शुक्रवार, 31 जनवरी 2025
चिड़िया
गुरुवार, 30 जनवरी 2025
एक दशमलव एक लिखा है
बुधवार, 29 जनवरी 2025
अधूरे मन से ही सही
मंगलवार, 28 जनवरी 2025
मन दस-बीस नहीं होते
सोमवार, 27 जनवरी 2025
मैं उनमें शामिल हूँ
मैं भूख पहनूँ, मैं भूख ओढ़ूँ, मैं भूख देखूँ, मैं प्यास लिक्खूँ
बरहाना जिस्मों के वास्ते मैं ख़्याल कातूँ, कपास लिक्खूँ
सिसक-सिसक के जो मर रहे हैं मैं उनमें शामिल हूँ और फिर भी
किसी के दिल में उम्मीद बोऊँ, किसी की आँखों में आस लिक्खूँ
-इकबाल साज़िद
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अनूप भार्गव जी के सौजन्य से
रविवार, 26 जनवरी 2025
व्योम विस्तृत प्रीति का
शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का।
भाव बौने लिख न पाऊँ, प्रेम पर शुचि गीतिका॥
कथ्य इसका है अपरिमित, बाँच कैसे लूँ भला।
कौन है जग में न जिसके, भाव नेहिल हृद पला॥
ढाई आखर में समाहित, गीत नेहिल नीति का।
शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥
प्रेम राधे का लिखूँ पर, लेखनी सक्षम नहीं।
गोपियों का लिख विरह दूँ, भाव इतने नम नहीं॥
लग रही प्रस्तुति अधूरी, नयन ओझल वीथिका।
शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥
सृष्टि के यह केन्द्र में है, माप कैसे लूँ परिधि।
प्रेम पावन भाव हृद का, लेख लिक्खूँ कौन विधि॥
प्रेम में पहला शगुन है, डूबने की रीति का।
शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥
-अनामिका सिंह 'अना'
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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
शनिवार, 25 जनवरी 2025
जगह
क़रार पाते हैं आख़िर हम अपनी अपनी जगह
ज़ियादा रह नहीं सकता कोई किसी की जगह
बनानी पड़ती है हर शख़्स को जगह अपनी
मिले अगरचे ब-ज़ाहिर बनी-बनाई जगह
हैं अपनी अपनी जगह मुतमइन जहाँ सब लोग
तसव्वुरात में मेरे है एक ऐसी जगह
गिला भी तुझ से बहुत है मगर मोहब्बत भी
वो बात अपनी जगह है ये बात अपनी जगह
किए हुए है फ़रामोश तू जिसे 'बासिर'
वही है अस्ल में तेरा मक़ाम तेरी जगह
शुक्रवार, 24 जनवरी 2025
प्रतिरोधी सबका स्वर होगा
सबका स्वर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
बहता नीर
नदी का हूँ मैं तटबन्धों के संग क्यों बहूँ?
सृष्टि नियामक एक तत्व हूँ मुझमें हलचल है मैं जल हूँ।
मेरी गति ही
जीवन गति है फिर भी इस गति पर पहरा है!
नदियों! ध्वस्त करो सारे तट यह मंतव्य अभी उभरा है।
आप सभी तो
समझदार हैं क्या यह उचित फ़ैसला होगा?
अनुशासन के बिना धरा पर नदियाँ नहीं ज़लज़ला होगा।
सबकी
आँखों में डर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
मुझसे ऊँचा
कौन विश्व में मैं ऊँचाई का मानक हूँ।
मैं ही चंदा की शीतलता मैं ही सूरज का आतप हूँ।
मुझको अपने
विराट तन पर पंछी दल अनुचित लगते हैं।
आओ सूरज का अग्नि-अंश चिड़ियों के ऊपर रखते हैं।
आकाश अगर
इस ज़िद पर है फिर किसका क्या उड़ान भरना!
अब तो पेड़ों मुंडेरों पर कोयल का आहत स्वर सुनना।
ख़तरा हर
पंछी पर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
- अंकित काव्यांश
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
गुरुवार, 23 जनवरी 2025
तब अधर पर गीत आते
जब किसी के नेह में हम हार कर भी जीत जाते।
तब अधर पर गीत आते।
पुष्प पर जब ओस के संघात से मृदु चोट आए,
जब हमारी टेर की ही एक प्रतिध्वनि लौट आए।
जब किसी बेला के बिरवे पर अचानक फूल आता,
जब कोई उल्लास में है साँस लेना भूल जाता।
जब किसी प्रिय आगमन का हम कभी संकेत पाते।
तब अधर पर गीत आते।
जब हमारे इंगितों पर केश कोई मुक्त कर दे,
और यह रसहीन जीवन प्रेम से रसयुक्त कर दे।
खनखनाते हाथ जब भी कक्ष का हैं द्वार खोलें,
कँपकँपाते होंठ दो जब-जब हमारा नाम बोलें।
जब महावर से भरे दो पाँव हैं पायल बजाते।
तब अधर पर गीत आते।
- अभिषेक औदिच्य
बुधवार, 22 जनवरी 2025
उस चाँद से कहना
तुम्हारे उड़ने के लिए है
यह मन का खटोला
खास तुम्हारे लिए है यह
स्वप्निल नीला आकाश
विचरण के लिए
आकाश का
सुदूर चप्पा-चप्पा
सब तुम्हारे लिए है
तनिक-सी इच्छा हो तो
चाँद पर
बना लो घर
चाहो तो चाँद के संग
पड़ोस में मंगल पर बस जाओ
जितनी दूर चाहो
जाओ
बस
देखना प्रियतम
अपने कोमल पंख
अपनी साँस
और भीतर की जेब में
मुड़ातुड़ा
अपनी पृथ्वी का मानचित्र
सोते-जागते दिखता रहे
आगे का आकाश
और पीछे प्रेम की दुनिया
धरती पर
दिखती रहें
सभी चीज़ें और अपने लोग
उड़नखटोले से
होती रहे
आकाश के चांद की बात
पृथ्वी के सगे-संबंधियों
और अपने चाँद की
आती रहे याद
जाओ जो चाहो तो जाओ
जाओ आकाश के चाँद के पास
तो लेते जाओ उसके लिए
धरती का जीवन
और संगीत
मिलो आकाश के चाँद से
तो पहले देना
धरती के चाँद की ओर से
भेंट-अँकवार
फिर धरती की चंपा के फूल
धरती की रातरानी की सुगंध
धरती की चाँदनी का प्यार
धरती के सबसे अच्छे खेत
धरती के ताल-पोखर
धान
और गेहूँ के उन्नत बीज
थोड़ी-सी खाद
और एक जोड़ी बैल
देना
कहना कि कोई सखी है
धरती पर भी है एक चाँद है
जिसे
तुम्हारे लौटने का इंतज़ार है
कहना कि छोटा नहीं है
उसका दिल
स्वीकार है उसे
एक और चाँद
चाहे तो चली आए
तुम्हारे संग
उड़नखटोले में बैठकर
मंगलगीत गाती हुई
धरती के आँगन में
स्वागत है ।
- गणेश पाण्डेय
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
मंगलवार, 21 जनवरी 2025
अपने भीतर
धूप की शरारत के बावजूद
जैसे धरती बचाकर रखती है
थोड़ी-सी नमी अपने भीतर
पहाड़ बचाकर रखते हैं
कोई हरा कोना अपने वक्ष में
तालाब बचाकर रखता है
कोई एक बूँद अपनी हथेली में
पेड़ बचाकर रखते हैं
टहनियों और पत्तों के लिए जीवन रस
फूल बचाकर रखते हैं
खुशबू अपने आवरण में
चिड़िया बचाकर रखती है
मौसम से जूझने की जिजीविषा
वैसे ही मैंने बचाकर रखा है
अपने भीतर
तुम्हारे होने का अहसास।
- गुरमीत बेदी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
सोमवार, 20 जनवरी 2025
अर्थ बदल दूँ काश का
भर
दूँ रंग पलाश का।
मन
हिरना को हंस बना लूँ
छू
लूँ पंख प्रकाश का।
सोनी
हल्दी सनी हथेली
कुमकुम
की सौगंध
रह-रह
कर आमंत्रित करती
नेहानुत
अनुगंध
मन
को पावन नीर बना लूँ
तन
को हिम कैलाश का।
कोई
परिचित लहरों जैसा
लेता
है आलाप
खोता, उतरता लय धुन में
स्वप्नों
में चुपचाप
मन
है उसको मेघ बना लूँ
अधरों
के आकाश का।
जी
करता है अर्पित कर दूँ
कोरों
का सब नीर
जैसे
सागर के आँगन में
नदिया
हारे पीर
मनभावन
अनुमान बना लूँ
अर्थ
बदल दूँ काश का।
- निर्मल शुक्ल
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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
रविवार, 19 जनवरी 2025
यह घर शायद वह घर नहीं है
जिस
घर में रहते थे हम
यह
शायद वह घर नहीं है
कहाँ
है वह घर
और
कहाँ
है उस घर का लाडला
जो
दिन में मेरे पैरों से
और
अँधेरी रातों में
मेरे
सीने से चिपका रहता था
कहाँ
खो गया है
बहती
नाक और खुले बालवाला
नंग-धड़ंग
मेरा छोटा बाबा
मुझे
ढूँढ़ता हुआ
कहाँ
छिप गया है
किस
कमरे में
किस
पर्दे के पीछे
कि
माँ की ओट में है
नटखट
यह
कौन है जो तन कर खड़ा है
किसका
बेटा है मुझे घूरता हुआ
बेटा
है कि पूरा मर्द
भुजाओं
से
पैरों
से
और
छाती से
फट
पड़ने को बेचैन
आख़िर
क्या चाहिए मुझसे
किसका
बेटा है यह
जो
छीन लेना चाहता है मुझसे
सारा
रुपया
मेरा
बेटा है तो भूल कैसे गया
माँगता
था कैसे हज़ार मिट्ठी देकर
एक
आइसक्रीम
एक
टाफ़ी और थोड़ी-सी भुजिया
माँग
क्यों नहीं लेता उसी तरह
मुझसे
मेरा जीवन
किसका
है यह जीवन
यह
घर
कहाँ
छूट गई हैं
मेरी
उँगलियों में फँसी हुईं
बड़ी
की नन्ही-नन्ही कोमल उँगलियाँ
उन
उँगलियों में फँसा पिता
कहाँ
छूट गया है
किसी
को ख़बर न हुई
हौले-हौले
हिलते-डुलते
नन्ही
पँखुड़ी जैसे होंठों को
पृथ्वी
पर सबसे पहले छुआ
और
सुदीप्त माथा चूमा
पहली
बार
जिनसे
मेरे
उन होंठों को क्या हो गया है
काँपते
हैं थर-थर
यह
कैसा डर है
यह
कैसा घर है
छोटी
की छोटी-छोटी
एक-एक
इच्छा की ख़ातिर
कैसे
दौड़ता रहा एक पिता
अपनी
दोनों हथेलियों पर लेकर
अपना
दिल और कलेजा
अपना
सब कुछ
जो
था पहुँच में सब हाज़िर करता रहा
क्या
इसलिए कि एक दिन
अपनी
बड़ी-बडी आँखों से करेगी़
पिता
पर कोप
कहाँ
चला गया वह घर
मुझसे
रूठकर
जिसमें
पिता पिता था
अपनी
भूमिका में
पृथ्वी
का सबसे दयनीय प्राणी न था
और
वह घर
जीवन
के उत्सव में तल्लीन
एक
हँसमुख घर था
यह
घर शायद वह घर नहीं है
कोई
और घर है
पता
नहीं किसका है यह घर?
- गणेश पाण्डेय
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
शनिवार, 18 जनवरी 2025
मैं
मीठी एक हिलोर भी हूँ मैं
तांडव जैसा शोर भी हूँ मैं
आँख चुरा लेती हूँ वरना
वैसे तो चितचोर भी हूँ मैं
थोड़ी सी हूँ तेरी जानिब
थोड़ी मेरी ओर भी हूँ मैं
कहने को आज़ाद परिंदा
तेरे हाथ की डोर भी हूँ मैं
शाम का कोई सन्नाटा हूँ
सुब्ह की उजली भोर भी हूँ मैं
जो दिखती हूँ उस पर मत जा
होने को कुछ और भी हूँ मैं
पत्थर जैसी फ़ितरत मेरी
लेकिन भाव-विभोर भी हूँ मैं
- डॉक्टर पूनम यादव
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
शुक्रवार, 17 जनवरी 2025
भिनभिनाना
उन्हें
पसंद नहीं
फूलों
से भरी हुई घाटियाँ
खुश्बुओं
से महकती हुई घाटियाँ
हरियाली
से
लहलहाती
और झूमती हुई घाटियाँ
वे
वहाँ पर
बारूदों
की दमघोंटू गँध भर कर
उसे
उजाड़े जाने
और
जलाये जाने का
जश्न
मनाते हैं
क्योंकि
उन्हें पसंद नहीं
फूलों
पर मड़राती हुईं तितलियाँ
गुनगुनाती
हुई
अपनी
भाषा में
कुछ
गाती हुईं मधुमक्खियाँ
वे
उसे
भिनभिनाना
कहते हैं
उन्हें
पसंद नहीं
यूँ
मधुमक्खियों का प्रेम प्रदर्शन
एकता
का आह्वान
सामूहिकता
का गान
उन्हें
पसंद नहीं
दूर
दूर तक फूलों का खिलना
उससे
रस लेना
छत्ते
बनाना
सामूहिकता
के पर्याय का जीवंत होना
तो
उन्हें कतई पसंद नहीं
- -- ओम प्रकाश अमित
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'बिजूका' ब्लॉग स्पॉट से साभार
गुरुवार, 16 जनवरी 2025
नयनों की भाषा
नयनों की भाषा,
केवल नयन समझते हैं।
दिल को ठेस लगी जब,
नयनों से अश्रु बरसते हैं।
हृदय क्रोध से जलता जब,
नयन अंगार उगलते हैं।
प्रिय से मिलन हुए तो,
नयनों में जलद उमड़ते हैं।
आग पेट की जलती जब,
नयन आस में तकते हैं।
आशाएँ धूमिल होतीं जब,
नयन निराश झलकते हैं।
झूठ कपट पकड़े जाते जब,
नयन नयन से छिपते हैं।
दिल की भाषा होती सच,
जब नयन नयन से मिलते हैं।
थक कर चूर हुए जब,
नयन नींद में ढलते हैं।
नयनों की भाषा,
केवल नयन समझते हैं।
- शिवेंद्र कुमार श्रीवास्तव
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मनीष कुमार श्रीवास्तव जी के सौजन्य से
बुधवार, 15 जनवरी 2025
संदेहों से घिरी पृथ्वी पर
संदेहों से घिरी पृथ्वी पर
प्रेम से पवित्र कुछ भी नहीं
आँसुओं से सिंचित कर
प्रेम को हरा रखने वाले प्रेमियों से सुन्दर कुछ भी नहीं
प्रेमियों के मिलने से ही होती है बारिश
चहकती है चिड़िया,गाते हैं भंवरे
प्रेमियों के तड़पने से ही खिलते हैं पुष्प
अप्रेम से भरी दुनिया में
खिला सकें यदि थोड़े से फूल
बिखेर सकें थोड़े से पराग
बचा सके यदि आँखों के पानी तो
बचेगी पृथ्वी पर रहने की गुंजाइश
प्रेमियों की साँसों से सुगन्धित रहे जीवन
प्रेमियों की जाग से उकता कर ये धरती
बोने लगे प्रेम के बीज
मै ऐसे प्रेम के कस्बे में रहती हूँ
जहाँ घृणा का प्रवेश वर्जित है।
- शालू शुक्ला
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सत्य नारायण पटेल के सौजन्य से
मंगलवार, 14 जनवरी 2025
सफ़र
सोमवार, 13 जनवरी 2025
नदी का आवेग
शनिवार, 11 जनवरी 2025
दूब
उसे जमने और पसरने को
नहीं चाहिए सिर्फ़ नदी का किनारा
पत्थरों के बीच भी
सिर उठाने की जगह
ढूँढ लेती है दूब
मिट्टी से कितना भी दबा दीजिए
मौक़ा पाते ही
पनप उठती है वह
पसर जाती है
सबको मुँह चिढ़ाते हुए
जमने को अपना अधिकार मानकर
देती आ रही है वह चुनौती
अपने ख़िलाफ़ साज़िश करने वालों को
सृष्टि के आरंभिक दिनों से।
शुक्रवार, 10 जनवरी 2025
मुझमें हो तुम
गुरुवार, 9 जनवरी 2025
इतना ही सीखता हूँ
बुधवार, 8 जनवरी 2025
मृगजल ही सही
मंगलवार, 7 जनवरी 2025
हमने उनके घर देखे
सोमवार, 6 जनवरी 2025
साथ
रविवार, 5 जनवरी 2025
आँखें
शुक्रवार, 3 जनवरी 2025
भूलना
गुरुवार, 2 जनवरी 2025
रफ़ू
बुधवार, 1 जनवरी 2025
नन्ही बेटी की हँसी
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बात सीधी थी पर एक बार भाषा के चक्कर में ज़रा टेढ़ी फँस गई। उसे पाने की कोशिश में भाषा को उलटा पलटा तोड़ा मरोड़ा घुमाया फिराया कि बात या तो ब...
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पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में रंग छा जाते हैं मानो ये चंचल नैन इन्हें जनमों से जानते थे। मानो हृदय ही फूला...
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चेतना पारीक कैसी हो? पहले जैसी हो? कुछ-कुछ ख़ुश कुछ-कुछ उदास कभी देखती तारे कभी देखती घास चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? अब भी कविता लिखती हो? ...