इस परिंदे में जान बाक़ी है
जितनी बँटनी थी बँट चुकी ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है
अब वो दुनिया अजीब लगती है
जिसमें अम्नो-अमान बाक़ी है
इम्तिहाँ से गुज़र के क्या देखा
इक नया इम्तिहान बाक़ी है
सर क़लम होंगे कल यहाँ उनके
जिनके मुँह में ज़ुबान बाक़ी है
- राजेश रेड्डी
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