गुरुवार, 7 सितंबर 2023

कचहरी

मन की परछी में  
अकसर एक कचहरी 
सी लगी रहती है 
क़िस्मत 
तमाशबीन की तरह
दूर खड़ी रहती है
और मैं,
साक्षी भाव से 
सब कुछ देखती हूँ... 
देखती हूँ कि हर बार  
मेरी हसरतों के हाथों में 
हथकड़ियाँ होती हैं 
कटघरे में अपराधियों की तरह 
मासूम ख़ाब खड़े होते हैं
अरमानों की पेशी होती है 
और आरज़ुओं पर   
इल्ज़ाम बड़े होते हैं
सुना है इस बार भी 
हर बार की तरह 
असफलता का डर  
विपक्ष का वकील बनकर
मेरे ख़िलाफ़ मुकदमा लड़ेगा  
और   
मेरी नाकामयाब कोशिशों को  
सुबूत के तौर पे पेश करेगा      
गूंगे लम्हे     
चश्मदीद गवाह बनेंगे
नकारात्मक सोच पर 
सब दोष मढ़ेंगे
विडंबना ये है कि 
मेरे कमज़ोर हौसले 
मेरी पैरवी करेंगे   
मगर आशंकाओं की दलील के
आगे कहाँ टिक सकेंगे 
उम्र की साँझ का दुःसाहस 
मुझे ज़लील करके छोड़ेगा 
यथार्थ का बेरहम सिपाही 
घायल उम्मीद की बाँहें मरोड़ेगा
लगता है आज फिर से 
जज की कुर्सी पर बैठा 
मेरा बैरागी मन 
तयशुदा फ़ैसला सुनाकर   
अपनी कलम तोड़ेगा...

- जया सरकार।
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राजेंद्र गुप्ता के सौजन्य से 

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