शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

क्योंकि

क्योंकि सपना है अभी भी 
इसलिए तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएँ,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,
किंतु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
क्योंकि है सपना अभी भी!

तोड़कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा,
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा,
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहाँ याद होगा)
किंतु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
यह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूँज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएँ, पहचान, कुंडल-कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल,
कोहरे डूबी दिशाएँ,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल
किंतु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
क्योंकि सपना है अभी भी!

- धर्मवीर भारती
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अनूप भार्गव की पसंद 

गुरुवार, 26 सितंबर 2024

प्रेम की परिक्रमा

जब मैं प्रेम करता हूँ अपने से 
अच्छा लगता है पानी का दरख़्त 
और मेरे भीतर से उछलकर कुछ बीज 
प्रवेश करते हैं शब्दों के भीतर 

जब मैं प्रेम करता हूँ तुमसे-सबसे 
अच्छी लगती है भरी-पूरी नदी 
और नक्षत्र-लोक से बरसती दुआएँ 
जोत जगाती हैं आँगन के दियों में 

जब हम प्रेम करते हैं पृथ्वी से 
आँखों में तैरते हैं सातों समुद्र 
और पुरखों के सपनों की पताकाएँ 
फहराने लगती हैं समय के आकाश में 
पानी का दरख़्त नदी में 
और नदी समुद्र में मिल जाती है 

फिर भी पूरी नहीं होती प्रेम की परिक्रमा 
क्षितिजों के पार कुछ ढूँढ़ती ही रहती हैं 
कवियों की आँखें।

- चंद्रकांत देवताले
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 25 सितंबर 2024

गीत बनाने की ज़िद है

दीवारों से भी बतियाने की ज़िद है
हर अनुभव को गीत बनाने की ज़िद है

दिये बहुत से गलियारों में जलते हैं
मगर अनिश्चय के आँगन तो खलते हैं
कितना कुछ घट जाता मन के भीतर ही
अब सारा कुछ बाहर लाने की ज़िद है

जाने क्यों जो जी में आया नहीं किया
चुप्पा आसमान को हमने समझ लिया
देख चुके हम भाषा का वैभव सारा
बच्चों जैसा अब तुतलाने की ज़िद है

कौन बहलता है अब परी कथाओं से
सौ विचार आते हैं नई दिशाओं से
खोया रहता एक परिंदा सपनों का
उसको अपने पास बुलाने की ज़िद है

सरोकार क्या उनसे जो खुद से ऊबे
हमको तो अच्छे लगते हैं मंसूबे
लहरें अपना नाम-पता तक सब खो दें
ऐसा इक तूफ़ान उठाने की ज़िद है

- यश मालवीय
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 24 सितंबर 2024

जीत कैसी होगी

वो जिन्होंने चाहा था युद्ध
वो जो नहीं चाहते थे युद्ध
बँट रही थी दुनिया
इन दो के बीच

दृश्य अपनी भयानकता के साथ
किसी चलचित्र की तरह नहीं
पृथ्वी के वक्ष पर चल रहा था

झुलस रही मानवता के बीच
कराहें थी स्त्री, पुरुष और बच्चों की
जिन पर अनचाहे ही थोपा गया था
ये सब।

जिन्हें मारा गया था उत्सव मनाते हुए
और उन्हें भी जो जीना चाहते थे
प्यार करते हुए

दुनिया के बड़े-बड़े नेता
अपने-अपने पक्ष में गढ़ रहे थे तर्क
झुलस गई थीं फसलें
फूलों ने इंकार कर दिया था खिलने से
गिरती मिसाइलों और चीखों के बीच
बच्चा अचंभित था
बड़ों का ये कौन-सा खेल है
और इस में जीत कैसी होगी।

- राजेश अरोड़ा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 23 सितंबर 2024

कहो कैसे हो

लौट रहा हूँ मैं अतीत से
देखूँ प्रथम तुम्हारे तेवर
मेरे समय! कहो कैसे हो?

शोर-शराबा चीख़-पुकारें सड़कें भीड़ दुकानें होटल
सब सामान बहुत है लेकिन गायक दर्द नहीं है केवल
लौट रहा हूँ मैं अगेय से
सोचा तुमसे मिलता जाऊँ
मेरे गीत! कहो कैसे हो?

भवन और भवनों के जंगल चढ़ते और उतरते ज़ीने
यहाँ आदमी कहाँ मिलेगा सिर्फ़ मशीनें और मशीनें
लौट रहा हूँ मैं यथार्थ से
मन हो आया तुम्हें भेंट लूँ
मेरे स्वप्न! कहो कैसे हो?

नस्ल मनुज की चली मिटाती यह लावे की एक नदी है
युद्धों का आतंक न पूछो ख़बरदार बीसवीं सदी है
लौट रहा हूँ मैं विदेश से
सबसे पहले कुशल पूछ लूँ
मेरे देश! कहो कैसे हो?

यह सभ्यता नुमाइश जैसे लोग नहीं हैं सिर्फ़ मुखौटे
ठीक मनुष्य नहीं है कोई कद से ऊँचे मन से छोटे
लौट रहा हुँ मैं जंगल से
सोचा तुम्हें देखता जाऊँ
मेरे मनुज! कहो कैसे हो?

जीवन की इन रफ़्तारों को अब भी बाँधे कच्चा धागा
सुबह गया घर शाम न लौटे उससे बढ़कर कौन अभागा
लौट रहा हूँ मैं बिछोह से
पहले तुम्हें बाँह में भर लूँ
मेरे प्यार! कहो कैसे हो?

- चंद्रसेन विराट
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अनूप भार्गव की पसंद 

रविवार, 22 सितंबर 2024

एक विश्वास

तूलिका से बिखरते हुए
भयावह,
किंतु 
सौंदर्य लिए सत्य का
मानव की
रक्त की
पिपासा के प्रतीक
ये रंग
कितने निरीह,
कितने चुप,
किंतु कितने वाचाल।
कब आएगा 
सपनों का सावन
जो आस्था के रंगों को
धोकर निखार दे।
कदाचित कभी नहीं।

किंतु फिर भी
विश्वास है,
एक दिन
किसी
मानवी की आँखों से
बहेगी
ममता की धारा,
उसमें बह जाऐंगे
गुनाहों के दाग़।

उस दिन
संगीत के स्वरों में,
गीतों के बोलों में,
मुखरित होगा
जीवन का संदेश
और तूलिका से
सृजित होगा
नूतन, नवल, इंद्रधनुष।

- विनोद तिवारी
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 21 सितंबर 2024

काश हम पगडंडियाँ होते

यों न होते
काश!
हम पगडंडियाँ होते

इधर जंगल, उधर जंगल
बीच में हम साँस लेते
नदी जब होती अकेली
उसे भी हम साथ देते

कभी उसकी
देह छूते
कभी अपने पाँव धोते

कोई परबतिया
इधर से जब गुज़रती
घुँघरुओं की झनक
भीतर तक उतरती

हम
उसी झँकार को
आदिम गुफ़ाओं में सँजोते

और भी पगडंडियों से
उमग कर हम गले मिलते
तितलियों के संग उड़ते
कोंपलों के संग खिलते

देखते हम
कहाँ जाती है गिलहरी
कहाँ बसते रात तोते

- कुमार रवीन्द्र
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अनूप भार्गव की पसंद 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

जाने कितनी उड़ान बाक़ी है

जाने कितनी उड़ान बाक़ी है
इस परिंदे में जान बाक़ी है

जितनी बँटनी थी बँट चुकी ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है

अब वो दुनिया अजीब लगती है
जिसमें अम्नो-अमान बाक़ी है

इम्तिहाँ से गुज़र के क्या देखा
इक नया इम्तिहान बाक़ी है

सर क़लम होंगे कल यहाँ उनके
जिनके मुँह में ज़ुबान बाक़ी है

- राजेश रेड्डी 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

गुनाह का गीत

अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
महज़ इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज़ इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

तुम्हारा मन अगर सींचूँ
गुलाबी तन अगर सीचूँ तरल मलयज झकोरों से!
तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से
कली-सा तन, किरन-सा मन, शिथिल सतरंगिया आँचल
उसी में खिल पड़ें यदि भूल से कुछ होंठ के पाटल
किसी के होंठ पर झुक जाएँ कच्चे नैन के बादल
महज़ इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज़ इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

किसी की गोद में सिर धर
घटा घनघोर बिखराकर, अगर विश्वास हो जाए
धड़कते वक्ष पर मेरा अगर अस्तित्व खो जाए?
न हो यह वासना तो ज़िंदगी की माप कैसे हो?
किसी के रूप का सम्मान मुझ पर पाप कैसे हो?
नसों का रेशमी तूफ़ान मुझ पर शाप कैसे हो?

किसी की साँस मैं चुन दूँ
किसी के होंठ पर बुन दूँ अगर अंगूर की पर्तें
प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें
यहाँ तो हर कदम पर स्वर्ग की पगडंडियाँ घूमीं
अगर मैंने किसी की मदभरी अँगड़ाइयाँ चूमीं
अगर मैंने किसी की साँस की पुरवाइयाँ चूमीं
महज़ इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज़ इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

- धर्मवीर भारती
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अनूप भार्गव की पसंद 

बुधवार, 18 सितंबर 2024

एक प्रश्न

कवि!
यदि समूचा विश्व
दो भागों में बँट जाए
एक भाग लुटेरों का
एक भाग भिखारियों का
तो कहाँ रहोगे तुम

- राजेश अरोड़ा 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 17 सितंबर 2024

जड़ें

जड़ें कितनी गहरीं हैं
आँकोगी कैसे?
फूल से?
फल से?
छाया से?
उसका पता तो इसी से चलेगा
आकाश की कितनी
ऊँचाई हमने नापी है,
धरती पर कितनी दूर तक
बाँहें पसारी हैं।

जलहीन, सूखी, पथरीली,
ज़मीन पर खड़ा रहकर भी
जो हरा है
उसी की जड़ें गहरी हैं
वही सर्वाधिक प्यार से भरा है।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 16 सितंबर 2024

आधा चाँद

पूरी रात के लिए मचलता है 
आधा समुद्र 

आधे चाँद को मिलती है पूरी रात 
आधी पृथ्वी की पूरी रात 
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है 
पूरा सूर्य 
आधे से अधिक 
बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ लोग 
आधे वस्त्रों से ढाँकते हुए पूरा तन

आधी चादर में फैलाते हुए पूरे पाँव
आधे भोजन से खींचते पूरी ताकत 
आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन 
आधे इलाज की देते पूरी फीस
पूरी मृत्यु 
पाते आधी उम्र में।

आधी उम्र, बची आधी उम्र नहीं 
बीती आधी उम्र का बचा पूरा भोजन 
पूरा स्वाद
पूरी दवा
पूरी नींद 
पूरा चैन
पूरा जीवन 

पूरे जीवन का पूरा हिसाब हमें चाहिए 

हम नहीं समुद्र, 
नहीं चाँद, 
नहीं सूर्य 
हम मनुष्य, हम - 
आधे चौथाई या एक बटा आठ
पूरे होने की इच्छा से भरे हम मनुष्य।

- नरेश सक्सेना 
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अनूप भार्गव की पसंद 

रविवार, 15 सितंबर 2024

ठोस लिखना या तरल लिखना

ठोस लिखना या तरल लिखना
दोस्त मेरे कुछ सरल लिखना

आस्था के सिंधु मंथन में
नाम पर मेरे गरल लिखना

भोर में भी एक सो रहे हैं जो
नींद में उनकी खलल लिखना

पाँव जब पथ से भटकते हों
गाँव की कोई मसल लिखना

झूठ का चेहरा उतर जाए
बात जब लिखना असल लिखना

पेट की जो आग है उसको
आग में झुलसी फसल लिखना

- यश मालवीय
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कविता कोश से साभार 

शनिवार, 14 सितंबर 2024

मेरे भीतर

अनकहे कोमल शब्दों की एक पूरी दुनिया है 
जिन्हें मैंने सिर्फ़ तुम्हारे लिए बचाए रखा है 

जिसे मैं किसी कविता 
किसी गद्य में 
अभिव्यक्त करना नहीं चाहता 
मुझमें उतरकर तुम 
हर रोज़ इन्हें थोड़ा-थोड़ा पढ़ा करो 
जैसे ख़ूबसूरत-सी कोई पेंटिंग 
दृश्य के बाहर आकर 
मन के भीतर उतर आती है 

जैसे पके हुए आम में 
सूरज चुपचाप उतर आता है 
जैसे एकतारा बजाते बाउल गायक के गीतों में 
उतर आता है पूरी पृथ्वी का दर्द 
जैसे दुख के बाँध टूटते ही 
आँखों में नदी उतर आती है।

- आनंद गुप्ता
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

आँगन-आँगन दीप धरें

आँगन-आँगन दीप धरें
यह अँधकार बुहरें

होता ही आया तम से रण
पर तम से तो हारी न किरण
जय करें वरण ये अथक चरण
भू-नभ को नाप धरें

लोक-हृदय अलोक-लोक हो
शोक-ग्रसित भव गत-शोक हो
तमस-पटल के पार नोक हो
यों शर-संधान करें

डूबे कलरव में नीरवता
भर दे कोमलता लता-लता
पत्ता-पत्ता हर्ष का पता
दे, ज्योतित सुमन झरें

- राजेंद्र गौतम
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कविता कोश से साभार 

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

कविता एक पुल है

कविता एक चिड़िया है 
गाहे-बगाहे 
पंख फड़फड़ा लेती है 
क्षणांश ही सही 
टूटता है भीतर का सन्नाटा 

कविता धूप की एक कतरन है 
कौंध उठती है 
परत-दर-परत जमे बादलों पर 
बूँद भर ही सही 
पिघल जाता है रूखा ठंडापन 

कविता लोहे का एक टुकड़ा है 
पर उसे कड़ा बनाकर 
पहना नहीं जा सकता 
कलाइयों में 
न हथियार गढ़कर 
इस्तेमाल किया जा सकता 
अपने ही विरुद्ध 
उसे सिर्फ़ पुल बनाया जा सकता है 
आदमी और आदमी के बीच। 

कविता वह भाषा है जिसे रचने के लिए 
किसी लिपि की नहीं 
ज़रूरत होती है तोड़ने की 
उस खोल को 
पलता है जिसके अंदर हमारा अहं 
हमारी मनीषी मुद्रा 

कविता धान की एक 
कनी हो सकती है 
धरती की कोख को सार्थक करती 
वह उस व्यक्ति का हाथ हो सकती है 
जो बस के हिचकोलों से बचाने के लिए 
किसी ऊँघते बच्चे के 
सिर के पीछे अनायास आ जाता है 

वह टी०बी० के मरीज़ की 
खाँसने की आवाज़ हो सकती है 
रौशनी और हवा के लिए 
छटपटाते केंचुओं से भरी 
दरार हो सकती है 
पर वह विषदंत नहीं हो सकती 
जो ज़हर सिर्फ़ डसने के लिए उड़ेलता है 
दवा के लिए नहीं। 

- निर्मला गर्ग
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 11 सितंबर 2024

बाँसुरी

बाँसुरी के इतिहास में
उन कीड़ों का कोई ज़िक्र नहीं
जिन्होंने भूख मिटाने के लिए
बाँसों में छेद कर दिए थे

और जब-जब हवा उन छेदों से गुजरती
तो बाँसों का रोना सुनाई देता

कीड़ों को तो पता ही नहीं था
कि वे संगीत के इतिहास में हस्तक्षेप
कर रहे हैं
और एक ऐसे वाद्य का आविष्कार
जिसमें बजाने वाले की साँसें बजती हैं

मैंने कभी लिखा था
कि बाँसुरी में साँस नहीं बजती
बाँस नहीं बजता
बजाने वाला बजता है

अब
जब-जब बजाता हूँ बाँसुरी
तो राग चाहे जो हो
उसमें थोड़ों की भूख
और बाँसों का रोना भी सुनाई देता है

- नरेश सक्सेना
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 10 सितंबर 2024

पेड़ कटे तो छाँव कटी फिर

पेड़ कटे तो छाँव कटी फिर आना छूटा चिड़ियों का
आँगन-आँगन रोज़ फुदकना गाना छूटा चिड़ियों का

आँख जहाँ तक देख रही है चारों ओर बिछी बारूद
कैसे पाँव धरें धरती पर‚ दाना छूटा चिड़ियों का

कोई कब इल्ज़ाम लगा दे उन पर नफ़रत बोने का
इस डर से ही मंदिर-मस्जिद जाना छूटा चिड़ियों का

मिट्टी के घर में इक कोना चिड़ियों का भी होता था
अब पत्थर के घर से आबोदाना छूटा चिड़ियों का

टूट चुकी है इंसानों की हिम्मत कल की आँधी से
लेकिन फिर भी आज न तिनके लाना छूटा चिड़ियों का

कमलेश भट्ट 'कमल'
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 9 सितंबर 2024

अपनी धरती स्वर्ग बना लोगे

जितनी भी जल्दी तुम मिलकर
अपने क़दम बढ़ा लोगे
उतनी ही जल्दी तुम अपनी
धरती स्वर्ग बना लोगे।

शक्ति न हो मेरी जनता में
मैं यह मान नहीं सकता
कितने लाल छिपे गुदड़ी में
मैं अनुमान नहीं सकता,
ढूँढ़ोगे तो अपने घर में
हीरे-मोती पा लोगे,
उतनी ही जल्दी तुम अपनी
धरती स्वर्ग बना लोगे।

वह अतीत मेरे भारत का
गर्व कि जिस पर होता है
उससे भी उज्ज्वल भविष्य
उसकी पलकों में सोता है,
जागेंगे पलकों के सपने
यदि तुम उन्हें जगा लोगे
उतनी ही जल्दी तुम अपनी
धरती स्वर्ग बना लोगे।

एक अकेला थकता राही
दो हों तो मंज़िल कटती
अगर करोड़ों क़दम साथ हों
तो पथ की दूरी घटती,
मंज़िल भी दौड़ी आएगी
यदि तुम उसे बुला लोगे
उतनी ही जल्दी तुम अपनी
धरती स्वर्ग बना लोगे।

- मदनलाल मधु
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कविता कोश से साभार 

रविवार, 8 सितंबर 2024

रिश्तों को घर दिखलाओ

माँ की साँस
पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

संबंधों को
पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली
शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

- कुँअर बेचैन
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 7 सितंबर 2024

आँगन की अल्पना सँभालिए

दरवाज़े तोड़-तोड़कर
घुस न जाएँ आँधियाँ मकान में,
आँगन की अल्पना सँभालिए।

आई कब आँधियाँ यहाँ
बेमौसम शीतकाल में
झागदार मेघ उग रहे
नर्म धूप के उबाल में
छत से फिर कूदे हैं अँधियारे
चँद्रमुखी कल्पना सँभालिए‌।

आँगन से कक्ष में चली
शोरमुखी एक खलबली
उपवन-सी आस्था हुई
पहले से और जंगली
दीवारों पर टँगी हुई
पंखकटी प्रार्थना सँभालिए।

- कुँअर बेचैन
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

रौशनी है, धुंध भी है

रौशनी है, धुंध भी है और थोड़ा जल भी है
ये अजब मौसम है जिसमें धूप भी बादल भी है।

चाहे जितना भी हरा जंगल दिखाई दे हमें
उसमें है लेकिन छुपा चुपचाप दावानल भी है।

हर गली में वारदातें, हर सड़क पर हादसे
ये शहर केवल शहर है या कि ये जंगल भी है।

एक-सा होता नहीं है ज़िंदगी का रास्ता
वो कहीं ऊँचा, कहीं नीचा, कहीं समतल भी है।

खिलखिला लेता है, रो लेता है संग-संग ही शहर
मौत का मातम भी इसमें जश्न की हलचल भी है।

- कमलेश भट्ट 'कमल'
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 5 सितंबर 2024

साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ

साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ
कुछ और पिघलने का हुनर सीख रहा हूँ

गिर-गिरकर सँभलने का हुनर सीख लिया है
रफ़्तार से चलने का हुनर सीख रहा हूँ

मुमकिन है फ़लक छूने की तदबीर अलग हो
फ़िलहाल उछलने का हुनर सीख रहा हूँ

पूरब में उदय होना मुक़द्दर में लिखा था
पश्चिम में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ

कब तक मुझे घेरे में रखेंगी ये चट्टानें
रिस-रिसकर निकलने का हुनर सीख रहा हूँ

- विजय कुमार स्वर्णकार
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कविता कोश से साभार

बुधवार, 4 सितंबर 2024

नमी

छोड़ देगी किनारों को 
नदी बहुत चुपके से 
ख़ुद को समेट लेगा 
भँवर तालों में 

असोज आएगा 
बहुत चुपके से 
सारी नमी सोख जाएगा 
बहुत मोहक ढंग से 

फैलने लगेगा कुहरा 
घाटियों के आर-पार 
धरती चुपचाप रहेगी 
अपने सीने में 
अगली फ़सलों के लिए नमी बचाए 

ज़रूरी नहीं हर बार जीता जाए 
बेढप मौसमों को 
उबलते जज़्बातों से 

कभी-कभी बेढप समयों में 
नमी को बचा ले जाना भी 
गोया अपने भीतर 
धरती बचाने जैसा है

- अनिल कार्की
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 2 सितंबर 2024

अनुवाद

जब वह गुनगुनाए नहीं
तब समझना वह किसी सोच में है
जब वह सोच में है
तब तुम उसकी आँखें पढ़ना

तुम चाहो तो पढ़ सकते हो
उसकी धड़कन
खुश होगी तो ताल में होगी
कोई रंज-ओ-ग़म होगा
तो सूखे पत्तों की तरह काँप रही होगी

तब तुम उसके माथे पर बोसा देना
उसकी आत्मा को नया जीवन देना
नयनों से झर-झर झरेंगे तब आँसू
उन बूँदों का तुम अनुवाद करना

तुम्हारी गिरह में फिर वह स्वतंत्र होगी
हँसेगी, खिलखिलाएगी, उन्मुक्त होगी
रोम-रोम नवगीत कह उठेगा
उस गीत के तुम नायक बनना

देखो! कितना आसान है न 
एक स्त्री को समझना

- विशाखा मुलमुले
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संपादकीय चयन