गुरुवार, 27 जून 2024

प्रतिबिंब

गहरी हुई दरारों को भरने का यत्न करूँ
या फिर रहूँ देखता इन दरकी दीवारों को?

चटखे हुए दर्पणों में
प्रतिबिंब बिखरते हैं
अपने चेहरे की विकृति के
वहम उभरते हैं 
किर्च-किर्च हो गए आईने से क्या मोह रखूँ
या फिर करूँ सुपुर्द इसे भी गई बहारों को?

अनगिनती थे साथ,
साथ चलने का ध्येय लिए
इसी भावना के अंतर्गत 
विष के घूँट पिए
सहता रहूँ यही दुरस्थिति,अधर सिले रख कर
या फिर कर दूँ व्यक्त हृदय में उठे गुबारों को?

किल-किल काँटे जहाँ
बनी हों शंकाएँ मन पर
दीवारें धुल सकें नहीं 
है जल इतना घन पर
खुली हुई पुस्तक जैसे अंतस की बाँह गहूँ
या फिर रहूँ निभाता इन थोथे
 व्यवहारों को?

- मुकुट सक्सेना
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शिवानंद सहयोगी के सौजन्य से 

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