जले
हुए जज़्बात मातमी
शिकवे
और गिले,
रोती
आँखें मिलीं विदा में
हिलते
हाथ मिले।
दिल
पर है सौ बोझ दुखों का
कितना
और झुकें,
देश
छोड़ते पाँव कहाँ जायें
किस
ठाँव रुकें,
फटा
चीर दर्ज़ी सिलता है
मन
को कौन सिले।
रक्त-नहायी
तलवारें
लड़ते
अश्वारोही,
बंदी
बनते नृपति और
कुछ
मुदित राजद्रोही,
सपनों
में दिख रहे आजकल
ढहते
हुए किले।
घुली
हुई है गंध युद्ध की
आज
फ़िज़ाओं में,
रोते
बुद्ध उतरते हैं हर रोज़
दुआओं
में,
मरी
हुई मिट्टी में कैसे
सुरभित
फूल खिले।
- अक्षय पाण्डेय
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शिवानंद
सिंह सहयोगी के
सौजन्य
से
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