बुधवार, 13 नवंबर 2024

साइकिल का रास्ता

साइकिल चलाते हुए 
ज़मीन पर रहते हुए भी 
ज़मीन से ऊपर उठी मैं। 
अंधे मोड़ को काटा ऐसे कि 
रास्ता काटती बिल्ली भी रुक गई दम साध कर 
ढलान से ऐसे उतरी 
समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे 
चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि 
पहाड़ों को पार कर पहुँचना है सपनों के टीलों तक।
 
साइकिल चलाते ही जाना 
कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर 
शहर को पार करते हुए जाना 
नदी न होती तो 
शहर की साँसें जाने कब की उखड़ गई होतीं 
पहला पहिया न होता तो 
कुछ करने की, जीतने की ज़िद न होती। 
खड़ी हूँ आज 
उसी सड़क पर बगल में साइकिल दबाए 
पैदल चलते लोगों को देख 
घबरा जाती हैं अब सड़कें 
रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ 
गाय और कुत्ते भी पहले की तरह 
नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच 
देखा नहीं आज तक 
सड़क पर किसी बंदर को घायल अवस्था में 
मृत्यु का आभास होते ही 
पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे 
क्या साइकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी 
चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में 
रोंप दी जाएगी क्या 
साइकिल भी किसी स्मृति वन में। 
साइकिल में ज़ंग भी नहीं लगी और 
रास्ते पथरीले हुए बिना ख़त्म हो गए 
फिर भी भोर के सपने की तरह 
दिख ही जाती है सड़क पर साइकिल। 

 - नीलेश रघुवंशी

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संपादकीय चयन 

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