दादू
मेरी उँगली पकड़ो
तुम
को चलना सिखलाऊँगा ।
ले
कर छड़ी निकलने पर भी
ठोकर
खा, यदि गिर जाओगे
कौन
सँभालेगा तब तुम को
फिर
घर तक कैसे आओगे?
रुको!, अभी मैँ सँग-सँग चल कर
तुम
को घर तक ले आऊँगा।
हाथ
तुम्हारे काँप रहे हैं
टोस्ट
छिटक कर गिर जाता है
फिर
धरती पर पड़े हुए को
टॉमी, झट-पट आ खाता है
रुको! अभी
तुम कुल्ला कर लो
गरम
चाय मैं पिलवाउँगा ।
ठंड
बहुत है इसीलिए तुम
नहाने में आलस करते हो
सुबह
सैर को जाने में भी
जाने
क्यों बेहद डरते हो?
रुको! अभी मैं साथ तुम्हारे
चल
कर सैर करा लाऊँगा ।
मैँ
ने देखा सारे दिन तुम
बच्चों
जैसी बातें करते
दोपहरी
में सो जाते पर
हुए
अकेले आँसू झरते
रुको!, अभी तुम आँसू पोंछो
फिर
गीता मैं पढ़वाऊँगा ।।
- मुकुट
सक्सेना
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शिवानंद
सिंह सहयोगी की पसंद
आदरणीय मुकुट दादा की कविता पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई। उनसे मिलने और सुनने का कई बार अवसर मिला है । वे हम जैसे बच्चों के लिए हिंदी का समूचा विश्वविद्यालय ही हैं । जय हो
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