अभिलाषाओं के दिवास्वप्न
पलकों पर बोझ हुए जाते
फिर भी जीवन के चौसर पर साँसों की बाज़ी जारी है।
हारा जीता
जीता हारा मन सम्मोहन का अनुयायी।
हालाँकि लगा
यह बार-बार सब कुछ पानी में परछाई।
हर व्यक्ति
डूबता जाता है परछाई को छूते-छूते
फिर भी काया नौका हमने भँवरों के बीच उतारी है।
जो कुछ
लिख गया कुंडली में
वह टाले कभी नहीं टलता।
जलता है
अहंकार सबका सोने का नगर नहीं जलता।
हम रोज़
जीतते हैं कलिंग
हम रोज़ बुद्ध हो जाते हैं
फिर भी इच्छाओं की गठरी अंतर्ध्वनियों पर भारी है।
- अंकित काव्यांश
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