शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

चिड़िया

अनंत आकाश को लाँघती
नापती उसकी ऊँचाई को

तुम्हारे पाँव
कोमल हैं चिड़िया
नन्हे-नन्हे पाँवों से
अनंत आकाश को छूती
तुम्हारे पाँव
क्या कभी थकते नहीं

जिजीविषा तुम्हारी भी
अनंत है
समुद्र की तरह
अथाह

झील-सी गहरी
तुम्हारी आँखों में
दिखती है नूतनता की चाह

चिड़िया
क्या तुम इसी धरती की वासी हो।

- वंदना पराशर
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

एक दशमलव एक लिखा है

'एक दशमलव एक' लिखा है जहाँ-जहाँ पर,
आओ दस से गुणा करें ग्यारह हो जाएँ

तुम्हें दाहिने और हमें बाएँ कर डाला,
सामंजस के आँगन में भी खींचा पाला।
कटुता का विष-बिंदु घृणा का द्योतक है,
उसी बिंदु पर आओ भाई रबर चलाएँ।

विषम अंक जब सम से काटे जाते हैं,
परिणामों में तभी दशमलव आते हैं।
सभी विषमताओं को आओ सम कर लें,
भाग हटा कर गुणाकार का चिह्न लगाएँ।

- अभिषेक औदिच्य
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 29 जनवरी 2025

अधूरे मन से ही सही

अधूरे मन से ही सही
मगर उसने
तुझसे मन की बात कही

पुराने दिनों के अपने
अधूरे सपने
तेरे क़दमों में
ला रखे उसने

तो तू भी सींच दे
उसके
तप्त शिर को
अपने आँसुओं से
डाल दे उस पर
अपने आँचल की
छाया
क्योंकि उसके थके-मांदे दिनों में भी
उसे चाहिए
एक मोह माया

मगर याद रखना पहले-जैसा
उद्दाम मोह
पहले-जैसी ममत्व भरी माया
उसके वश की
नहीं है
ज़्यादा जतन नहीं है ज़रूरी

बस उसे
इतना लगता रहे
कि उसके सुख-दुख को
समझने वाला
यहीं-कहीं है!

- भवानीप्रसाद मिश्र
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 28 जनवरी 2025

मन दस-बीस नहीं होते

हर बात
ज़िंदगी के उसी मोड़ पर
ठहरी हुई है,

पर क्या करूँ,
उद्धव!
मन दस-बीस नहीं होते।

- अनिमेष मुखर्जी
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 27 जनवरी 2025

मैं उनमें शामिल हूँ

 मैं भूख पहनूँ, मैं भूख ओढ़ूँ, मैं भूख देखूँ, मैं प्यास लिक्खूँ
बरहाना जिस्मों के वास्ते मैं ख़्याल कातूँ, कपास लिक्खूँ
सिसक-सिसक के जो मर रहे हैं मैं उनमें शामिल हूँ और फिर भी 
किसी के दिल में उम्मीद बोऊँ, किसी की आँखों में आस लिक्खूँ
       
 -इकबाल साज़िद

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अनूप भार्गव जी के सौजन्य से 


रविवार, 26 जनवरी 2025

व्योम विस्तृत प्रीति का

शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का।

भाव बौने लिख न पाऊँ, प्रेम पर शुचि गीतिका॥


कथ्य इसका है अपरिमित, बाँच कैसे लूँ भला।

कौन है जग में न जिसके, भाव नेहिल हृद पला॥

ढाई आखर में समाहित, गीत नेहिल नीति का।

शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥


प्रेम राधे का लिखूँ पर, लेखनी सक्षम नहीं।

गोपियों का लिख विरह दूँ, भाव इतने नम नहीं॥

लग रही प्रस्तुति अधूरी, नयन ओझल वीथिका।

शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥


सृष्टि के यह केन्द्र में है, माप कैसे लूँ परिधि।

प्रेम पावन भाव हृद का, लेख लिक्खूँ कौन विधि॥

प्रेम में पहला शगुन है, डूबने की रीति का।

शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥


-अनामिका सिंह 'अना'

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शनिवार, 25 जनवरी 2025

जगह

क़रार पाते हैं आख़िर हम अपनी अपनी जगह 

ज़ियादा रह नहीं सकता कोई किसी की जगह 

बनानी पड़ती है हर शख़्स को जगह अपनी 

मिले अगरचे ब-ज़ाहिर बनी-बनाई जगह 

हैं अपनी अपनी जगह मुतमइन जहाँ सब लोग 

तसव्वुरात में मेरे है एक ऐसी जगह 

गिला भी तुझ से बहुत है मगर मोहब्बत भी 

वो बात अपनी जगह है ये बात अपनी जगह 

किए हुए है फ़रामोश तू जिसे 'बासिर' 

वही है अस्ल में तेरा मक़ाम तेरी जगह


--बासिर काज़मी

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

प्रतिरोधी सबका स्वर होगा

प्रतिरोधी
सबका स्वर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
बहता नीर
नदी का हूँ मैं तटबन्धों के संग क्यों बहूँ?
सृष्टि नियामक एक तत्व हूँ मुझमें हलचल है मैं जल हूँ।
मेरी गति ही
जीवन गति है फिर भी इस गति पर पहरा है!
नदियों! ध्वस्त करो सारे तट यह मंतव्य अभी उभरा है।
आप सभी तो
समझदार हैं क्या यह उचित फ़ैसला होगा?
अनुशासन के बिना धरा पर नदियाँ नहीं ज़लज़ला होगा।
सबकी
आँखों में डर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
मुझसे ऊँचा
कौन विश्व में मैं ऊँचाई का मानक हूँ।
मैं ही चंदा की शीतलता मैं ही सूरज का आतप हूँ।
मुझको अपने
विराट तन पर पंछी दल अनुचित लगते हैं।
आओ सूरज का अग्नि-अंश चिड़ियों के ऊपर रखते हैं।
आकाश अगर
इस ज़िद पर है फिर किसका क्या उड़ान भरना!
अब तो पेड़ों मुंडेरों पर कोयल का आहत स्वर सुनना।
ख़तरा हर
पंछी पर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
 
- अंकित काव्यांश
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 23 जनवरी 2025

तब अधर पर गीत आते

जब किसी के नेह में हम हार कर भी जीत जाते।

तब अधर पर गीत आते।


पुष्प पर जब ओस के संघात से मृदु चोट आए,

जब हमारी टेर की ही एक प्रतिध्वनि लौट आए।

जब किसी बेला के बिरवे पर अचानक फूल आता,

जब कोई उल्लास में है साँस लेना भूल जाता।


जब किसी प्रिय आगमन का हम कभी संकेत पाते।

तब अधर पर गीत आते।


जब हमारे इंगितों पर केश कोई मुक्त कर दे,

और यह रसहीन जीवन प्रेम से रसयुक्त कर दे।

खनखनाते हाथ जब भी कक्ष का हैं द्वार खोलें,

कँपकँपाते होंठ दो जब-जब हमारा नाम बोलें।


जब महावर से भरे दो पाँव हैं पायल बजाते।

तब अधर पर गीत आते।


- अभिषेक औदिच्य

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 22 जनवरी 2025

उस चाँद से कहना

तुम्हारे उड़ने के लिए है 

यह मन का खटोला 

खास तुम्हारे लिए है यह

स्वप्निल नीला आकाश 

विचरण के लिए 

आकाश का 

सुदूर चप्पा-चप्पा

सब तुम्हारे लिए है 


तनिक-सी इच्छा हो तो 

चाँद पर 

बना लो घर 

चाहो तो चाँद के संग 

पड़ोस में मंगल पर बस जाओ

जितनी दूर चाहो

जाओ


बस 

देखना प्रियतम

अपने कोमल पंख

अपनी साँस 

और भीतर की जेब में 

मुड़ातुड़ा

अपनी पृथ्वी का मानचित्र 

सोते-जागते दिखता रहे 

आगे का आकाश

और पीछे प्रेम की दुनिया

धरती पर 

दिखती रहें

सभी चीज़ें और अपने लोग


उड़नखटोले से

होती रहे 

आकाश के चांद की बात

पृथ्वी के सगे-संबंधियों

और अपने चाँद की

आती रहे याद

 

जाओ जो चाहो तो जाओ

जाओ आकाश के चाँद के पास 

तो लेते जाओ उसके लिए 

धरती का जीवन 

और संगीत 

मिलो आकाश के चाँद से

तो पहले देना 

धरती के चाँद की ओर से

भेंट-अँकवार

फिर धरती की चंपा के फूल

धरती की रातरानी की सुगंध

धरती की चाँदनी का प्यार

धरती के सबसे अच्छे खेत

धरती के ताल-पोखर

धान 

और गेहूँ के उन्नत बीज

थोड़ी-सी खाद

और एक जोड़ी बैल

देना


कहना कि कोई सखी है

धरती पर भी है एक चाँद है

जिसे 

तुम्हारे लौटने का इंतज़ार है

कहना कि छोटा नहीं है

उसका दिल

स्वीकार है उसे

एक और चाँद 

चाहे तो चली आए 

तुम्हारे संग 

उड़नखटोले में बैठकर 

मंगलगीत गाती हुई 

धरती के आँगन में 

स्वागत है ।


-  गणेश पाण्डेय

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 



मंगलवार, 21 जनवरी 2025

अपने भीतर

धूप की शरारत के बावजूद

जैसे धरती बचाकर रखती है

थोड़ी-सी नमी अपने भीतर

पहाड़ बचाकर रखते हैं

कोई हरा कोना अपने वक्ष में

तालाब बचाकर रखता है

कोई एक बूँद अपनी हथेली में

पेड़ बचाकर रखते हैं 

टहनियों और पत्तों के लिए जीवन रस

फूल बचाकर रखते हैं 

खुशबू अपने आवरण में

चिड़िया बचाकर रखती है

मौसम से जूझने की जिजीविषा


वैसे ही मैंने बचाकर रखा है

अपने भीतर

तुम्हारे होने का अहसास।


- गुरमीत बेदी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


सोमवार, 20 जनवरी 2025

अर्थ बदल दूँ काश का

 

 सुबह-सुबह की धूप बना लूँ

भर दूँ रंग पलाश का।

 

मन हिरना को हंस बना लूँ

छू लूँ पंख प्रकाश का।

 

सोनी हल्दी सनी हथेली

कुमकुम की सौगंध

रह-रह कर आमंत्रित करती

नेहानुत अनुगंध

 

मन को पावन नीर बना लूँ

तन को हिम कैलाश का।

 

कोई परिचित लहरों जैसा

लेता है आलाप

खोता, उतरता लय धुन में

स्वप्नों में चुपचाप

मन है उसको मेघ बना लूँ

अधरों के आकाश का।

 

जी करता है अर्पित कर दूँ

कोरों का सब नीर

जैसे सागर के आँगन में

नदिया हारे पीर

मनभावन अनुमान बना लूँ

अर्थ बदल दूँ काश का

 

निर्मल शुक्ल

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


रविवार, 19 जनवरी 2025

यह घर शायद वह घर नहीं है

 

जिस घर में रहते थे हम

यह शायद वह घर नहीं है

कहाँ है वह घर

 

और

कहाँ है उस घर का लाडला

जो दिन में मेरे पैरों से

और अँधेरी रातों में

मेरे सीने से चिपका रहता था

 

कहाँ खो गया है

बहती नाक और खुले बालवाला

नंग-धड़ंग मेरा छोटा बाबा

मुझे ढूँढ़ता हुआ

कहाँ छिप गया है

किस कमरे में

किस पर्दे के पीछे

कि माँ की ओट में है

नटखट

 

यह कौन है जो तन कर खड़ा है

किसका बेटा है मुझे घूरता हुआ

बेटा है कि पूरा मर्द

भुजाओं से

पैरों से

और छाती से

फट पड़ने को बेचैन

 

आख़िर क्या चाहिए मुझसे

किसका बेटा है यह

जो छीन लेना चाहता है मुझसे

सारा रुपया

 

मेरा बेटा है तो भूल कैसे गया

माँगता था कैसे हज़ार मिट्ठी देकर

एक आइसक्रीम

एक टाफ़ी और थोड़ी-सी भुजिया

 

माँग क्यों नहीं लेता उसी तरह

मुझसे मेरा जीवन

किसका है यह जीवन

यह घर

 

कहाँ छूट गई हैं

मेरी उँगलियों में फँसी हुईं

बड़ी की नन्ही-नन्ही कोमल उँगलियाँ

उन उँगलियों में फँसा पिता

कहाँ छूट गया है

 

किसी को ख़बर न हुई

हौले-हौले हिलते-डुलते

नन्ही पँखुड़ी जैसे होंठों को

पृथ्वी पर सबसे पहले छुआ

और सुदीप्त माथा चूमा

पहली बार

जिनसे

मेरे उन होंठों को क्या हो गया है

काँपते हैं थर-थर

यह कैसा डर है

यह कैसा घर है

 

छोटी की छोटी-छोटी

एक-एक इच्छा की ख़ातिर

कैसे दौड़ता रहा एक पिता

अपनी दोनों हथेलियों पर लेकर

अपना दिल और कलेजा

अपना सब कुछ

जो था पहुँच में सब हाज़िर करता रहा

 

क्या इसलिए कि एक दिन

अपनी बड़ी-बडी आँखों से करेगी़

पिता पर कोप

 

कहाँ चला गया वह घर

 

मुझसे रूठकर

जिसमें पिता पिता था

अपनी भूमिका में

पृथ्वी का सबसे दयनीय प्राणी न था

और वह घर

जीवन के उत्सव में तल्लीन

एक हँसमुख घर था

 

यह घर शायद वह घर नहीं है

कोई और घर है

पता नहीं किसका है यह घर?


गणेश पाण्डेय

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 18 जनवरी 2025

मैं

मीठी एक हिलोर भी हूँ मैं 

तांडव जैसा शोर भी हूँ मैं

आँख चुरा लेती हूँ वरना 

वैसे तो चितचोर भी हूँ मैं

थोड़ी सी हूँ तेरी जानिब 

थोड़ी मेरी ओर भी हूँ मैं

कहने को आज़ाद परिंदा 

तेरे हाथ की डोर भी हूँ मैं

शाम का कोई सन्नाटा हूँ 

सुब्ह की उजली भोर भी हूँ मैं

जो दिखती हूँ उस पर मत जा 

होने को कुछ और भी हूँ मैं

पत्थर जैसी फ़ितरत मेरी 

लेकिन भाव-विभोर भी हूँ मैं


- डॉक्टर पूनम यादव

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


 

शुक्रवार, 17 जनवरी 2025

भिनभिनाना

                 

 

उन्हें पसंद नहीं

फूलों से भरी हुई घाटियाँ

खुश्बुओं से महकती हुई घाटियाँ

हरियाली से 

लहलहाती और झूमती हुई  घाटियाँ

 

वे वहाँ पर

बारूदों की दमघोंटू गँध  भर कर

उसे उजाड़े  जाने 

और जलाये जाने का

जश्न मनाते हैं

 

क्योंकि उन्हें पसंद नहीं

फूलों पर मड़राती हुईं तितलियाँ

गुनगुनाती हुई

अपनी भाषा में 

कुछ गाती हुईं मधुमक्खियाँ

 

वे उसे 

भिनभिनाना कहते हैं

 

उन्हें पसंद नहीं 

यूँ मधुमक्खियों का प्रेम प्रदर्शन

एकता का आह्वान

सामूहिकता का गान

 

उन्हें पसंद नहीं

दूर दूर तक फूलों का खिलना

उससे रस लेना

छत्ते बनाना

सामूहिकता के पर्याय का जीवंत होना

तो उन्हें कतई पसंद नहीं


-        -- ओम प्रकाश अमित

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'बिजूका' ब्लॉग स्पॉट से साभार

गुरुवार, 16 जनवरी 2025

नयनों की भाषा

नयनों की भाषा,

केवल नयन समझते हैं।

दिल को ठेस लगी जब,

नयनों से अश्रु बरसते हैं।

हृदय क्रोध से जलता जब,

नयन अंगार उगलते हैं।

प्रिय से मिलन हुए तो,

नयनों में जलद उमड़ते हैं।

आग पेट की जलती जब,

नयन आस में तकते हैं।

आशाएँ धूमिल होतीं जब,

नयन निराश झलकते हैं।

झूठ कपट पकड़े जाते जब,

नयन नयन से छिपते हैं।

दिल की भाषा होती सच,

जब नयन नयन से मिलते हैं।

थक कर चूर हुए जब,

नयन नींद में ढलते हैं।

नयनों की भाषा,

केवल नयन समझते हैं।


- शिवेंद्र कुमार श्रीवास्तव

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मनीष कुमार श्रीवास्तव जी के सौजन्य से 

बुधवार, 15 जनवरी 2025

संदेहों से घिरी पृथ्वी पर


संदेहों से घिरी पृथ्वी पर 

प्रेम से पवित्र कुछ भी नहीं 

आँसुओं से सिंचित कर

प्रेम को हरा रखने वाले प्रेमियों से सुन्दर कुछ भी नहीं

प्रेमियों के मिलने से ही होती है बारिश 

चहकती है चिड़िया,गाते हैं भंवरे

प्रेमियों के तड़पने से ही खिलते हैं पुष्प


अप्रेम से भरी दुनिया में 

खिला सकें यदि थोड़े से फूल

बिखेर सकें थोड़े से पराग

बचा सके यदि आँखों के पानी तो

बचेगी पृथ्वी पर रहने की गुंजाइश 


प्रेमियों की साँसों से सुगन्धित रहे जीवन

प्रेमियों की जाग से उकता कर ये  धरती 

बोने लगे प्रेम के बीज

मै ऐसे प्रेम के कस्बे में रहती हूँ

जहाँ घृणा का प्रवेश वर्जित है।


- शालू शुक्ला

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सत्य नारायण पटेल के सौजन्य से


मंगलवार, 14 जनवरी 2025

सफ़र

रात में सागर की लहरों की
लंबी नावों पर फिरता हूँ
और सबेरे चट्टानों की भीड़ में
वीरान अरमानों में फिरता हूँ।

- अंकुर मिश्र
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 13 जनवरी 2025

नदी का आवेग

पर्वतों के बीच बहती
नदी का आवेग
जैसे

अश्रु बनकर बिखरने से पूर्व
हड्डियों को ठकठकाता हुआ कोई दर्द
रिक्त मन की घाटियों को चीर जाए।

- जगदीश गुप्त
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 11 जनवरी 2025

दूब

अदम्य जिजीविषा से भरी है दूब
उसे जमने और पसरने को
नहीं चाहिए सिर्फ़ नदी का किनारा
पत्थरों के बीच भी
सिर उठाने की जगह
ढूँढ लेती है दूब

मिट्टी से कितना भी दबा दीजिए
मौक़ा पाते ही
पनप उठती है वह
पसर जाती है
सबको मुँह चिढ़ाते हुए

जमने को अपना अधिकार मानकर
देती आ रही है वह चुनौती
अपने ख़िलाफ़ साज़िश करने वालों को
सृष्टि के आरंभिक दिनों से।

- जितेंद्र श्रीवास्तव
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

मुझमें हो तुम

कहीं मुझमें ही तो तुम
शारदीय नदी के जल में
उगते सूरज की तरह
किताबों के पन्नों में
छिपी सार्थक बातों की तरह
कहीं मुझमें ही हो तुम।

सूने कैनवस पर
उभरने वाले रंगों की तरह
कहीं मुझमें ही हो तुम।

- राकेश मिश्र
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

इतना ही सीखता हूँ

इतना ही सीखता हूँ गणित
कि दो और दो को
बस चार ही गिन सकूँ

इतनी ही सीखता हूँ भौतिकी
कि रोटी की ज़रूरत के साथ
हृदय की प्रेम तरंगें
और कंपन भी माप सकूँ

इतना ही सीखता हूँ भूगोल
कि ज़िंदगी की
इस भूलभुलैया में
शाम ढलने तलक
घर की दिशा याद रख सकूँ

इतनी ही सीखता हूँ अँग्रेज़ी
कि देशी अँग्रेज़ों के बीच
स्वाभिमान के साथ
अपनी हिंदी भी बचा सकूँ

इतना ही पढ़ता हूँ तुझे ज़िंदगी
कि दीवार पर उभरी
चूल्हे की कालिख में
परतों की उम्र भी पढ़ सकूँ

उकेरता हूँ ख़ुद को उतना ही
जितना सच बचा है
मेरे अंतस में।

- यतीश कुमार
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 8 जनवरी 2025

मृगजल ही सही

मृगजल ही सही
हमारा विश्वास गहरा है
लम्हा-लम्हा सूरज बुनने में
हमारी आँखें माहिर हैं
बूँद-बूँद रात पकाने में
हमारे चूल्हे प्रौढ़ हैं
मौसम शहीद हुए तो होने दो
भविष्य कुंभकर्ण-सा सोया है तो सोने दो

जब तक मिट्टी में
सोंधी गंध शेष है
अंजुलियाँ दर्पण बनी हुई हैं
पैर गीतों की कड़ियाँ बने हुए हैं
तब तक
हम
बिरवा-बिरवा खेती करेंगे
तिनका-तिनका किलकारियाँ सँजोएँगे
चप्पा-चप्पा आकाश नापते हुए
हम
सूरजमुखी फूल हो लेंगे
किरण-किरण बादल तलाशते हुए
हम
इंद्रधनुष हो जाएँगे

मृगजल ही सही
हम रेगिस्तान पी जाएँगे

- पद्मजा घोरपड़े
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 7 जनवरी 2025

सोमवार, 6 जनवरी 2025

साथ

अँधेरे में हो
इसीलिए
अकेले हो

रौशनी में आओगे
तो कम से कम
अपने साथ
एक परछाईं 
तो जुड़ी पाओगे।

- वेणु गोपाल
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संपादकीय चयन 

रविवार, 5 जनवरी 2025

आँखें

एक नदी हैं
मेरी आँखें
जिसके तटों को
छू-छू के रह जाती हैं
तुम्हारी पलकों की नाव।

- राकेश मिश्र
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

भूलना

हमने विस्मृति के बीज डाले
तो यादों का दरख़्त उग आया
कुछ चीज़ों को भूलना कितना कठिन है

जैसे इस उम्र में
कुछ चीज़ों को याद रखना!

- मदन कश्यप
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 2 जनवरी 2025

रफ़ू

जहाँ से धोखा हुआ धागों को आपसी रिश्तों में
खुली है अंदर की बात सबसे पहले वहीं पर
परेशान हैं धागे कैसे बची रहेगी
गुलबूटों की मैत्री की अविभक्त मजबूती
और कपड़े के समाज में उनकी पारस्परिकता
तार-तार होने से बचानी है
संबंधों की अटूट डोर

ऐसे में किसी को आया है ख़याल
रफ़ू के बारे में
सिलनी होंगी अब सारी खुली सीवनें
गूँथना होगा एक दूसरे को
फिर उसी तटस्थ भाव से

पुराने दिनों को याद करके
रूठ गए हर धागे को मनाना होगा
पच्चीकारी की रंगीन दुनिया से
निरपेक्ष रहकर
मिटानी होंगी धागों को आपसी ग़लतफ़हमियाँ
और उनके बीच बढ़ी हुई दूरी
एक बार नए सिरे से

नाज़ुक धरातल पर बुना हुआ यह सहमेल
रिश्तों की मज़बूत बुनियाद के बारे में
बहुत कुछ सिखाता है हमें।

- यतीन्द्र मिश्र
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 1 जनवरी 2025

नन्ही बेटी की हँसी

वह इतनी छोटी है
इतनी हल्की
कि उठाते हुए अतिरिक्त सावधान रहना होता है

वह बढ़ रही है
प्रकृति की तय गति से
अब हँसने लगी है
हँसती है तो लुढ़क जाती है
एक तरफ़
ऐसा लगता है कि बोझ मुक्त कलुष रहित
उसके भारहीन मन पर
एक मुस्कान भी भारी है।

- योगेश कुमार ध्यानी
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संपादकीय चयन