025

वृक्ष विहीन

वृक्ष विहीन हुई जाती थी धरती
लालच की आँत फैलती जाती थी

ऐसे में देखा मैंने 
मेरे घर के गमले में
नन्हा-सा पीपल एक उगा है
दस-ग्यारह पत्ते फूटे हैं उस पर
लहराते हैं

शायद कोई पांखी 
खाकर गोल
उड़ते-उड़ते बीज यहाँ पर डाल गया था
पड़ा हुआ था जो मिट्टी में दबा हुआ था

पाकर परस हवा पानी का
उग आया है

मैंने सोचा
मैं इसको रोपूँगा घर के सम्मुख
सींचूँगा बाड़ करूँगा 
जिस पर पांखी आऐंगें

वृक्ष काटने वाले निशदिन जुटे हुए हैं बेशक 
लेकिन 
नन्हीं गुरगुल गौरैया टुइयाँ तोता
भी तो भरसक जुटे हुए हैं

विनोद पदरज
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 7 जून 2025

एक ही प्रेम

एक प्रेम काफ़ी है ज़िंदा रहने के लिए 
एक ही प्रेम नष्ट होने के लिए 
पर्याप्त है एक प्रेम का दंड

एक का ही वरदान कर देता है धन्य 
एक प्रेम की निराशा फैल जाती है दूर तक
और वही थाम लेता है आशा का चिथड़ा 
एक प्रेम से ऊब पैदा होती है, उसी से तृप्ति

एक प्रेम सूर्योदय और सूर्यास्त के लिए 
वही काफ़ी है रात में चाँद सितारों के वास्ते
एक प्रेम की व्यग्रता हो सकती है बर्दाश्त
सँभाली जा सकती है बस एक प्रेम की प्रसन्नता 
एक प्रेम गर्व से कर देता है सिर ऊँचा

और वही बैठा देता है घुटनों के बल 
जब कोई नहीं रहता, कुछ नहीं बचता 
सब विदा ले चुके होते हैं तो अतल की तलहटी में 
सूखे उजाड़ जीवन में टिमटिमाता है वही एक प्रेम 
उसकी टिमटिमाहट दिखती है प्रखर रौशनी की तरह 
जब सब तरफ़ कोलाहल, आपाधापी और घबराहट होती है

एक वही प्रेम हाथ थामकर देता है आत्मीय एकांत 
और वही धकेल देता है जीवन की भागमभाग में 
एक ही प्रेम कर देता है जीना मुश्किल 
और एक उसी के लिए तो अटकी हुई है यह साँस।

- कुमार अंबुज 
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 6 जून 2025

सौंदर्य

हम पहाड़ का सौंदर्य देखते हैं
पहाड़ का दुख नहीं 
हम समुद्र का सौंदर्य देखते हैं 
समुद्र का दुख नहीं 
हम मरुस्थल का सौंदर्य देखते हैं 
मरुस्थल का दुख नहीं 
हम स्त्री का सौंदर्य देखते हैं 
जो पहाड़ है 
समुद्र है 
मरुस्थल है।

- विनोद पदरज
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विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 5 जून 2025

शर्म

अपने बच्चे को समझाती हूँ
दुनिया अब भी बहुत सुंदर है
वह पूछता है कैसे?
और मैं सोचती हूँ कहाँ से शुरू करूँ
पेड़?
हवा?
पानी?
प्रेम?
सत्य?
करुणा?
बस इतने पर आकर ही
थकने लगती हूँ प्रश्न चिह्नों से

और जवाब की
उत्सुकता में ताकता मेरा चेहरा
वह समझ जाता है मेरी चुप्पी का अर्थ
और मैं छिपाती हूँ अपनी शर्म

दिखाती हूँ बस खिले हुए कुछ फूल।

- राकी गर्ग
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विजया सती की पसंद 

मंगलवार, 3 जून 2025

बहन


ज्यादा मत हँसा कर

नहीं तो दुख पाऐगी

बरजती थी माँ

छोटी बहन को


अब नहीं हँसती बहन

उस तरह से

जिस तरह से

खिलखिलाती

उड़ रही है भानजी


बल्कि डाँटती है-

"नासपीटी

बंद कर

ज्यादा खिलखिलाएगी तो जीते जी मर जाएगी" और उदास हो जाती है


ना जाने किन स्मृतियों में खो जाती है।


 - विनोद पदरज

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


सोमवार, 2 जून 2025

स्त्रियों से ही है वसंत

स्त्रियों से ही है वसंत 

और स्त्रियों से ही है जीवन-सुख अनंत 

न हों स्त्रियाँ तो फिर कैसा ब्रह्म, 

कैसा ब्रह्मांड...?


नदियाँ स्त्रियों से,

फूलों में खुशबू स्त्रियों से,

आकाश स्त्रियों से,

आकाश में उड़ना स्त्रियों से

शस्त्र और शास्त्र स्त्रियों से 

और हार-जीत भी 

पाँव-पाँव चलता है, दौड़ता है, 

हाँफता है संसार 

तार-तार भी, बेतार भी, 

हो जाता है स्मृतियों में 

पहाड़ सदियों के ढोता है अपने कांधों पर 

बिजली के तारों से लपेटता है दुख अपने

दुख मगर स्त्रियों के भी तो कुछ कम नहीं

टुकड़ा-टुकड़ा सुलगती रहती हैं 

गीली लकड़ियाँ 

जीवन में जीवनभर के लिए 

भर जाता है धुआँ

अक्षर-अक्षर क्षरण, घिसता है पत्थर भी 

परिभाषाएँ बदलती नहीं हैं 

ताप की, संताप की 

जितना-जितना खुलती हैं 

अपनी आकाँक्षाओं में

उतना-उतना बंद होती जाती हैं स्त्रियाँ 

अपनी पवित्रताओं से करती हैं 

उद्धार सभी का 

उनकी सोच सिर्फ उनकी नहीं, न प्रेम हो 

एकाकी कुछ नहीं 

उनके एकान्त में कुछ भी नहीं

ढोल-ढमाके छीनते ही रहते हैं उनके सपने 

सपने वे भी छिन ही जाते हैं स्त्रियों के 

स्त्रियाँ जो देखती हैं सपने दूसरों के लिए 

दूसरों की दुनिया में जीवन नहीं, 

जीवन का अंत है 

स्त्रियों से ही वसंत है।


 - राजकुमार कुम्भज

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- हरप्रीत सिंह पुरी  की पसंद 



रविवार, 1 जून 2025

औसत औरत

तुम्हें चाहिए एक औसत औरत

न कम न ज़्यादा

बिल्कुल नमक की तरह


उसके ज़बान हो

उसके दिल भी हो

उसके सपने भी हो।


उसके मत भी हों मतभेद भी

उसके दिमाग़ हो

ताकि वह पढ़े तुम्हें और सराहे

वह बहस कर सके तुमसे

तुम शह-मात कर दो

ताकि समझा सको उसे

कि उसके विचार कच्चे हैं अभी

अभी और ज़रूरत है उसे

तुम-से विद्वान की।


औसत औरत को तुम

सिखा सकोगे बोलना

सिखा सकोगे कि कैसे पाले जाते हैं

आज़ादी के सपने।


पगली होती हैं औरतें

बस खिंची चली जाती हैं दुलार से।


इसलिए उसकी भावनाएँ भी होंगी

आँसू भी

वह रो सकेगी

तुम्हारी उपेक्षा पर


तुम हँस सकोगे उसकी नादानी पर

कि कितना भी कोशिश करे औरत

औसत से ऊपर उठने की

औरतपन नहीं छूटेगा उससे।


तुम्हारा सुख एक मुकम्मल सुख होगा

ठीक उस समय तुम्हारी जीत सच्ची जीत होगी

जब एक औसत औरत में

तुम गढ़ लोगे अपनी औरत।


 - सुजाता

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से