रविवार, 16 फ़रवरी 2025

जलीय रिश्ता-नाता

धरती में गुँथे अपने रूपों को निहारता
पहचान में लहर-लहर होता
यह जल ही ज़लज़ले उठाता है देह में मन में
भावना के तूफ़ानों 
भवता और भाव के बियाबानों में
ज़रा भटककर देखो
उतरो
अपने ही अचेतन तहख़ानों में
जहाँ तुम क़ैद हो
वहीं मुक्ति है!

धरा में
रेशा-रेशा समाए जल से जुड़कर
तुम्हारा रक्त उछालें खाता है
जितना जल है धरती में
उतना ही क्यों
तुम्हारी देह में समाता है?

इस फैली-खिली दुनिया से
बस
क़तरा भर का तुम्हारा नाता है!

- बलदेव वंशी
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