सोमवार, 11 नवंबर 2024

आहट


आओ मन की आहट-आहट तक पढ़ डालें
फिर कहें यहीं
अपना उजड़ा-सा घर भी था
 
यूँ लाल-हरी-नीली-पीली-उजली आँखें
फिर नदी-नाव, मछली-मछुवारे-सी बातें
कंधों तक चढ़ आयी लहरों की चालों में
कल-परसों वाली भूल-भुलैया की रातें
 
आओ तन-मन को नया-नया कुछ कर डालें
फिर कहें कभी
मौसम को हल्का ज्वर भी था
 
दिन चोंच दबाई धूप उड़ी गौरैया के
सूरज की दबी हँसी-सी सोन चिरैया के
चेहरे पर मली-खिली-फूली पुचकारों में
दियना झाँका हो जैसे ताल-तलैया से
 
आओ चीड़ों पर थकी चाँदनी बन सोएँ 
फिर कहें यहीं
अपना टूटा-सा पर भी था
 
वो कई-कई कोणों में कटकर मुड़ जाना
फिर गुणा-भाग वाले रिश्तों से जुड़ जाना
निरजला,उपासे फीकी-सी उजलाहट में
चालों में लुकी-छिपी बतियाहट पढ़ जाना
 
आओ हर पल में मन्त्र सार्थक रच डालें
फिर कहें कभी
दिन घूमा इधर-उधर भी था

- डॉ. महेश आलोक

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शिवानंद सिंह सहयोगी जी के सौजन्य से 

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