शनिवार, 31 मई 2025

नींद उचट जाती है

जब-तब नींद उचट जाती है

पर क्या नींद उचट जाने से

रात किसी की कट जाती है?


देख-देख दु:स्वप्न भयंकर,

चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;

पर भीतर के दु:स्वप्नों से

अधिक भयावह है तम बाहर!

आती नहीं उषा, बस केवल

आने की आहट आती है!


देख अँधेरा नयन दूखते,

दुश्चिंता में प्राण सूखते!

सन्नाटा गहरा हो जाता,

जब-जब श्वान श्रृगाल भूँकते!

भीत भावना,भोर सुनहली

नयनों के न लाती है!


मन होता है फिर सो जाऊँ,

गहरी निद्रा में खो जाऊँ;

जब तक रात रहे धरती पर,

चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ

उस करवट अकुलाहट थी, पर

नींद न इस करवट आती है!


करवट नहीं बदलता है तम,

मन उतावलेपन में अक्षम!

जगते अपलक नयन बावले,

थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!

साँस आस में अटकी, मन को

आस रात भर भटकाती है!


जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,

नहीं गई भव-निशा अँधेरी!

अंधकार केंद्रित धरती पर,

देती रही ज्योति चकफेरी!

अंतर्नयनों के आगे से

शिला न तम की हट पाती है!


 - नरेंद्र शर्मा

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 




शुक्रवार, 30 मई 2025

अभिनय क्या आत्महत्या है



विस्मित देखते हैं लोग

मुझको अन्य होते हुए

और रेशा-रेशा मर रहा हूँ मैं

अनुपल जन्म लेता हुआ :

यही तो होता है हर बार।


अभिनय क्या आत्महत्या है

नए जन्म के लिए

जिसमें अपने को ख़ुद

जनता हूँ मैं

जनकर मार देता हूँ!


 - नंदकिशोर आचार्य

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 



गुरुवार, 29 मई 2025

सफ़र पर


यह वक्त शब्दों के दीये जलाने का है
कहा एक कवि ने
और मैंने सचमुच एक दीया जलाकर
आँगन में रख दिया
वह लड़ता रहा अंधेरे से
लड़ता रहा आँधियों से
लड़ता रहा एक पूरी रुत से
और धीरे-धीरे
मेरे जिस्म में एकाकार हो गया
अब मेरे हर शब्द में है एक मशाल
और शब्द निकले हैं सफ़र पर।

- गुरमीत बेदी

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

बुधवार, 28 मई 2025

आसमान के पार स्वर्ग है

आसमान के पार स्वर्ग है
सोच गया घर से
जाकर देखा 
वहाँ अँधेरा दीपक को तरसे
जीवन का पौधा उगता 
हिमरेखा के नीचे 
धार प्रेम की 
जहाँ नदी बन धरती को सींचे
आसमान से आम आदमी लगता है चींटी
नभ केवल रंगीन भरम है
सच्चाई मिट्टी
गिर जाता जो अंबर से 
वो मरता है
डर से
अंबर तक यदि जाना है तो 
चिड़िया बन जाओ
दिन भर नभ की सैर करो 
पर संध्या घर आओ
आसमान पर कहाँ बसा है
कभी किसी का घर
ज्यादा जोर लगाया जिसने
टूटे उसके पर
फैलो 
काम नहीं चलता ऊँचा उठने भर से

-'सज्जन' धर्मेन्द्र

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से


मंगलवार, 27 मई 2025

नमक में आटा

हमने

कम समय में

बहुत बातें की

बहुत बातों में

कम समय लिया

      

कम समय में

लम्बी यात्राएँ की

लम्बी यात्राओं में

कम समय लिया


कम समय में

बहुत समय लिया

बहुत समय में

कम समय लिया


इस तरह हम

कम में ज़्यादा

ज़्यादा में कम होते गए

हमें होना था

आटे में नमक

मगर हम नमक में आटा होते गए !


- कमल जीत चौधरी

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 26 मई 2025

कवि का संकल्प


                                                                                                                                                                      घात के प्रतिघात के फण पर सदा चलता रहूँगा

किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूँगा


मृत्युंजयी हूँ, है मुझे अमरत्व का वरदान शाश्वत

युग -युगांतर तक बनेंगे अमर मेरे गान शाश्वत

एक अंतर्द्वंद्व शेष है जो कह न पाया

मनुज काया का अभी कर गूढ़ता भेदन न पाया

यह अनिश्चित प्रश्नवाचक चिह्न सी कब से खड़ी है

निःसारता ही सार इसका भेद यह मैं जानता हूँ


किन्तु मैं तो साधना की वह्नि में तपता रहूँगा

किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूँगा


-डा. अरुण प्रकाश अवस्थी

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-हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 25 मई 2025

जब वफ़ा के खेत बंजर हो गये

 
जब वफ़ा के खेत बंजर हो गये
मोम जैसे लोग पत्थर हो गये । 

जब बुझा पाये न मेरी प्यास को
 शर्म से पानी समन्दर हो गये । 

आग जैसी धूप में जो चल पड़े 
वो निखर कर और सुन्दर हो गये । 

कीमती दौलत महक जब खो गई
मोतियों से फूल कंकर हो गये । 

रोज आपस में लड़ायें बिल्लियां 
अब सियाने खूब बन्दर हो गये । 

अब ज़रूरत ही नहीं विषपान की
 नील मलकर लोग शंकर हो गये ।

-अनुपिन्द्र सिंह अनूप

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

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शनिवार, 24 मई 2025

चेतन जड़

प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई--
यहाँ है, यहाँ है ।

-अशोक चक्रधर 

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 23 मई 2025

जीवन का गान

                      

स्त्रियाँ रहेंगी 

मटकौरा होगा 

पितर-न्यौंती गाएँगी

दुलहन सजायी जाएगी

जवान सब सजेंगे

जीवन का गान

बना रहेगा

पेड़ रहेंगे

बेशक पत्ते झरेंगे

जीवन का गान

चलता रहेगा


पक्षी सुबह गायेंगे

भोर खूबसूरत होगी

बूढ़े टहलेंगे

और अधिक जीने की इच्छा रखेंगे 

जीवन का गान 

चलता रहेगा।

युवक-युवतियाँ प्रेम करेंगे

गाना गायेंगे 

आँख मारेंगे

लड़कियाँ मुस्कराएँगी

जीवन का गान 

चलता रहेगा ।


बच्चे सज-बज कर स्कूल जाएँगे

माताएँ पहुँचाने जाएँगी

जीवन का गान

चलता रहेगा।


मौत जिसकी होगी

वह घाट जाएगा

या मिट्टी में मिल जाएगा 

पर बच्चे जन्म लेंगे

बधाइयाँ बजेंगी

जीवन का गान

चलता रहेगा।


जीवन जैसा भी है

है बहुत दिलकश 

चाहे कुत्तों का हो

या आदमी का

जीवन का गान 

चलता रहेगा।


चलना ही चाहिए

जीवन का गान 

रुदन जीवन नहीं

जीवन है मुस्कान

जीवन का गान

चलता रहेगा।


- अनन्त मिश्र

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 22 मई 2025

यात्रा

जब आता है इस धरती पर मनुष्य

वह होता है निडर

नहीं जानता डर नाम की किसी चीज़ को

धीरे-धीरे लगता है डरने

धरती की हर चीज़ से

उसे डराते हैं उसके तमाम विश्वास

उसके सपने, रिश्ते, उसके अपने

टूट जाती है उसकी-

हिम्मत और हौसलों की लाठी

डरने लगता है वह अपनी ही परछाईं से

डरता हुआ मनुष्य

कहीं से भी नहीं लगता मनुष्य ।


- कुमार कृष्ण

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 



बुधवार, 21 मई 2025

तुम्हारे मेरे बीच


तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी

एक वेदना थी

एक टीस


मैंने तुम्हें तीर्थ माना

दूरी

यात्रा बन गई ।


- पूरन मुद्गल

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 20 मई 2025

पीछे

बाहर निकल आई थी वह

अपने से

पीछे छूट गया था

उसके आकार का अँधेरा।


-ज्योत्स्ना मिलन

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 19 मई 2025

सपने

मैंने

सपनों के गुब्बारे

उड़ाए


वे / आकाश में

विलीन हो गए


फिर

इतना संतोष / कि वे कभी

कहीं तो उतरेंगे ।


- पूरन मुद्गल

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 18 मई 2025

स्नेह


स्नेह है 
एक शुद्ध भाव 
एक तरंग पर 
तैरती दो नाव 
कभी अधिकार 
कभी कर्तव्य 
कभी साहचर्य 
कभी अपेक्षा 
पर इन सबसे ऊपर 
एक शुभ इच्छा 
कि तुम जहाँ रहो 
खुश रहो 
दुख तुम्हें छुए भी नहीं 
और कभी तुम्हारे हृदय की 
अनगिनत स्मृतियों में 
एक मेरा भी नाम हो!

-  जया आनंद

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 17 मई 2025

बुनी हुई रस्सी

बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा
तो वह खुल जाती हैं
और अलग अलग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे
मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो हमें
जितने इसके माध्यम से हुए हैं
उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहाँ
कविता को
बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव के रेशे को
समेट कर लिखता है !

- भवानी प्रसाद मिश्र

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शुक्रवार, 16 मई 2025

नदी

बहना अच्छा लगता है
नदी की तरह
पर तट बंधो के साथ,
उफान में
खो जाता है
वह सब भी
मिला था जो
बहने के क्रम में

-  जया आनंद

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 15 मई 2025

धब्बे और तसवीर

                                                                                                                                                        वह चित्र भी झूठा नहीं :
तब प्रेम बचपन ही सही
संसार ही जब खेल था,
तब दर्द था सागर नहीं,
लहरों बसा उद्वेल था;
पर रंग वह छूटा नहीं :
उस प्यार में कुंठा न थी
तुम आग जिसमें भर गए,
तुम वह जहाँ कटुता न थी
उस खेल में छल कर गए;
मैं हँस दिया, रूठा नहीं :
उस चोट के अन्दाज़ में
जो मिल गया, अपवाद था,
उस तिलमिलाती जाग में,
जो मिट गया, उन्माद था,
जो रह गया, टूटा नहीं :
अभाव के प्रतिरूप ही
संसृति नया वैभव बनी,
हर दर्द के अनुरूप ही
सागर बना, गागर बनी,
कच्ची तरह फूटा नहीं :
खोकर हृदय उससेअधिक
कुछ आत्मा ने पा लिया,
विक्षोभ को सौन्दर्य कर
संसार पर बिखरा दिया :
दे ही गया, लूटा नहीं ।

 
-कुँवर नारायण
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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 14 मई 2025

पवित्र, हलाल

उनमें से कुछ लोग

धीरे-धीरे 'जिबह' करने वाली

कुल्हाड़ी ले आए


दूसरे लोग साथ लाए

अत्याधुनिक मशीनें

जो एक तरफ से घुसकर

चीरते हुए पार निकलती थीं

'झटके' में जमींदोज करती हुई


बात भेड़ों की नहीं

पेड़ों की थी

क्या जिबह, झटका क्या

क़त्ल के सभी रास्ते

पवित्र थे, हलाल थे


- देवेश पथ सारिया

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 13 मई 2025

आवागमन

वे गहन वेदना के क्षणों में,
और गूंजते सन्नाटों में ,
अक्सर ढूँढा करती हैं
हमारी खुशियाँ |
जब वे जिया करती हैं
मिलने की तीव्र उत्कंठा लिए.
तब हम होते हैं
जल्दबाजी में ;
बघारते हैं
एक से बढ़कर एक थ्योरी ,
और भर देते हैं कूडेदान
बीमारी लिए अनेकानेक लिफाफों से |
जब वे लुटाना चाहती हैं
बेहिसाब प्यार,
तब हम ढूँढ रहे होते हैं
खुशियाँ ईजाद करने के नए तरीके ;
हमारी आँखों में होती हैं
कैबरे नाचती लड़कियां ,
और होठों पर रहती है
एक झूठी मुस्कान |
हम खा रहे होते हैं
ग्रीन वैली के रेस्तराँ में चिकन-पुलाव,
और रुक-रुक कर लेते हैं
शैम्पेन के घूँट ,
तब घोर अंधकारमय रातों में
वे रोटियाँ बेलते हुए
फूंकती हैं चूल्हे ,
और रोक लिया करती हैं 
अश्रुपूर्ण नयनों को किसी तरह बरसने से |
बचपन की पुचकार,दुलार,चुम्बन
और कंपकंपाती रातों में
छाती से चिपककर गुजारे दिन ;
सब भुला देते हैं हम
महान बनने की प्रक्रिया में |
एक दिन
जागते हैं हम
सदियों की निद्रा से,
और अर्द्ध-रात्रि में
देखे सपने की तरह
जब उतरते हैं चमचमाती कारों से,
तब वे
अपनी पथराई आँखों में समाये सपने साकार करने
और देखने हमें
प्रतिक्षण,प्रतिपल
एक सुदूर जहान को
कर चुकी होती हैं
गमन |

-  धर्मेन्द्र चतुर्वेदी

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 12 मई 2025

विदा

पहचान में नहीं आ रहा था कि

दोनों में से कौन किसकों विदा करने आया है

दोनों अत्यंत आकर्षक थे

अत्यंत आधुनिक

पर एक बात प्राचीन थी

कि दोनों रो रहे थे


-  बद्रीनारायण

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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 11 मई 2025

तुम ज्यों मेरी चाय

सारे दिन की

थकन मिटाते

तुम ज्यों मेरी चाय


बातों में

अक्सर परोसना

मीठा औ’ नमकीन

कितनी खुशियाँ

भर देते हैं

फ्लेश बैक के सीन


मुस्कानों का

तुम बन जाते

हो अक्सर पर्याय


कितना कुछ

हल कर देती है

अदरक जैसी बात

लौंग, इलायची

बन जाते हैं

प्रेम भरे जज्बात


जितनी भी

जो भी शिकायतें

हो तुम सबका न्याय


तुम बिन कहाँ

शाम भर पाती

इस मन में उल्लास

सच पूछो तो

मेरे होने

का तुम हो आभास


पल दो पल

जो साथ मिल रहे

वह ही मेरी आय


-   गरिमा सक्सेना

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 



शनिवार, 10 मई 2025

सभी मनुष्य हैं

सभी मनुष्य हैं
सभी जीत सकते हैं
सभी हार नहीं सकते ।
सभी मनुष्य हैं
सभी सुखी हो सकते हैं
सभी दुखी नहीं हो सकते ।
सभी जानते हैं
दुख से कैसे बचा जा सकता है
कैसे सुख से बचें
सभी नहीं जानते ।
सभी मनुष्य हैं
सभी ज्ञानी हैं
बावरा कोई नहीं है
बावरे के बिना
संसार नहीं चलता ।
सभी मनुष्य हैं
सभी चुप नहीं रह सकते
सभी हाहाकार नहीं कर सकते
सभी मनुष्य हैं ।
सभी मनुष्य हैं
सभी मर सकते हैं
सभी मार नहीं सकते
सभी मनुष्य हैं
सभी अमर हो सकते हैं ।


-   दूधनाथ सिंह

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 9 मई 2025

उठो धरा के अमर सपूतों

उठो धरा के अमर सपूतों 
पुनः नया निर्माण करो। 
जन-जन के जीवन में फिर से 
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो। 
नया प्रात है, नई बात है, 
नई किरण है, ज्योति नई। 
नई उमंगें, नई तरंगे, 
नई आस है, साँस नई। 
युग-युग के मुरझे सुमनों में, 
नई-नई मुसकान भरो। 
डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ 
नए स्वरों में गाते हैं। 
गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे 
मस्त हुए मँडराते हैं। 
नवयुग की नूतन वीणा में 
नया राग, नवगान भरो। 
कली-कली खिल रही इधर 
वह फूल-फूल मुस्काया है। 
धरती माँ की आज हो रही 
नई सुनहरी काया है। 
नूतन मंगलमय ध्वनियों से 
गुंजित जग-उद्यान करो। 
सरस्वती का पावन मंदिर 
यह संपत्ति तुम्हारी है। 
तुम में से हर बालक इसका 
रक्षक और पुजारी है। 
शत-शत दीपक जला ज्ञान के 
नवयुग का आह्वान करो। 
उठो धरा के अमर सपूतों, 
पुनः नया निर्माण करो।

- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 8 मई 2025

चेतन जड़

                                                                                                                                                                           प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई--
यहाँ है, यहाँ है।

- अशोक चक्रधर 

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

 

 

बुधवार, 7 मई 2025

अभिलाषा

वे भुलाती हुई
हमारी सारी वेदनाएँ और सुख
समय और उम्र
जन्म ले लेती हैं
जटिल से जटिल परिस्थितियों में
उनके आश्रय में हम
लहरों की अंगडाई सुला देते हैं
आकाश की ऊँचाई मिटा देते हैं
आँधियों में दीप जलाने लगते हैं
पत्थर की छाती पर नव-अंकुर उगाने लगते हैं
वे उडाकर हमारी नींदें
चाहती हैं नियति का सर कलम करना
ऐसी ही होती हैं अभिलाषाएँ
छोटी,बड़ी,स्वान्तःसुखाय या परिजनहिताय
जैसे मेरी अभिलाषा कहती है कि
जब मैं नव-सृष्टि के सृजन को आगे बढूँ
तो तुम आओ मेरे साथ
और जब शिथिलता मेरे बदन पर आकर बंधक बनाने का करे प्रयास
तो तुम मुझे प्रेरित करती
अपने हाथों से पिलाओ...ओक भर पानी

-  धर्मेन्द्र चतुर्वेदी

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 6 मई 2025

कृपया धीरे चलिए

                                                                                                                                                                                                                                 

मुझे किसी महाकवि ने नहीं लिखा

सड़कों के किनारे

मटमैले बोर्ड पर

लाल-लाल अक्षरों में

बल्कि किसी मामूली

पेंटर कर्मचारी ने

मजदूरी के बदले यहाँ वहाँ

लिख दिया

जहाँ-जहाँ पुल कमजोर थे

जहाँ-जहाँ जिंदगी की

भागती सड़कों पर

अंधा मोड़ था

त्वरित घुमाव था

घनी आबादी को चीर कर

सनसनाती आगे निकल जाने की कोशिश थी

बस्ता लिए छोटे बच्चों का मदरसा था

वहाँ-वहाँ लोकतांत्रिक बैरियर की तरह

मुझे लिखा गया

'कृपया धीरे चलिए'

आप अपनी इंपाला में

रुपहले बालोंवाली

कंचनलता के साथ सैर पर निकले हों

या ट्रक पर तरबूजों की तरह

एक-दुसरे से टकराते बँधुआ मजदूर हों

आसाम, पंजाब, बंगाल

भेजे जा रहे हों

मैं अक्सर दिखना चाहता हूँ आप को

'कृपया धीरे चलिए'

मेरा नाम ही यही है साहब

मैं रोकता नहीं आपको

मैं महज मामूली हस्तक्षेप करता हूँ,

प्रधानमंत्री की कुर्सी पर

अविलंब पहुँचना चाहते हैं तो भी

प्रेमिका आप की प्रतीक्षा कर रही है तो भी

आई.ए.एस. होना चाहते हों तो भी

रुपयों से गोदाम भरना चाहते हों तो भी

अपने नेता को सबसे पहले माला

पहनाना चाहते हों तो भी

जिंदगी में हवा से बातें करना चाहते हों तो भी

आत्महत्या की जल्दी है तो भी

लपककर सबकुछ ले लेना चाहते हों तो भी

हर जगह मैं लिखा रहता हूँ

'कृपया धीरे चलिए'

मैं हूँ तो मामूली इबारत

आम आदमी की तरह पर

मैं तीन शब्दों का महाकाव्य हूँ

मुझे आसानी से पढ़िए

कृपया धीरे चलिए।


-  अनन्त मिश्र

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 5 मई 2025

नदी

 इस तरह देखता रहा

बहती हुई नदी को


जैसे

तुम्हें देखता हूँ


मैं रेगिस्तान का आदमी

और किस तरह देखता


बहती हुई

नदी को!


- कृष्ण कल्पित

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 4 मई 2025

फूल खिलें

 फूल खिलें

आंगन या मन में

बात वही है

फूल खिलें

बाहर या भीतर

अंतर क्या है

सुख देते

आंखों को

मन को

एक गंध

उठती भीतर से

और छलकती है

बाहर को

एक गंध

बाहर से आकर

मन के भीतर

धीरे से

चुपचाप उतरती!


फूल खिलें

आंगन या मन में

हर क्षण

सरल-तरल हो उठता

खिल-खिल जाता

इन बेहद

आत्मीय क्षणों में

रंग

बहुत अपने-से लगते

जैसे हम खुद

रंगों में प्रतिबिम्बित हो कर

चमक उठे हों!


फूल खिलें

आंगन या मन में

दिन प्रसन्न

हो जाता बरबस

ऋतु उदार

हो उठती सहसा

मौसम

अंतरंग हो जाता

और स्वयं हम

सहजानंदी राग

गुनगुनाकर

उसकी अनुगूंजों की उन्मुक्त धार में

मौन डूबते-उतराते हैं!

फूल खिलें

आंगन या मन में

राग-रंग

गंधों-छंदों का उत्सव

हो जाता है हर पल

यह उत्सव

मन का उत्सव है!

पर यह

कभी-कभी होता है

नये वर्ष में

यही कामना है-

यह उत्सव

बार-बार

आये जीवन में!

फूल खिलें

आंगन में

मन में!


- योगेन्द्र दत्त शर्मा

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- हरप्रीत सिह पुरी की पसंद 



शनिवार, 3 मई 2025

कामना

 एक सुई चाहिए

हो सके तो एक दर्जी की उंगलियाँ भी

सौ-सौ चिथड़ों को जोड़कर

एक बड़ी सी कथरी बनाने के लिए


एक साबुन चाहिए

हो सके तो धोबिन की धुलाई का मर्म भी

बीसों घड़ों का पानी उलीचकर

कामनाओं का चीकट धोने-सुखाने के लिए


एक झोला चाहिए

हो सके तो कवियों का सन्ताप भी

अर्थ गँवा चुके ढेरों शब्दों को उठाकर

नयी राह की खोज में जाने के लिए


सुई साबुन पानी और कविता के अलावा

कुछ और भी चाहिए

शायद भाषा का झाग भी

मटमैले हो चुके ढाई अक्षर को चमकाकर

एक नया व्याकरण बनाने के लिए.


- यतीन्द्र मिश्र

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 2 मई 2025

बसंती हवा

 हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!

वही हाँ, वही जो युगों से गगन को


बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ;

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।


वही हाँ, वही जो धरा का बसंती

सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ;


हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।

वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों को


पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूँ,

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।


क़सम रूप की है, क़सम प्रेम की है,

क़सम इस हृदय की, सुनो बात मेरी—


अनोखी हवा हूँ, बड़ी बावली हूँ!

बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फ़िकर है,


बड़ी ही निडर हूँ, जिधर चाहती हूँ

उधर घूमती हूँ, मुसाफ़िर अजब हूँ!


न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,

न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,


न प्रेमी, न दुश्मन,

जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ!


हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।

जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं,


शहर, गाँव, बस्ती,

नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,


झुलाती चली मैं, झुमाती चली मैं,

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।


चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया,

गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर,


उसे भी झकोरा, किया कान में ‘कू’

उतर कर भगी मैं हरे खेत पहुँची—


वहाँ गेहुँओं में लहर ख़ूब मारी,

पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक


इसी में रही मैं।

खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,


मुझे ख़ूब सूझी!

हिलाया-झुलाया, गिरी पर न कलसी!


इसी हार को पा,

हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,


मज़ा आ गया तब,

न सुध-बुध रही कुछ,


बसंती नवेली भरे गात में थी!

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!


मुझे देखते ही अरहरी लजायी,

मनाया-बनाया, न मानी, न मानी,


उसे भी न छोड़ा—

पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला,


लगी जा हृदय से, कमर से चिपक कर,

हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ,


हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,

हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी,


बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!

हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।


- केदारनाथ अग्रवाल 

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 1 मई 2025

जब बड़ा बनूँगा

लार टपकाते हुए खा लिया
बड़ी मछली ने छोटी मछली को
बड़े आदमी ने छोटे आदमी को
बड़ी रेखा ने छोटी रेखा को
बड़े वृत्त ने छोटे वृत्त को
बड़े खेत ने छोटे खेत को
बड़ी हैसियत ने छोटी हैसियत को
और बड़े पेड़ों ने भी अंततः
छोटे पेड़ों को
ऐसे में आसमान ही था
जिसने पनपने दिया अपनी छाँव में हर किसी को
दिया हर किसी को हक-अधिकार पाने का अवसर
दिया जीवन-रस, रंग-ढंग, स्नेह
और भरपूर हरीतिमा
जब बड़ा बनूँगा
आसमान ही बनूँगा।

- खेमकरण ‘सोमन'

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-हरप्रीत  सिंह पुरी  की  पसंद