सुर्ख सुबह
चंपई दुपहरी
रंग रंग से लिख जाता मन
पत्र तुम्हारे नाम
बाहों के ख़ालीपन पर यह
बढ़ता हुआ दवाब
चहरे पर थकान के जाले
बुनता हुआ तनाव
बढ़ने लगे देह से लिपटी
यादों के आयाम
घबराहट भरती चुप्पी ने
नाप लिया है दिन
पत्थर-पत्थर हुए जा रहे
हाथ कटे पलछिन
मिटते नहीं मिटाए अब तो
होंठो लगे विराम
- सोम ठाकुर
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संपादकीय चयन
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