जन्मों से उठाए फिरती हूँ
सौम्यता
का बोझ
तभी
तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़
और
कमाल है जज़्ब की शक्ति
समंदर
है मेरे भीतर
जिसके
तल पर जमा है
संपदा
दुख-सुख की
पूछते
हो कैसे समा लेती हूँ सब
जी
जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ
और
आज भी जारी है
पर
यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से
मुझमें
भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि
दबा
के रखे हैं मुठ्ठियों में
धुआँ
उठता है उनमें भी
पर
रोक लेती हूँ भड़कने से
मुझमें
भी निहित है पशु
जो
निरंतर रहता है चैतन्य
इसीलिए
तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर
चाहती
हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच
जानती
हूँ हवा दी शोलों को तो
शून्य
हो जाओगे तुम
तभी
तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान
नहीं
चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास
लिखे
जाएँ सफ़े तुम्हारी तबाही के
मेरी
सोच की शुचिता ही तो
बनाए
हुए है तुम्हारा पौरुष
वरना
कब का पराजित हो चुका होता
तुम्हारा
अहं मेरे अहं से।
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