मौन है बाहर
मगर ज्वालामुखी का
शोर भीतर।
आहटें आक्रोश की हैं
हरकतें आवेग की।
भृकुटियाँ उद्वेग मन की
धार बनतीं तेग की।
देह है ठहरी
चलित करवाल की है
कोर भीतर।।
भंगिमा सद्भाव की अब
तीर बनती जा रही।
पीर की प्रस्तर शिला बन
अश्रु गलती जा रही।
आँख है निश्चल मगर
बरसात है
घनघोर भीतर।।
पैर आगे बढ़ रहे हैं
मुट्ठियाँ भींचे हुए।
सामने पर्वत अड़े हैं
लाठियाँ खींचे हुए।
चीख घुटती है मगर
संचेतना
पुरजोर भीतर।।
भूख बेकारी निराश्रित
छटपटाती रात-दिन।
आग पर चलती सिसकती
जी रही है साँस गिन।
सामने है तम मगर
विश्वास का है
भोर भीतर।।
-श्याम सनेही शर्मा
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शिवानंद सिंह सहयोगी के सौजन्य से
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