शनिवार, 31 अगस्त 2024

लोकतंत्र

खरगोश
बाघों को बेचता था,
फिर
अपना पेट भरता था।

बिके बाघ
ख़रीदारों को
खा गए,
फिर बिकने
बाज़ार में
आ गए।

- अनामिका अनु
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

सुंदर दुनिया

पत्थर जोड़कर
बनाई इमारत
इतनी सुंदर
देखो तो लगे
बोलती-सी

इंसानों को जोड़कर
सुंदर दुनिया
क्यों नहीं बनाता कोई।

- पद्मजा शर्मा
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 29 अगस्त 2024

टुकड़ा भर आसमान

मुझे हासिल टुकड़ा भर आसमान में
मैंने देखना चाहा सूर्योदय, सूर्यास्त
देखना चाहा चँद्रोदय
उसकी घटत-बढ़त

चाहत कि,
चँद्र जब सबसे नज़दीक हो धरा के
तब बिन सीढ़ी लगाए छू सकूँ उसे
न हो तो निहार ही लूँ उसे भर आँख

आस रखी उत्तर में दिख जाए ध्रुव तारा
साँझ ढले दिख जाए चमकीला शुक्र तारा
जब कभी बृहस्पति के नज़दीक से गुज़रे शनि
तो देख लूँ उन्हें अपने ही घर की सीध से

कहने को क्षेत्रफल में अलां-फलां स्क्वायर फुट का घर मेरा
तो हिसाब से उतनी ही बड़ी मिलनी चाहिए थी छत मुझे
पर महानगर की गुज़र-बसर में
हासिल मुझे खिड़की से दिखता टुकड़ा भर आसमान

- विशाखा मुलमुले
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 28 अगस्त 2024

कालीन

लेकर बैठी हूँ कैंची
तराश रही हूँ धागे
फूहड़ लगता है जीवन का
बुना हुआ विस्तार
निकले हों अनावश्यक धागे तो

माना बनाया है,
इन्हीं धागों ने
महीन डिज़ाइन मेरे चेतन-अवचेतन का
मगर फिर भी,
आज लेकर बैठी हूँ कैंची

तराश दूँगी गलती से लगी गाँठे
बेजा आ उलझे रिश्ते
बड़ी हो गई हूँ
समझती हूँ
सच्ची-झूठी छवियों का खेल
बामुश्किल सीखा है, खुद को और
औरों को
‘ना’ कहना
इसीलिए आज लेकर बैठी हूँ कैंची

सहलाती हूँ हाथ से देह
और फैलाती हूँ, हाथ से देह
देखती हूँ कहाँ है वह अतिरिक्त
जो बनाता है, मन को गँठीला
तन को खुरदुरा

कुछ गाँठे अब भी बाकी हैं
खटक रही हैं उँगलियों को
मगर, वे हैं इतनी भीतर
तराशा तो,
उधड़ जाएगा पूरा ताना-बाना
जानती हूँ फिर भी
सजग हो लेकर बैठी हूँ कैंची

देखो, अब पारदर्शी है न
मन का विस्तार
तन का शांत एकसार फैलाव
तराश दिया है
कोना-कोना अब नहीं निकालेगा
कोई मीन-मेख
लेकर बैठी हूँ कैंची!

- मनीषा कुलश्रेष्ठ
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 27 अगस्त 2024

थोड़ी दूर साथ चलो

कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो

तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो

नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो

ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो

अभी तो जाग रहे हैं चिराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो

तवाफ़-ए-मंज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है
"फ़राज़" तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो

- अहमद फ़राज़ 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 24 अगस्त 2024

काश मैं जीता कुछ दिन

काश मैं जीता कुछ दिन
कुछ न होने के लिए।
कुछ बनने की शर्त को
प्याज के छिलके के साथ
फेंक आता कूड़ेदान में।
और निश्चिंत होकर
लगाता,
सूरज में रौशनी का अनुमान।

रौशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाईं पर
और देखता उसे
सुनहला होते।
हवा के बीच कहीं ढूँढ़ता-फिरता
बेफ़िक्र अपने गुनगुनाए गीत
और सहेज लेता कुछ चुने हुए शब्द
अपनी कविता के लिए।

मैं आइने में ख़ुद को देखता
कुछ न होते हुए
और बिखर जाता
जैसे हवा बिखर जाती है
मन-माफ़िक।
आइने में सिमट जाता
ओस की बूँदों-सा
और बदल जाता आईना
दूब के खेत में।

मेरी आँख बंद होती
मुट्ठी की तरह
और जब हथेली खुलती
वो समय होती
बिखर जाती खेतों में
इफ़रात से।

- उमेश पंत
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा!

बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना 
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर 
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें 
मत ब्याहना उस देश में 
जहाँ आदमी से ज़्यादा 
ईश्वर बसते हों 
जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ 
वहाँ मत कर आना मेरा लगन 
वहाँ तो क़तई नहीं 
जहाँ की सड़कों पर 
मन से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटरगाड़ियाँ 
ऊँचे-ऊँचे मकान और 
बड़ी-बड़ी दुकानें 
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता 
जिसमें बड़ा-सा खुला आँगन न हो 
मुर्ग़े की बाँग पर होती नहीं हो जहाँ सुबह 
और शाम पिछवाड़े से जहाँ 
पहाड़ी पर डूबता सूरज न दिखे 
मत चुनना ऐसा वर 
जो पोचई और हड़िया में डूबा रहता हो अक्सर 
काहिल-निकम्मा हो 
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में 
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर 
कोई थारी-लोटा तो नहीं 
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी 
अच्छा-ख़राब होने पर 
जो बात-बात में 
बात करे लाठी-डंडा की 
निकाले तीर-धनुष, कुल्हाड़ी 
जब चाहे चला जाए बंगाल, असम या कश्मीर 
ऐसा वर नहीं चाहिए हमें 
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ 
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए 
फ़सलें नहीं उगाईं जिन हाथों ने 
जिन हाथों ने दिया नहीं कभी किसी का साथ 
किसी का बोझ नहीं उठाया 
और तो और! 
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो ‘ह’ से हाथ 
उसके हाथ मत देना कभी मेरा हाथ! 
ब्याहना हो तो वहाँ ब्याहना 
जहाँ सुबह जाकर 
शाम तक लौट सको पैदल 
मैं जो कभी दुख में रोऊँ इस घाट 
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम 
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप 
महुआ की लट और 
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ संदेश तुम्हारी ख़ातिर 
उधर से आते-जाते किसी के हाथ 
भेज सकूँ कद्दू-कोहड़ा, खेखसा, बरबट्टी 
समय-समय पर गोगो के लिए भी 
मेला-हाट-बाज़ार आते-जाते 
मिल सके कोई अपना जो 
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल 
चितकबरी गैया के बियाने की ख़बर 
दे सके जो कोई उधर से गुज़रते 
ऐसी जगह मुझे ब्याहना! 
उस देश में ब्याहना 
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों 
बकरी और शेर 
एक घाट पानी पीते हों जहाँ 
वहीं ब्याहना मुझे! 
उसी के संग ब्याहना जो 
कबूतर के जोड़े और पंडुक पक्षी की तरह 
रहे हरदम हाथ 
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर 
रात सुख-दुख बाँटने तक 
चुनना वर ऐसा 
जो बजाता हो बाँसुरी सुरीली 
और ढोल-माँदल बजाने में हो पारंगत 
वसंत के दिनों में ला सके जो रोज़ 
मेरे जूड़े के ख़ातिर पलाश के फूल 
जिससे खाया नहीं जाए 
मेरे भूखे रहने पर 
उसी से ब्याहना मुझे!

- निर्मला पुतुल
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 22 अगस्त 2024

यक़ीनों की ज़ल्दबाज़ी से

एक बार ख़बर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही 
और यूँ फैली
कि कविता अब नहीं रही!

यक़ीन करने वालों ने यक़ीन कर लिया 
कि कविता मर गई 
लेकिन शक करने वालों ने शक किया 
कि ऐसा हो ही नहीं सकता 
और इस तरह बच गई कविता की जान

ऐसा पहली बार नहीं हुआ 
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से 
महज़ एक शक ने बचा लिया हो 
किसी बेगुनाह को।

- कुँवर नारायण
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 21 अगस्त 2024

शोर

मेरे भीतर इतना शोर है
कि मुझे अपना बाहर बोलना
तक अपराध लगता है
जबकि बाहर ऐसी स्थिति है
कि चुप रहे तो गए।

- विष्णु नागर
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 20 अगस्त 2024

बंद हो गई है वह पत्रिका

यह देखिए इन पन्नों में 
यही वह कविता है जिसने
जगा दी थी बूटों तले रौंद डाले गए ठंडे जिस्मों के भीतर
बेजान पड़ी अंतरात्माएँ।
 
निकल आए थे लोग चौराहों और सड़कों पर -
अपने कटे-फटे कपड़ों और मैले-कुचैले जिस्मों में ही,
अधफटे, बेपैंदा जूतों और
पानी की पिचकी बोतलों को चप्पलों की तरह पहनकर।

आँखों से मछलियों की तरह उछल रही थीं ज्वालाएँ,
मुँहों से ज्वार की तरह फुफकार रहा था आक्रोश,
भले बेजान थे हाथ - मगर तनी हुई थीं मुट्ठियाँ,
भर्राए हुए गलों में से - मगर
एक संकल्प था जो नारों में तब्दील होकर बदल रहा था
गगनभेदी, साझा चिंघाड़ में।

वैसी ही, जैसी किसी बलवान भैंसे को ज़िबह करते समय सुनाई देती है,
मजबूर जानवर के इस चीत्कार में कि मर जाना मंज़ूर है
लेकिन ख़ारिज करता हूँ तुम्हारी नाइंसाफ़ी।

तभी किसी मरजीवड़े ने उठकर
न जाने कहाँ से जुटा लिए गए जोश के साथ सुनाई थी यही कविता,
जिसे पूरा करने से पहले ही फफक-फफककर रो पड़ा था वह।

याद है मुझे-
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" के नारों,
घोड़ों की टापों, धाँय-धाँय की आवाज़ों और
आसपास भरभराकर गिरते लोगों के बीच
पागलों की मानिंद निकल पड़ा था हज़ारों-हज़ार का रेला।
बाद में सुना कि निज़ाम बदल गया है।

अंकलजी- आज भी बैठता हूँ 
फुटपाथ के किनारे अख़बारों का ढेर लगाकर।
आज भी आते हैं इक्का-दुक्का लोग।
लेकिन लगता है- अब नहीं छपेंगी वैसी कविताएँ,
उठ खड़े नहीं होंगे लोग,
नहीं जागने वाले हैं अब ज़मीर 
कहीं नहीं उठेंगी अस्वीकार के चिंघाड़ की आवाज़ें -
क्योंकि बंद हो गई है वह पत्रिका,
जिसमें कभी छपती थीं ऐसी कविताएँ।

- बालेन्दु शर्मा दाधीच
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 19 अगस्त 2024

एक धुन की तलाश

एक धुन की तलाश है मुझे
जो ओठों पर नहीं
शिराओं में मचलती है
पिघलने के लिए।

एक आग की तलाश है मुझे
कि मेरा रोम-रोम सीझ उठे,
और मैं तार-तार हो जाऊँ,

कोई मुझे जाली-जाली बुन दे
कि मैं पारदर्शी हो जाऊँ।

एक खुशबू की तलाश है मुझे
कि भारहीन हो
हवा में तैर सकूँ।

हलकी बारिश की
महीन बौछारों में काँप सकूँ।

गहराती साँझ के सलेटी आसमान पर
चमकना चाहता हूँ कुछ देर
एक शोख चटक रंग की तलाश है मुझे।

- सुरेश ऋतुपर्ण
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संपादकीय चयन 

रविवार, 18 अगस्त 2024

चिकने लंबे केश

चिकने लंबे केश
काली चमकीली आँखें
खिलते हुए फूल के जैसा रंग शरीर का
फूलों ही जैसी सुगंध शरीर की
समयों के अंतराल चीरती हुई
अधीरता इच्छा की
याद आती हैं ये सब बातें
अधैर्य नहीं जागता मगर अब
इन सबके याद आने पर

न जागता है कोई पश्चाताप
जीर्णता के जीतने का
शरीर के इस या उस वसंत के बीतने का

दुख नहीं होता
उलटे एक परिपूर्णता-सी
मन में उतरती है

जैसे मौसम के बीत जाने पर
दुख नहीं होता
उस मौसम के फूलों का!

- भवानीप्रसाद मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 17 अगस्त 2024

एक बौनी बूँद

एक बौनी बूँद ने
मेहराब से लटक
अपना कद
लंबा करना चाहा

बाकी बूँदें भी
देखा-देखी
लंबा होने की
होड़ में
धक्का-मुक्की
लगा लटकीं

क्षण भर के लिए
लंबी हुई
फिर गिरीं
और आ मिलीं
अन्य बूँदों में
पानी पानी होती हुई
नादानी पर अपनी।

- दिव्या माथुर
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

फिर किरण ने द्वार खोले

फिर किरण ने द्वार खोले
रश्मियों ने रंग ढाले
डालियों ने गीत बोले

फिर किरण ने द्वार खोले।

फिर हुए उत्सव, हुए फिर पूर्वजा के हाथ पीले
फिर तिमिर मात खाई, मुस्कराए पुष्प गीले
फिर सिरजने के सपन को
ढूँढ़ लाई दृष्टि श्रम की
पंक ने पंकज खिलाए, फ़सल बनकर बीज डोले।

यह सुबह फिर आ गई, ले, उठ कि तू मस्तक झुका ले
रश्मि के स्नेहिल करों की, स्पर्श ले, चंदन लगा ले
कौन डूबा है अभी तक
विगत की तन्हाइयों में
टेर पूरब की सुने फिर भी रहे अनसुने-अडोले?

रश्मियों ने रंग ढाले, डालियों ने गीत बोले
फिर किरण ने द्वार खोले।

- श्रीकांत जोशी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 15 अगस्त 2024

ऐसा संबंध जिया हमने

ऐसा संबंध जिया हमने
जिसमें कोई अनुबंध नहीं,
नवगीत रचा ऐसा जिसमें,
हो पूर्वनियोजित छंद नहीं।

जब-जब जैसा महसूस किया
स्वीकार किया वैसा-वैसा,
जग की आचार संहिता को
लग जाए भले कैसा-कैसा,
हमने हर वचन निभाया पर,
खाई कोई सौगंध नहीं।

गंगा यमुना के संगम पर
कितने ही मंगल स्नान किए,
शुभ की अभिलाषा में खींचे
रेती पर सँतिए ही सँतिए
प्राणों ने मंत्र पढ़े लेकिन
भाँवर का किया प्रबंध नहीं।

सारा का सारा देकर के
पूरा-पूरा अधिकार मिला,
लोहे के एक-एक कण को
पारस का पावन प्यार मिला,
साँसों की सोनजुही ने फिर
दोहराया वह आनंद नहीं।

ऐसा संबंध जिया हमने
जिसमें कोई अनुबंध नहीं।

- डॉ० कीर्ति काले
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अनूप भार्गव की पसंद 

बुधवार, 14 अगस्त 2024

कुछ कतरे कैद हैं तालाबों में

मेरे कस्बे में समंदर नहीं है,
कुछ कतरे पानियों के कैद हैं,
तालाबों में।
जब भी घर जाता हूँ,
तो एक शाम गुज़ार देता हूँ,
मंदिर वाले तालाब की सीढियों पर।
तालाब का पानी बदलता नहीं कभी।
कैद है, शायद इसीलिए पहचानता है मुझे।
जब भी मिलूँ तो कहता है-
'अच्छा हुआ, तू आ गया।
बहुत सी बातें बतानी है तुझे।'
और फिर शुरू हो जाता है,
वो फलां दादी फौत हो गई,
अलां के घर बेटा हुआ है,
चिलां बाबू की नौकरी छूट गई।
मगरिब की तरफ़ का पीपल काट दिया 
सड़क बनाने वालों ने,
वगैरह वगैरह।
फिर मुझसे मुखातिब होकर,
पूछता है-
'अच्छा ये तो बता, शहर के मिजाज़ कैसे हैं।
कौन बताता है तुझे, ख़बरें शहर की।'
मैं जवाब देता हूँ-
'समंदर है ना, ढेर सारा पानी..'
और इतना कहते ही,
एक बगूला पानी का
गले में अटक जाता है।
खुदाहाफिज़ कह चला आता हूँ,
वापस शहर में,
जहाँ एक बड़ा-सा समंदर है।
रोज़ समंदर के किनारे बैठा,
देखता हूँ,
कैसे सैकड़ों गैलन पानी,
बदल जाते हैं, गुज़र जाते हैं।
एकाध कतरा पानी का,
मेरी तरफ़ भी उछाल देता है समंदर,
बस यूँ ही, बिना किसी जान-पहचान के।
अब रोज़ बदलते पानियों वाला समंदर,
कैसे पहचान पाएगा मुझे।
कैसे उम्मीद करूँ उससे
कि वो कहे-
'अच्छा हुआ तू आ गया,
बहुत सी बातें बतानी हैं तुझे'।

- अरविन्द कुमार
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 13 अगस्त 2024

अपने को मिटाना सीखो

बह जाता है सब पानी की तरह
झर जाता है सब पत्तियों की तरह
उड़ जाता है सब गंध बन
बरस जाता है सब मेघों की तरह

उगता है सूरज
ढलता है सूरज
उमगता है चाँद
टूटते हैं सितारे
खिलते हैं फूल
झरती हैं पत्तियाँ
उड़ते हैं परिंदे
टिमटिमाते हैं जुगनू
काँटों की नौंक पर
ओस झिलमिलाती है
शोख चंचल लहर
आती है जाती है
हवा डोलती है
यहाँ से वहाँ हरदम

बताओ कौन है सृष्टि में
ऐसा निष्क्रिय और चुप
जैसे कि तुम हो
गुमसुम बैठे हो
रखे हाथ पर हाथ
अहंकार में डूबते-उतराते
अपनी क्षुद्रता में लीन
टिकाए हो हथेली पर माथ

उठो और बहना सीखो
खिलो और झरना सीखो
प्रकृति के पास जाओ
उसकी तरह प्रफुल्ल मन
जीना और मरना सीखो

सौंदर्य जीने में नहीं
मरने में है।
अपने को मिटाना सीखो।

- सुरेश ऋतुपर्ण
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 12 अगस्त 2024

चाँद के अश्क मीठे

घास का नर्म गलीचा
घर के पीछे
और मन के पीछे तुम

सितारों की तरह टिमटिम
हरी दूब पर असंख्य मोती
दरअसल अपनी ही लिपि के अक्षर हैं
यहाँ समेटने का मतलब बिखरना होता है

मन की ज़मीन पर
मुलायम दूब उग आए हैं
ख़याल के क़दम लिए
उन दूबों पर चलता हूँ

सोचता हूँ तलवों से चिपकी
बूँदों का अब क्या करूँ?
और फिर घबराकर पाँव झट से
समंदर में भिगो आता हूँ

ख़ुश हो लेता हूँ
कि समंदर को
हल्का मीठा चखा दिया

मन के अंदर भी एक समंदर है
लहरें वहाँ भी उमड़ती है
हिचकोले लेती हैं, दिल पर पड़ती है

और फिर बाँध पसीजता है आँखों में
अब यही सोचता हूँ
चाँद के अश्क़ मीठे
और मेरे नमकीन क्यों?

- यतीश कुमार
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 11 अगस्त 2024

वो हवा वहीं ठहरी है

वो हवा वहीं ठहरी है अभी तक
और छूती है रोज़
लगभग रोक लेती हुई-सी
जब गुज़रने लगता हूँ वहाँ से
जहाँ उस दिन गुज़रते फोन आ गया था तुम्हारा
और थोड़ी देर के लिए आस-पास
चंपा के फूल खिल आए थे
अपनी साँसों में समेटते हुए
कई सा हरा रंग ओढ़ लिया था धरती ने
और कोंपलें निकल आई थीं डालियों में

जो प्राण को सुहाना कर देता है
लिपे हुए आँगन-सा
और नए पुआल से सजे घर-सा
जो जुगनुओं से पाट देता है आकाश को
और दूबों से भोर
बौना करके कलह सारा
खुशबू के इस ठहराव और
रंगों के ऐसे रुक जाने के लिए
हवा के ऐसे ठिठक जाने और
रचना की खिलखिलाहट के लिए
तुम्हें, मुझे
और दुनिया के तमाम लोगों को
प्यार करते रहना चाहिए 

- प्रकाश देवकुलिश
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 10 अगस्त 2024

जुगलबंदी

जब तंत्रियों पर फिसलती छुअन
नाभि पर नाचती मिज़राब से
अभिमंत्रित कर देती सितार को
भीतर का समूचा रीतापन
भर उठता है।

रेगिस्तानी सांपों की सरसराहटों
जंगली बासों की सीटियों
बिजली की चीत्कारों
सियारों की हुआ हुआ
तने रगड़ते हाथियों के गरजने
भैंसों के सींग भिड़ने से
फूट पड़ता है सुरों का जंगली झरना

झरने का वेग
चेहरे पर सहेजते
बाँध लेते हैं तबले
समूचे जंगल को
अपनी बाँहों में
सुर पार करने लगती हैं पगडंडियाँ
विलंबित पर चलती
द्रुत पर दौड़ती
तोड़े की टापों टटकारती
झाले में झनकने लगती हैं
हवा कुछ नीचे आ ठहर जाती है
आकाश भी झाँकने लगता है

किसे नहीं चाहिए खुशी
अनख रीतेपन के भराव के लिए।

- रति सक्सेना
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

छापे माँ तेरे हाथों के

कोहबर की दीवारों जैसे
मेरे अंतर के आँगन में,
धुँधले से, पर अभी तलक हैं,
छापे माँ तेरे हाथों के।

कच्चे रंग की पक्की स्मृतियाँ
सब कुछ याद कहाँ रह पाता
स्वाद, खुशबुएँ, गीतों के स्वर
कतरे कुछ प्यारी बातों के।

हरदम एक मत कहाँ हुए हम
बहसों की सिगड़ी में तापी
दोपहरों के ऋण उतने ही
जितने स्नेहमयी रातों के!
छापे माँ तेरे हाथों के
कतरे कुछ प्यारी बातों के!

- शार्दुला झा नोगजा 
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

गुरुवार, 8 अगस्त 2024

सत्यं शिवं सुंदरम्

सच का दर्पण ही शिव-दर्शन
शिव से ही कुछ सुंदर उपजाओ
विष से अमृत बना
शूल से फूल खिला
जीवन के हर पतझड़ को
नव-वसंत सा महकाओ

वसुधा के कण-कण तृण-तृण में
सूरज चंदा नील गगन में
नदिया पर्वत और पवन में
कोटि-कोटि जन के तन-मन में
सिमटी उस विराट शक्ति को
मन-मंदिर में सदा बसाओ
शिव से ही कुछ सुंदर उपजाओ

कुंठाओं में मुस्कान भरो
टूटी वीणा में तान भरो
बन मलय पवन का झोंका
टूटी साँसों में नवप्राण भरो
कुछ पलकों पर बिखरे मोती चुन
घावों का मरहम बन जाओ
शिव से ही कुछ सुंदर उपजाओ

पल-पल बहती जीवन-धारा
देती बूँद-बूँद अहसास
रुकना मत गति ही जीवन
सिमटी है साँस-साँस में आस
मत डूब निराशा-तम में
आशाओं को जीवन-दीप बनाओ
शिव से ही कुछ सुंदर उपजाओ

कहता तेरा लक्ष्य निरंतर 
बढ़ता जा तू अपने पथ पर
चिंतन में चैतन्य जगाकर
जीवन में कुछ तो अद्भुत कर
पथ पर कुछ पद-चिह्न बनाकर
काल-शिला पर कुछ लिख जाओ
शिव से ही कुछ सुंदर उपजाओ

- सुधीर कुमार शर्मा
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 7 अगस्त 2024

देह का रास्ता

तुम आते रहे हमेशा मेरे द्वार
अलग-अलग स्वांग रचाकर
कभी सूरज, कभी चंदा,
कभी विष्णु, कभी शिव
कभी राम, कभी कृष्ण
कभी याज्ञवल्क्य, तो कभी गौतम
तुम्हारे लिए मैं कभी अदिति बनी, कभी रोहिणी
कभी लक्ष्मी बनी, कभी पार्वती
कभी सीता बनी तो कभी राधा
कभी गार्गी, कभी अहिल्या 
और मुझे जबाला बनाना तो सबसे आसान रहा तुम्हारे लिए
हर युग में तुमने मुझे तदर्थ ही लिया
और मैं निभाती रही संविदा कि तरह
तुम्हारे नियमों को
आदि पुरूष ने देह का रास्ता दिखाया था
और तुम अटके हुए हो अभी भी वहीं पर
लेकिन मुझे किसी भी शब्दकोश में
पुरूष या स्त्री का अर्थ
देह नहीं मिला
मैं भरोसा करती हूँ
शब्दकोशों पर!

- अलकनंदा साने
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 6 अगस्त 2024

सोच में सीलन बहुत है

सोच में सीलन बहुत है
सड़ रही है,
धूप तो दिखलाइए 
है फ़क़त उनको ही डर
बीमारियों का
जिन्हें माफ़िक हैं नहीं
बदली हवाएँ
बंद हैं सब खिड़कियाँ
जिनके घरों की
जो नहीं सुन सके मौसम
की सदाएँ
लाज़मी ही था बदलना
जीर्ण गत का
लाख अब झुंझलाइए
जड़ अगर आहत हुआ है
चेतना से,
ग़ैरमुमकिन, चेतना भी
जड़ बनेगी
है बहुत अँधियार को डर
रौशनी से,
किंतु तय है रौशनी
यूँ ही रहेगी
क्यों भला भयभीत है पिंजरा
परों से
साफ़ तो बतलाइए
कीच से लिपटे हुए है
तर्क सारे
आप पर, माला बनाकर
जापते हैं
और ज्यादा नग्न
होते है इरादे
जब अनर्गल शब्द उन पर
ढाँकते हैं
हैं स्वयं दलदल कि दलदल
में धंसे हैं
गौर तो फरमाइए

- सीमा अग्रवाल
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 5 अगस्त 2024

दो भीगे शब्द

तुम क्या
दे देते हो
जो कोई नहीं दे पाता
दो भीगे शब्द
जो मेरे सबसे शुष्क प्रश्नों का
उत्तर होते हैं।

तुम मुझसे ले लेते हो
तन्हा लम्हें
और मैं महसूस करती हूँ
एक गुनगुनाती भीड़
खुद के ख़ूब भीतर।

मेरी पीड़ाओं पर
तुम्हारा स्पर्श
एक नई रासायनिक प्रतिक्रिया का
हेतु बनता है,
मेरी पीड़ाएँ
तुम्हारे स्पर्श में घुलकर
शहद हो जाती हैं,
मैं मीठा महसूस करती हूँ।

- अनामिका अनु
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 4 अगस्त 2024

नृत्य

धूसर रेत के
टीले पर
चाँदनी
आई उतर
साठ कली का
घाघरा
अँगिया
एक कली भर
पीले, लाल
सुर्ख रंगों से
रंगी थी
उसकी चूनर
वाणी सुरीली
कमर लचीली
पाँव उठे जो इस गोरी के
कैसे झूमी रेत नचीली।

- दिव्या माथुर
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 3 अगस्त 2024

आदमी

मैं चींटी से डरती हूँ, कहीं काट न ले
मैं तिलचट्टे से डरती हूँ, कहीं घर पर कब्ज़ा न कर ले
मैं छिपकली से डरती हूँ कहीं ...
मैं चूहे से डरती हूँ ...
मैं बिल्ली से डरती हूँ ...
मैं कुत्ते से, सूअर से
केंचुए से, साँप से
सबसे डरती हूँ
मैं सबसे ज़्यादा तुमसे डरती हूँ
पता चला है कि तुम आदमी हो
और भी बहुत कुछ सुना है तुम्हारे बारे में!

- अलकनंदा साने
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

सिर्फ़

पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी।
अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की उँगली नम है।

हर बहार को
खींच-खींचकर
लाने का दम है।
रंग मरे है सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी।

अभी लचीली डाल
डालियों में अँखुए उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल की गंधिल गोंद ढुरे।

अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी।

ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है
फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
इत्र लगाना है।
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।

- अनिरुद्ध नीरव
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 1 अगस्त 2024

गेंद और सूरज

बच्चों की एक दुनिया है,
जिसमें एक गेंद है
और एक सूरज भी है।
सूरज के ढलते ही
रुक जाता है उनका खेल
और तब भी
जब गेंद चली जाती है
अंकल की छत पर।
अंकल की दुनिया में है
टीवी और अख़बार,
भय और शक का संसार।
इन सबसे बेखबर
बच्चे लगे रहते हैं लगातार
देते हैं उन्हें आवाज़ें बार-बार।
आखिरकार,
जाते हैं वे रिमोट छोड़, ऊपर,
छत का दरवाजा खोल
देते हैं गेंद छत से फेंककर।
सोचती हूँ रोज़ यह नज़ारा देख -
आती रहे यह गेंद
इसी तरह, हर दिन छत पर।
कभी तो किसी दिन
वे खुद चले आएँगे उतरकर
गेंद के साथ ज़मीन पर
बच्चों वाली दुनिया में,
जहाँ एक गेंद है
और एक सूरज भी है।

- नूपुर अशोक
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से