रविवार, 29 जून 2025
लगता है जाने पर मेरे
शनिवार, 28 जून 2025
अकेला पानी
शुक्रवार, 27 जून 2025
डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना
गुरुवार, 26 जून 2025
बेटियाँ जब विदा होती हैं
बुधवार, 25 जून 2025
अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ
मंगलवार, 24 जून 2025
कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य
सोमवार, 23 जून 2025
बाँसुरी
रविवार, 22 जून 2025
ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है
शनिवार, 21 जून 2025
मुलाक़ात
शुक्रवार, 20 जून 2025
पुखराजी धूप
गुरुवार, 19 जून 2025
तुम
बुधवार, 18 जून 2025
प्रीत किये दुख होय
मंगलवार, 17 जून 2025
ये समय है
सोमवार, 16 जून 2025
प्रत्युत्तर
रविवार, 15 जून 2025
कुछ नहीं
शनिवार, 14 जून 2025
हे सृष्टिपिता!
शुक्रवार, 13 जून 2025
प्रतीक्षा
गुरुवार, 12 जून 2025
वे लड़कियाँ
बुधवार, 11 जून 2025
मनाकाश
मंगलवार, 10 जून 2025
मृत्यु भी प्रबोधन है
सोमवार, 9 जून 2025
कई बार मैंने
रविवार, 8 जून 2025
वृक्ष विहीन
शनिवार, 7 जून 2025
एक ही प्रेम
शुक्रवार, 6 जून 2025
सौंदर्य
गुरुवार, 5 जून 2025
शर्म
मंगलवार, 3 जून 2025
बहन
ज्यादा मत हँसा कर
नहीं तो दुख पाऐगी
बरजती थी माँ
छोटी बहन को
अब नहीं हँसती बहन
उस तरह से
जिस तरह से
खिलखिलाती
उड़ रही है भानजी
बल्कि डाँटती है-
"नासपीटी
बंद कर
ज्यादा खिलखिलाएगी तो जीते जी मर जाएगी" और उदास हो जाती है
ना जाने किन स्मृतियों में खो जाती है।
- विनोद पदरज
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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
सोमवार, 2 जून 2025
स्त्रियों से ही है वसंत
स्त्रियों से ही है वसंत
और स्त्रियों से ही है जीवन-सुख अनंत
न हों स्त्रियाँ तो फिर कैसा ब्रह्म,
कैसा ब्रह्मांड...?
नदियाँ स्त्रियों से,
फूलों में खुशबू स्त्रियों से,
आकाश स्त्रियों से,
आकाश में उड़ना स्त्रियों से
शस्त्र और शास्त्र स्त्रियों से
और हार-जीत भी
पाँव-पाँव चलता है, दौड़ता है,
हाँफता है संसार
तार-तार भी, बेतार भी,
हो जाता है स्मृतियों में
पहाड़ सदियों के ढोता है अपने कांधों पर
बिजली के तारों से लपेटता है दुख अपने
दुख मगर स्त्रियों के भी तो कुछ कम नहीं
टुकड़ा-टुकड़ा सुलगती रहती हैं
गीली लकड़ियाँ
जीवन में जीवनभर के लिए
भर जाता है धुआँ
अक्षर-अक्षर क्षरण, घिसता है पत्थर भी
परिभाषाएँ बदलती नहीं हैं
ताप की, संताप की
जितना-जितना खुलती हैं
अपनी आकाँक्षाओं में
उतना-उतना बंद होती जाती हैं स्त्रियाँ
अपनी पवित्रताओं से करती हैं
उद्धार सभी का
उनकी सोच सिर्फ उनकी नहीं, न प्रेम हो
एकाकी कुछ नहीं
उनके एकान्त में कुछ भी नहीं
ढोल-ढमाके छीनते ही रहते हैं उनके सपने
सपने वे भी छिन ही जाते हैं स्त्रियों के
स्त्रियाँ जो देखती हैं सपने दूसरों के लिए
दूसरों की दुनिया में जीवन नहीं,
जीवन का अंत है
स्त्रियों से ही वसंत है।
- राजकुमार कुम्भज
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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद
रविवार, 1 जून 2025
औसत औरत
तुम्हें चाहिए एक औसत औरत
न कम न ज़्यादा
बिल्कुल नमक की तरह
उसके ज़बान हो
उसके दिल भी हो
उसके सपने भी हो।
उसके मत भी हों मतभेद भी
उसके दिमाग़ हो
ताकि वह पढ़े तुम्हें और सराहे
वह बहस कर सके तुमसे
तुम शह-मात कर दो
ताकि समझा सको उसे
कि उसके विचार कच्चे हैं अभी
अभी और ज़रूरत है उसे
तुम-से विद्वान की।
औसत औरत को तुम
सिखा सकोगे बोलना
सिखा सकोगे कि कैसे पाले जाते हैं
आज़ादी के सपने।
पगली होती हैं औरतें
बस खिंची चली जाती हैं दुलार से।
इसलिए उसकी भावनाएँ भी होंगी
आँसू भी
वह रो सकेगी
तुम्हारी उपेक्षा पर
तुम हँस सकोगे उसकी नादानी पर
कि कितना भी कोशिश करे औरत
औसत से ऊपर उठने की
औरतपन नहीं छूटेगा उससे।
तुम्हारा सुख एक मुकम्मल सुख होगा
ठीक उस समय तुम्हारी जीत सच्ची जीत होगी
जब एक औसत औरत में
तुम गढ़ लोगे अपनी औरत।
- सुजाता
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- हरप्रीत
सिंह पुरी के सौजन्य से
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बात सीधी थी पर एक बार भाषा के चक्कर में ज़रा टेढ़ी फँस गई। उसे पाने की कोशिश में भाषा को उलटा पलटा तोड़ा मरोड़ा घुमाया फिराया कि बात या तो ब...
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चेतना पारीक कैसी हो? पहले जैसी हो? कुछ-कुछ ख़ुश कुछ-कुछ उदास कभी देखती तारे कभी देखती घास चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? अब भी कविता लिखती हो? ...
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पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में रंग छा जाते हैं मानो ये चंचल नैन इन्हें जनमों से जानते थे। मानो हृदय ही फूला...