शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

कुछ अचंभे कुछ अजूबे

कुछ अचंभे कुछ अजूबे घर हमारे देखिए
सब के ऊपर हो गए नौकर हमारे देखिए

देखकर अपनी ही परछाईं को यारों चौकना
किस तरह घर कर गया है डर हमारे देखिए

उड़ के दिखलाऊँगा मैं भी सिर्फ़ इतना ही कहा
जड़ से ही कतरे गए हैं पर हमारे देखिए

खोलकर नन्हीं-सी मुठ्ठी एक बच्चे ने कहा
किसने रखे हाथ पर पत्थर हमारे देखिए

अपनी ही चीखें नहीं पड़ती सुनाई अब यहाँ
अब यहाँ तक दब गए हैं स्वर हमारे देखिए

- प्रताप सोमवंशी
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

बहनें

आँगन में बंधे खंभे से
लट-सी उलझ जाती हैं बहनें
और दर्द की एक सदी
खुली छत की गर्म हवा में
कबूतर बन उड़ जाती है।

वे बाप की छप्पन साल पुरानी कमीज़ हैं
वे माँ के बचपन की यादें हैं
जो
उठती हैं हर शाम
चूल्हे के धूएँ संग
और
उड़तीं हैं पतंग बन।

वे चुनती हैं
प्याली भर चावल
कि
ज़िंदगी को बनाया जा सके
अधिक से अधिक
साफ़ और सफ़ेद।

वे बनती हैं
आँगन से गली
और
गली से मैदान
जहाँ
रात की चादर में
बुलबुले सी फूटती है भोर
और
देखते ही देखते
धरती की माँ बन जाती हैं
बहनें।

- तुषार धवल
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

दूर्वा

ओ दूर्वा
तुम जो अपनी लचीली देह लिए खड़ी रहती हो
हर सुनी-अनसुनी आहट पर झुक जाती हो
धूल के कण अलक से लगाती हो

हर पग सहलाती हो
सहमी काँपती दरकती
भीतर-भीतर रोती

हर क्षण समर्पित
निमिष निमिष पराजित
आकुल उपेक्षित

क्या कभी प्रयास किया तुमने
क्या कभी सोचा भी ये
कि तनिक कठोर हो जाऊँ
कभी तो चुभूँ
अपनी व्यथा कहूँ
अपनी उपस्थिति दर्ज कराऊँ

- निधि सक्सेना
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

सुना है

 सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है 
सुना है शेर का जब पेट भर जाए तो वो हमला नहीं करता 
दरख़्तों की घनी छाँव में जा कर लेट जाता है 
हवा के तेज़ झोंके जब दरख़्तों को हिलाते हैं 
तो मैना अपने बच्चे छोड़ कर 
कव्वे के अंडों को परों से थाम लेती है 
सुना है घोंसले से कोई बच्चा गिर पड़े तो सारा जंगल जाग जाता है 
सुना है जब किसी नद्दी के पानी में 
बए के घोंसले का गंदुमी रंग लरज़ता है 
तो नद्दी की रुपहली मछलियाँ उस को पड़ोसन मान लेती हैं 

कभी तूफ़ान आ जाए, कोई पुल टूट जाए तो 
किसी लकड़ी के तख़्ते पर 
गिलहरी, साँप, बकरी और चीता साथ होते हैं 
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है

- ज़ेहरा निगाह 

- अनूप भार्गव के सौजन्य से 

सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

उसने मिट्टी को छुआ भर था

उसने मिट्टी को छुआ भर था
धरती ने उसे सीने से लगा लिया
उसने पौधे लगाए
ख़ुश्बू उसकी बातों से आने लगी
पेड़ समझने लगे उसकी भाषा
फल ख़ुद-ब-ख़ुद
उसके पास आने लगे
पक्षी और पशु तो
सगे-सहोदर से बढ़कर हो गए
जो मुश्किल भाँपते ही नहीं
उन्हें दूर करने की राह भी सुझाते हैं

मैने पूछा भाई प्रेम सिंह!
क्या कुछ खास हो रहा है इन दिनों
खिलखिला पड़े वो

कहने लगे,

लोग जिस स्वर्ग की तलाश में हैं
मैं वही बनाने में जुटा हूँ

- प्रताप सोमवंशी
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संपादकीय चयन 

रविवार, 23 फ़रवरी 2025

गजरा बेचने वाली स्त्री

गजरा बेचने वाली स्त्री
गजरा बेच रही है
वह खुद बदसूरत है
लेकिन दूसरे को सुंदर बनाने के लिए
सुंदरता बेच रही है।

गजरा बेचने वाली स्त्री का दिल कोमल है
लेकिन पैर में बिवाइयाँ फटी हैं
उसने गजरे में पिरो रखे हैं अरमान

उसके अरमान
जो फूलों में गजरे की तरह पिरोए हैं
वह खुद गजरा नहीं लगाती
लेकिन दूसरे को गजरा लगाने की
विशेषताएँ बताती हैं

अजीब विडंबना है कि
सुंदरता बेचने वाली इस असुंदर स्त्री के
सपनों में आती हैं
कई-कई गजरे वाली स्त्रियाँ
और इसका उपहास करती हुईं
गुम हो जाती हैं आकाश में
तब गजरों में पिरोए फूल कांटे की तरह
चुभते हैं उसके सीने में!

- निर्मला पुतुल
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

अथक बटोही

उषाकाल में अथक बटोही,
कहाँ आज है दाना चुगना,
उत्तिष्ठ पसारे पंख गगन में,
किस पड़ाव है तुमको मुड़ना।

एक डाल विश्राम करें तो,
जैसे मुक्ता जड़े हार में,
एक धरा पर चुगते चलते,
जैसे कड़ी जुड़े तार में।

सूझ-बूझ से मार्ग सुझाते,
कभी दूजे की राह न आते,
निरंतर अंतर पर अंबर में,
स्वपरिधि सब उड़ते जाते।

गलबैंया डाल, मिलें, उड़ें जब,
प्रस्फुट नेतृत्व आदर्श वहीं,
सात समुंदर पार चले तो,
लक्षित अनुशासन न और कहीं।

- आरती लोकेश
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

पत्र तुम्हारे नाम

सुर्ख सुबह
चंपई दुपहरी
रंग रंग से लिख जाता मन
पत्र तुम्हारे नाम

बाहों के ख़ालीपन पर यह
बढ़ता हुआ दवाब
चहरे पर थकान के जाले
बुनता हुआ तनाव
बढ़ने लगे देह से लिपटी
यादों के आयाम

घबराहट भरती चुप्पी ने
नाप लिया है दिन
पत्थर-पत्थर हुए जा रहे
हाथ कटे पलछिन
मिटते नहीं मिटाए अब तो
होंठो लगे विराम

- सोम ठाकुर
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

कई बार ऐसा हुआ

कई बार ऐसा हुआ
शब्द हाथों से छूटकर
टूटकर बिखर गए
ज़मीन पर

अपनी ही तलाश में
शब्दों को गढ़ा कई बार
आवरण में रखा सहेजकर
और वो दर्द सहा
जो ख़ुद को छिपाने में रहा

कई बार ऐसा हुआ
अपने ही ख़िलाफ़ तन गए हम
यूँ ही ख़ुद से रूठकर

- हेमंत जोशी
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

स्याही

पन्नों पर छींटे रंगीन, या कोई है कलाकृति,
आड़ी तिरछी रेखाएँ, या है अतुल्य आकृति,
नटखट मन ने दी उँडेल, स्याही की अनुकृति,
या किसी विज्ञ ने है रची, यहाँ अनन्य सुकृति।

बाहर बिखेरे गए जो, थे दवात में डूबे अक्षर,
या उकेरे गए पृष्ठ पर, शांत अंतर्मन के निर्झर,
दीप्त हुए पा रोशनाई, जो तमस में लुप्त अंकुर,
या कुरेदे हैं नियति ने, मरु लेख में लघु कंकर।

कण-कण जुड़े हुए हैं, या भग्न कोई अवशेष,
तार-तार से कड़ी बनी, छिन्न-भिन्न रण वेश,
गूँथ दिए सुमन माला, या छितरे हैं पुष्प केश,
मोती चुन हार बना, या मणि छिटकी विशेष।

चक्षु से उर के भाव ये, असक्षम सहज ग्रहण,
मस्तिष्क भवन न सकें, स्याही टुकड़े भ्रमण,
हृदय से हृदय की लौ, सीमा करे अतिक्रमण,
मृदुवाणी काव्यकृति, हृदयंगम अंतस वरण।

- आरती लोकेश
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

सफ़र पर

यह वक्त शब्दों के दीए जलाने का है
कहा एक कवि ने
और मैंने सचमुच एक दीया जलाकर
आँगन में रख दिया

वह लड़ता रहा अँधेरे से
लड़ता रहा आँधियों से
लड़ता रहा एक पूरी रुत से
और धीरे-धीरे
मेरे जिस्म में एकाकार हो गया

अब मेरे हर शब्द में है एक मशाल
और शब्द निकले हैं सफ़र पर।

- गुरमीत बेदी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 16 फ़रवरी 2025

जलीय रिश्ता-नाता

धरती में गुँथे अपने रूपों को निहारता
पहचान में लहर-लहर होता
यह जल ही ज़लज़ले उठाता है देह में मन में
भावना के तूफ़ानों 
भवता और भाव के बियाबानों में
ज़रा भटककर देखो
उतरो
अपने ही अचेतन तहख़ानों में
जहाँ तुम क़ैद हो
वहीं मुक्ति है!

धरा में
रेशा-रेशा समाए जल से जुड़कर
तुम्हारा रक्त उछालें खाता है
जितना जल है धरती में
उतना ही क्यों
तुम्हारी देह में समाता है?

इस फैली-खिली दुनिया से
बस
क़तरा भर का तुम्हारा नाता है!

- बलदेव वंशी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

दिग्विजय

बादल को बाँहों में भर लो
एक और अनहोनी कर लो!

अंगों में बिजलियाँ लपेटो,
चरणों मे दूरियाँ समेटो;
नभ की पदचापों से भर दो
ओ दिग्विजयी मनु के बेटो!
इंद्रधनुष कंधों पर धर लो!
एक और अनहोनी कर लो!

अंतरिक्ष घर है तो डर क्या?
नीचे-ऊपर, इधर-उधर क्या?
साँसों में भर गईं दिशाएँ
फिर क्या भीतर है, बाहर क्या?
तारों की सीढ़ियाँ उतर लो!
एक और अनहोनी कर लो!

शीत-ताप हीन करो तन को,
करने दो प्रतीक्षा मरण को;
शीशे के ट्यूबों में भर लो
भटक रहे आवारा मन को!
ईथर में डूब लो, उभर लो!
एक और अनहोनी कर लो!

पथ पर वे बीते क्षण छूटे,
सीमांतों वाले पुल टूटे;
टूटी मेहराबों के नीचे
धारा में बहे स्वप्न झूठे।
रंगहीन किरण से सँवर लो!
एक और अनहोनी कर लो!

- शंभुनाथ सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

प्रीति में संदेह कैसा

प्रीति में संदेह कैसा?
यदि रहे संदेह, तो फिर—
प्रीति कैसी, नेह कैसा?
प्रीति में संदेह कैसा!

ज्योति पर जलते शलभ ने
धूप पर आसक्त नभ ने
मस्त पुरवाई-नटी से
नव प्रफुल्लित वन-विभव ने—
प्रश्न पूछा, ‘कोई नित-नित
परिजनों से भी सशंकित
हो अगर 'तो गेह कैसा?’
प्रीति में संदेह कैसा!

नींद पर संदेह दृग का
पंख पर उड़ते विहग का
हो अगर संदेह मग पर
प्रीति-पग के नेह-डग का
तो कहा प्रिय राधिका ने
नेह-मग की साधिका ने
बूँद बिन घन-मेह कैसा?
प्रीति में संदेह कैसा!

- कुँअर बेचैन
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

शेर कहने लगे

किया है अपने को बर्बाद, शेर कहने लगे
जब आ गई है तेरी याद, शेर कहने लगे

ये नहर दूध की हम भी निकाल सकते हैं
मज़ा तो जब है के फ़रहाद शेर कहने लगे

न देख इतनी हिक़ारत से हम अदीबों को
न जाने कब तेरी औलाद शेर कहने लगे

बड़े बड़ों को बिगाड़ा है हमने ऐ ‘राना’
हमारे लहज़े में उस्ताद शेर कहने लगे

- मुनव्वर राना
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

सफ़र में ऐसे कई मरहले भी आते हैं

सफ़र में ऐसे कई मरहले भी आते हैं
हर एक मोड़ पे कुछ लोग छूट जाते हैं

ये जानकर भी कि पत्थर हर एक हाथ में है
जियाले लोग हैं शीशों के घर बनाते हैं

जो रहने वाले हैं लोग उनको घर नहीं देते
जो रहने वाला नहीं उसके घर बनाते हैं

जिन्हें ये फ़िक्र नहीं सर रहे न रहे
वो सच ही कहते हैं जब बोलने पे आते हैं

कभी जो बात कही थी तिरे तअ'ल्लुक़ से
अब उसके भी कई मतलब निकाले जाते हैं

- आबिद अदीब
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

त्रिवेणी

1. सामने आए मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कराए भी, पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर

कल का अख़बार था, बस देख लिया, रख भी दिया।

सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

जो बिंध गया, सो मोती

जो बिंध गया, सो मोती
बिना बिंधा मोती
किस काम का
चाहे रहीम का हो
चाहे राम का!

अपने आप में था सिमटा
अपने होने में अकेला
चमक और रूप के रहते भी, 
वह कहाँ था मोती
समुद्र की अक्षय आभा
पानी की तृप्तिकर तरलता
वह किसी का भी अपना न था
जहाँ भी था...

फिर चाह कर छिदा
सूई-सूई बिंधा 
धागा-धागा पुरा
प्रियतम की भेंट हो
ज्योति हुआ!
समुद्र ही बिंधने को व्याकुल
द्वंद्व में दिन-रात
कभी सीपी
कभी मोती हुआ...

मोती-मोती जुड़ा, तो माला हुआ!
अकेलेपन की
सूनी अंधेरी रात में
दिन का उजाला हुआ!

मोती-मोती जुड़ा तो माला हुआ!...
बिंधने पर
आती है दिव्य ज्योति...
जो बिंध गया वही मोती

- बलदेव वंशी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 9 फ़रवरी 2025

आखर-आखर गान धरा का

साधो! 
तुमने सुना नहीं क्या 
हर पल चलता आखर-आखर गान धरा का 

भोर हुए पंछी 
उजास का गीत सुनाते
जन्म धूप का जब होता 
वे सोहर गाते 
पूरे दिन 
होता रहता है 
धूप-छाँव में भीतर-बाहर गान धरा का 

हवा नाचती 
पत्ते देते ताल साथ में 
दिन-बीते तक 
बच्चे हँसते बात-बात में 
मेघ गरजते 
बरखा होती 
मेंढक गाते रात-रात भर गान धरा का 

रोज़ आरती होती वन में 
साँझ-सकारे 
अनहद नाद सुनाते गुपचुप 
चाँद-सितारे 
दिन बर्फ़ीले भी 
आते हैं 
और तभी होता है पतझर-गान धरा का

- कुमार रवीन्द्र 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

आसमान के पार स्वर्ग है

आसमान के पार स्वर्ग है
सोच गया घर से
जाकर देखा 
वहाँ अँधेरा दीपक को तरसे
जीवन का पौधा उगता 
हिमरेखा के नीचे 
धार प्रेम की 
जहाँ नदी बन धरती को सींचे
आसमान से आम आदमी लगता है चींटी
नभ केवल रंगीन भरम है
सच्चाई मिट्टी

गिर जाता जो अंबर से 
वो मरता है
डर से

अंबर तक यदि जाना है तो 
चिड़िया बन जाओ
दिन भर नभ की सैर करो 
पर संध्या घर आओ
आसमान पर कहाँ बसा है
कभी किसी का घर
ज्यादा ज़ोर लगाया जिसने
टूटे उसके पर

फैलो 
काम नहीं चलता ऊँचा उठने भर से

- 'सज्जन' धर्मेंद्र 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

अभिलाषाओं के दिवास्वप्न

अभिलाषाओं के दिवास्वप्न 
पलकों पर बोझ हुए जाते
फिर भी जीवन के चौसर पर साँसों की बाज़ी जारी है।

हारा जीता
जीता हारा मन सम्मोहन का अनुयायी।
हालाँकि लगा
यह बार-बार सब कुछ पानी में परछाई।

हर व्यक्ति
डूबता जाता है परछाई को छूते-छूते
फिर भी काया नौका हमने भँवरों के बीच उतारी है।

जो कुछ
लिख गया कुंडली में 
वह टाले कभी नहीं टलता।
जलता है
अहंकार सबका सोने का नगर नहीं जलता।

हम रोज़ 
जीतते हैं कलिंग 
हम रोज़ बुद्ध हो जाते हैं
फिर भी इच्छाओं की गठरी अंतर्ध्वनियों पर भारी है।

- अंकित काव्यांश
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

त्रिवेणी

1. उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में 

अलविदा कहने को? या पास बुलाने के लिए?

बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

तुम्हीं से सीखा

नक़्श की तरह उभरना भी तुम्हीं से सीखा 
रफ़्ता रफ़्ता नज़र आना भी तुम्हीं से सीखा 

तुम से हासिल हुआ इक गहरे समुंदर का सुकूत 
और हर मौज से लड़ना भी तुम्हीं से सीखा 

अच्छे शेरों की परख तुम ने ही सिखलाई मुझे 
अपने अंदाज़ से कहना भी तुम्हीं से सीखा 

तुम ने समझाए मिरी सोच को आदाब अदब 
लफ़्ज़ ओ मअनी से उलझना भी तुम्हीं से सीखा 

रिश्ता-ए-नाज़ को जाना भी तो तुम से जाना 
जामा-ए-फ़ख़्र पहनना भी तुम्हीं से सीखा 

छोटी सी बात पे ख़ुश होना मुझे आता था 
पर बड़ी बात पे चुप रहना तुम्हीं से सीखा

- ज़ेहरा निगाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025

नहीं रहता

परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता 
किसी भी आइने में देर तक चेहरा नहीं रहता 

बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना 
जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता 

हज़ारों शेर मेरे सो गए काग़ज़ की क़ब्रों में 
अजब माँ हूँ कोई बच्चा मिरा ज़िंदा नहीं रहता 

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नए अंदाज़ वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हम-सा नहीं रहता

मोहब्बत एक ख़ुशबू है हमेशा साथ चलती है 
कोई इंसान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता 

कोई बादल हरे मौसम का फिर ऐलान करता है
ख़िज़ाँ के बाग़ में जब एक भी पत्ता नहीं रहता

- बशीर बद्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

तुम हमारे द्वार पर

तुम हमारे द्वार पर दीवा जलाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
उस दीप की बाती हमारे रक्त से ही क्यों सनी है!

कहीं ऐसा तो नहीं 
पहले अँधेरा भेजते हो,
फिर सितारों की दलाली कर उजाला बेचते हो।

क़ैद-ख़ाने में
पड़ा सूरज रिहाई माँगता हो,
या सकल आकाश आँगन में तुम्हारे नाचता हो।

कहीं ऐसा तो नहीं 
तुम स्वर्ग पाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
उस स्वर्ग की सीढ़ी हमारी अस्थियों से क्यों बनी है!

क्या पता हम
रात भर उत्सव मनाने में जगें फिर,
ठीक अगली भोर अपनी नींद पाने में जगें फिर।

छाँव का व्यापार
होने लग गया तो क्या करेंगे,
और कब तक हम उनींदे नयन में आँसू भरेंगे।

तुम मुनादी पीटकर हमको जगाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
अब उस नगाड़े पर हमारी खाल मढ़कर क्यों तनी है!

- अंकित काव्यांश
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

मैं अब घर जाना चाहता हूँ

मैं अब हो गया हूँ निढाल
अर्थहीन कार्यों में
नष्ट कर दिए
मैंने
साल-पर-साल
न जाने कितने साल!
और अब भी
मैं नहीं जान पाया
है कहाँ मेरा योग?

मैं अब घर जाना चाहता हूँ
मैं जंगलों
पहाड़ों में
खो जाना चाहता हूँ
मैं महुए के
वन में

एक कंडे-सा
सुलगना, गुंगुवाना
धुंधुवाना
चाहता हूँ।

मैं जीना चाहता हूँ
और जीवन को
भासमान
करना चाहता हूँ।

मैं कपास धुनना चाहता हूँ
या
फावड़ा उठाना
चाहता हूँ
या
गारे पर ईंटें
बिठाना
चाहता हूँ
या पत्थरी नदी के एक ढोंके पर
जाकर
बैठ जाना
चाहता हूँ
मैं जंगलों के साथ
सुगबुगाना चाहता हूँ
और शहरों के साथ
चिलचिलाना
चाहता हूँ

मैं अब घर जाना चाहता हूँ
मैं विवाह करना चाहता हूँ
और
उसे प्यार
करना चाहता हूँ
मैं उसका पति
उसका प्रेमी
और
उसका सर्वस्व
उसे देना चाहता हूँ
और
उसकी गोद
भरना चाहता हूँ।

मैं अपने आसपास
अपना एक लोक
रचना चाहता हूँ।
मैं उसका पति, उसका प्रेमी
और
उसका सर्वस्व
उसे देना चाहता हूँ
और
पठार
ओढ़ लेना
चाहता हूँ।

मैं समूचा आकाश
इस भुजा पर
ताबीज़ की तरह
बांध लेना चाहता हूँ।

मैं महुए के बन में
एक कंडे-सा
सुलगना, गुंगुवाना
धुंधुवाना चाहता हूँ।

मैं अब घर
जाना चाहता हूँ।

- श्रीकांत वर्मा
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अनूप भार्गव की पसंद