लादकर ये आज किसका शव चले?
और इस छतनार बरगद के तले,
किस अभागन का जनाजा है रुका
बैठ इसके पाँयते, गर्दन झुका,
कौन कहता है कि कविता मर गई?
मर गई कविता,
नहीं तुमने सुना?
हाँ, वही कविता
कि जिसकी आग से
सूरज बना
धरती जमी
बरसात लहराई
और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई
पँखुरियों पर थमी?
वही कविता
विष्णुपद से जो निकल
और ब्रह्मा के कमंडल से उबल
बादलों की तहों को झकझोरती
चाँदनी के रजत फूल बटोरती
शंभू के कैलाश पर्वत को हिला
उतर आई आदमी की जमीं पर,
चल पड़ी फिर मुस्कुराती
शस्य-श्यामल फूल, फल, फ़सल खिलाती,
स्वर्ग से पाताल तक
जो एक धारा बन बही
पर न आख़िर एक दिन वह भी रही!
मर गई कविता वही
एक तुलसी-पत्र 'औ'
दो बूंद गंगाजल बिना,
मर गई कविता, नहीं तुमने सुना?
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी,
उस अभागिन की अछूती माँग का सिंदूर
मर गया बनकर तपेदिक का मरीज़
'औ' सितारों से कहीं मासूम संतानें,
माँगने को भीख हैं मजबूर,
या पटरियों के किनारे से उठा
बेचते है,
अधजले
कोयले।
(याद आती है मुझे
भागवत की वह बड़ी मशहूर बात
जबकि ब्रज की एक गोपी
बेचने को दही निकली,
औ' कन्हैया की रसीली याद में
बिसर कर सुध-बुध
बन गई थी ख़ुद दही।
और ये मासूम बच्चे भी,
बेचने जो कोयले निकले
बन गए ख़ुद कोयले
श्याम की माया)
और अब ये कोयले भी हैं अनाथ
क्योंकि उनका भी सहारा चल बसा!
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी!
यूँ बड़ी ही नेक थी कविता
मगर धनहीन थी, कमजोर थी
और बेचारी ग़रीबिन मर गई!
मर गई कविता?
जवानी मर गई?
मर गया सूरज सितारे मर गए,
मर गए, सौंदर्य सारे मर गए?
सृष्टि के प्रारंभ से चलती हुई
प्यार की हर साँस पर पलती हुई
आदमीयत की कहानी मर गई?
झूठ है यह!
आदमी इतना नहीं कमज़ोर है!
पलक के जल और माथे के पसीने से
सींचता आया सदा जो स्वर्ग की भी नींव
ये परिस्थितियाँ बना देंगी उसे निर्जीव!
झूठ है यह!
फिर उठेगा वह
और सूरज की मिलेगी रौशनी
सितारों की जगमगाहट मिलेगी!
कफ़न में लिपटे हुए सौंदर्य को
फिर किरण की नरम आहट मिलेगी!
फिर उठेगा वह,
और बिखरे हुए सारे स्वर समेट
पोंछ उनसे ख़ून,
फिर बुनेगा नई कविता का वितान
नए मनु के नए युग का जगमगाता गान!
भूख, ख़ूँरेज़ी, ग़रीबी हो मगर
आदमी के सृजन की ताक़त
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन की आवाज़ है।
फिर उभरकर कहेगी कविता
"क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
हो चुकी हैवानियत की इंतहा,
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है!
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
नया इतिहास देती हूँ!
कौन कहता है कि कविता मर गई?
(तार सप्तक)
और इस छतनार बरगद के तले,
किस अभागन का जनाजा है रुका
बैठ इसके पाँयते, गर्दन झुका,
कौन कहता है कि कविता मर गई?
मर गई कविता,
नहीं तुमने सुना?
हाँ, वही कविता
कि जिसकी आग से
सूरज बना
धरती जमी
बरसात लहराई
और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई
पँखुरियों पर थमी?
वही कविता
विष्णुपद से जो निकल
और ब्रह्मा के कमंडल से उबल
बादलों की तहों को झकझोरती
चाँदनी के रजत फूल बटोरती
शंभू के कैलाश पर्वत को हिला
उतर आई आदमी की जमीं पर,
चल पड़ी फिर मुस्कुराती
शस्य-श्यामल फूल, फल, फ़सल खिलाती,
स्वर्ग से पाताल तक
जो एक धारा बन बही
पर न आख़िर एक दिन वह भी रही!
मर गई कविता वही
एक तुलसी-पत्र 'औ'
दो बूंद गंगाजल बिना,
मर गई कविता, नहीं तुमने सुना?
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी,
उस अभागिन की अछूती माँग का सिंदूर
मर गया बनकर तपेदिक का मरीज़
'औ' सितारों से कहीं मासूम संतानें,
माँगने को भीख हैं मजबूर,
या पटरियों के किनारे से उठा
बेचते है,
अधजले
कोयले।
(याद आती है मुझे
भागवत की वह बड़ी मशहूर बात
जबकि ब्रज की एक गोपी
बेचने को दही निकली,
औ' कन्हैया की रसीली याद में
बिसर कर सुध-बुध
बन गई थी ख़ुद दही।
और ये मासूम बच्चे भी,
बेचने जो कोयले निकले
बन गए ख़ुद कोयले
श्याम की माया)
और अब ये कोयले भी हैं अनाथ
क्योंकि उनका भी सहारा चल बसा!
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी!
यूँ बड़ी ही नेक थी कविता
मगर धनहीन थी, कमजोर थी
और बेचारी ग़रीबिन मर गई!
मर गई कविता?
जवानी मर गई?
मर गया सूरज सितारे मर गए,
मर गए, सौंदर्य सारे मर गए?
सृष्टि के प्रारंभ से चलती हुई
प्यार की हर साँस पर पलती हुई
आदमीयत की कहानी मर गई?
झूठ है यह!
आदमी इतना नहीं कमज़ोर है!
पलक के जल और माथे के पसीने से
सींचता आया सदा जो स्वर्ग की भी नींव
ये परिस्थितियाँ बना देंगी उसे निर्जीव!
झूठ है यह!
फिर उठेगा वह
और सूरज की मिलेगी रौशनी
सितारों की जगमगाहट मिलेगी!
कफ़न में लिपटे हुए सौंदर्य को
फिर किरण की नरम आहट मिलेगी!
फिर उठेगा वह,
और बिखरे हुए सारे स्वर समेट
पोंछ उनसे ख़ून,
फिर बुनेगा नई कविता का वितान
नए मनु के नए युग का जगमगाता गान!
भूख, ख़ूँरेज़ी, ग़रीबी हो मगर
आदमी के सृजन की ताक़त
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन की आवाज़ है।
फिर उभरकर कहेगी कविता
"क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
हो चुकी हैवानियत की इंतहा,
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है!
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
नया इतिहास देती हूँ!
कौन कहता है कि कविता मर गई?
(तार सप्तक)
- धर्मवीर भारती।
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संपादकीय पसंद
उम्मीद से भरपूर, ढाढ़स बँधाती, हौसला देती बेहतरीन से बेहतर कविता।
जवाब देंहटाएंबेबसी और मर्माहत कठोर सत्यों से भीषण टकराव के बाद हौसले बुलंद करती कविता... क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी
जवाब देंहटाएंकभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाकी है।
यही बची हुई आवाज़ उम्मीद की किरण बन कर दुनिया को बेहतरी के लिए झकझोरे को काफ़ी है।
नव सृजन की उम्मीदें बची हैं तो दुनिया बची है और दुनिया बची है तो आवाज़ बची है। इन्हीं आवाज़ों को कविता में ढलने में तनिक भी समय नहीं लगेगा। हर असम्भावनाओं से परे संभावना जगाती उत्कृष्ट कविता।
जवाब देंहटाएंसकारात्मक सोच, जीवन के प्रति आस्था विश्वास देती सशक्त कविता। भविष्य के प्रति मानव मात्र को हौंसला देती है।
जवाब देंहटाएंमन को झकझोरती कविता 👌👌👌🙏🙏
जवाब देंहटाएं