शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

मैं अब घर जाना चाहता हूँ

मैं अब हो गया हूँ निढाल
अर्थहीन कार्यों में
नष्ट कर दिए
मैंने
साल-पर-साल
न जाने कितने साल!
और अब भी
मैं नहीं जान पाया
है कहाँ मेरा योग?

मैं अब घर जाना चाहता हूँ
मैं जंगलों
पहाड़ों में
खो जाना चाहता हूँ
मैं महुए के
वन में

एक कंडे-सा
सुलगना, गुंगुवाना
धुंधुवाना
चाहता हूँ।

मैं जीना चाहता हूँ
और जीवन को
भासमान
करना चाहता हूँ।

मैं कपास धुनना चाहता हूँ
या
फावड़ा उठाना
चाहता हूँ
या
गारे पर ईंटें
बिठाना
चाहता हूँ
या पत्थरी नदी के एक ढोंके पर
जाकर
बैठ जाना
चाहता हूँ
मैं जंगलों के साथ
सुगबुगाना चाहता हूँ
और शहरों के साथ
चिलचिलाना
चाहता हूँ

मैं अब घर जाना चाहता हूँ
मैं विवाह करना चाहता हूँ
और
उसे प्यार
करना चाहता हूँ
मैं उसका पति
उसका प्रेमी
और
उसका सर्वस्व
उसे देना चाहता हूँ
और
उसकी गोद
भरना चाहता हूँ।

मैं अपने आसपास
अपना एक लोक
रचना चाहता हूँ।
मैं उसका पति, उसका प्रेमी
और
उसका सर्वस्व
उसे देना चाहता हूँ
और
पठार
ओढ़ लेना
चाहता हूँ।

मैं समूचा आकाश
इस भुजा पर
ताबीज़ की तरह
बांध लेना चाहता हूँ।

मैं महुए के बन में
एक कंडे-सा
सुलगना, गुंगुवाना
धुंधुवाना चाहता हूँ।

मैं अब घर
जाना चाहता हूँ।

- श्रीकांत वर्मा
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