दूसरे ही दिन
आँगन के आर-पार
परस दी
किलटे-किलटे धूप
तुलसी के दाहिने
बिछाया वही पीढ़ा वही तकिया
तुम्हारी अम्मा के काढ़े हुए फूल
सुबह से दोपहर गए
चूल्हे पर पकती रही
मास की दाल
कुंडी में घिसती रही
पुदीने की चटनी
शाम चाय के साथ
आज भी तले
कचनार के कुरकुरे फूल
रात खाने से पहले
मेज़ पर आमने-सामने
घूरती रही दो थालियाँ
एक-दूसरे का बंद चेहरा
फिर आधी रात
देखी मैंने
तुम्हारे हिस्से की चादर
उघड़ी हुई-बेझिझक
तकिये पर से ग़ायब था
तुम्हारे सिर का निशान
अलमारी में एक के बाद एक
बाँह लटकाए कोट
बाथरूम में ब्रश
मेज़ पर खुली किताब
बिटिया के नाम लिखा पत्र
हर कहीं हर चीज़ पर
छपे थे तुम्हारे हाथों के निशान
एक चीख़
छत चढ़ गई
सीढ़ियाँ उतर गईं
मेरी छाती में से
पँख छुड़ा
फड़फड़ा कर उड़ा
तुम्हारा नाम
सब दीवारों से टकराकर
बिछ गया फर्श पर
नीला पथराया
मौत सूँघा कबूतर।
- रेखा
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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