कभी ऐसा लगता है
सुदूर
उत्तर में
एक
पेड़ के नीचे मेरी मृत्यु मुझे पुकार रही है
ओ
मेरी मृत्यु तुम शांत क़दमों से
धीमी
रोशनी की तरह मेरे मस्तक का स्पर्श करती आना
तेरे
मौन से मुझे मौन
करती
आना
मुझे
भय से मुक्त करती आना
आना
कि मैं
हर्ष
पूर्वक तेरा
आलिंगन
करूँ
ओ
मेरी मृत्यु! विषाद मिटाती आना
जीवन
का लोभ लेती जाना
अंत
समय मुझे मुझसे ही विदा लेने का साहस देती आना
ओ
मेरी मृत्यु!
मुझे
मृत्यु देती आना
कि
मेरे कान में गूँजता रहे दम मस्त क़लंदर मस्त -मस्त
कुमार
गंधर्व के स्वर में
हिरना
संभल -संभल पग धरना
की
रागिनी मन में छाई रहे
और
ख़ुसरो के बोलों
का
अनहद नाद
मेरे
प्राणों के साथ-साथ जाए
छाप
तिलक सब छीनी रे तोसे नैना मिलाइके
ओ
मेरी मृत्यु! सदेह आना
मुझे
मुझी से मुक्त करती जाना
तुम
जब भी आना।
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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