रविवार, 9 फ़रवरी 2025

आखर-आखर गान धरा का

साधो! 
तुमने सुना नहीं क्या 
हर पल चलता आखर-आखर गान धरा का 

भोर हुए पंछी 
उजास का गीत सुनाते
जन्म धूप का जब होता 
वे सोहर गाते 
पूरे दिन 
होता रहता है 
धूप-छाँव में भीतर-बाहर गान धरा का 

हवा नाचती 
पत्ते देते ताल साथ में 
दिन-बीते तक 
बच्चे हँसते बात-बात में 
मेघ गरजते 
बरखा होती 
मेंढक गाते रात-रात भर गान धरा का 

रोज़ आरती होती वन में 
साँझ-सकारे 
अनहद नाद सुनाते गुपचुप 
चाँद-सितारे 
दिन बर्फ़ीले भी 
आते हैं 
और तभी होता है पतझर-गान धरा का

- कुमार रवीन्द्र 
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