मंगलवार, 14 जनवरी 2025

सफ़र

रात में सागर की लहरों की
लंबी नावों पर फिरता हूँ
और सबेरे चट्टानों की भीड़ में
वीरान अरमानों में फिरता हूँ।

- अंकुर मिश्र
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 13 जनवरी 2025

नदी का आवेग

पर्वतों के बीच बहती
नदी का आवेग
जैसे

अश्रु बनकर बिखरने से पूर्व
हड्डियों को ठकठकाता हुआ कोई दर्द
रिक्त मन की घाटियों को चीर जाए।

- जगदीश गुप्त
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 11 जनवरी 2025

दूब

अदम्य जिजीविषा से भरी है दूब
उसे जमने और पसरने को
नहीं चाहिए सिर्फ़ नदी का किनारा
पत्थरों के बीच भी
सिर उठाने की जगह
ढूँढ लेती है दूब

मिट्टी से कितना भी दबा दीजिए
मौक़ा पाते ही
पनप उठती है वह
पसर जाती है
सबको मुँह चिढ़ाते हुए

जमने को अपना अधिकार मानकर
देती आ रही है वह चुनौती
अपने ख़िलाफ़ साज़िश करने वालों को
सृष्टि के आरंभिक दिनों से।

- जितेंद्र श्रीवास्तव
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

मुझमें हो तुम

कहीं मुझमें ही तो तुम
शारदीय नदी के जल में
उगते सूरज की तरह
किताबों के पन्नों में
छिपी सार्थक बातों की तरह
कहीं मुझमें ही हो तुम।

सूने कैनवस पर
उभरने वाले रंगों की तरह
कहीं मुझमें ही हो तुम।

- राकेश मिश्र
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

इतना ही सीखता हूँ

इतना ही सीखता हूँ गणित
कि दो और दो को
बस चार ही गिन सकूँ

इतनी ही सीखता हूँ भौतिकी
कि रोटी की ज़रूरत के साथ
हृदय की प्रेम तरंगें
और कंपन भी माप सकूँ

इतना ही सीखता हूँ भूगोल
कि ज़िंदगी की
इस भूलभुलैया में
शाम ढलने तलक
घर की दिशा याद रख सकूँ

इतनी ही सीखता हूँ अँग्रेज़ी
कि देशी अँग्रेज़ों के बीच
स्वाभिमान के साथ
अपनी हिंदी भी बचा सकूँ

इतना ही पढ़ता हूँ तुझे ज़िंदगी
कि दीवार पर उभरी
चूल्हे की कालिख में
परतों की उम्र भी पढ़ सकूँ

उकेरता हूँ ख़ुद को उतना ही
जितना सच बचा है
मेरे अंतस में।

- यतीश कुमार
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 8 जनवरी 2025

मृगजल ही सही

मृगजल ही सही
हमारा विश्वास गहरा है
लम्हा-लम्हा सूरज बुनने में
हमारी आँखें माहिर हैं
बूँद-बूँद रात पकाने में
हमारे चूल्हे प्रौढ़ हैं
मौसम शहीद हुए तो होने दो
भविष्य कुंभकर्ण-सा सोया है तो सोने दो

जब तक मिट्टी में
सोंधी गंध शेष है
अंजुलियाँ दर्पण बनी हुई हैं
पैर गीतों की कड़ियाँ बने हुए हैं
तब तक
हम
बिरवा-बिरवा खेती करेंगे
तिनका-तिनका किलकारियाँ सँजोएँगे
चप्पा-चप्पा आकाश नापते हुए
हम
सूरजमुखी फूल हो लेंगे
किरण-किरण बादल तलाशते हुए
हम
इंद्रधनुष हो जाएँगे

मृगजल ही सही
हम रेगिस्तान पी जाएँगे

- पद्मजा घोरपड़े
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मंगलवार, 7 जनवरी 2025

सोमवार, 6 जनवरी 2025

साथ

अँधेरे में हो
इसीलिए
अकेले हो

रौशनी में आओगे
तो कम से कम
अपने साथ
एक परछाईं 
तो जुड़ी पाओगे।

- वेणु गोपाल
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संपादकीय चयन 

रविवार, 5 जनवरी 2025

आँखें

एक नदी हैं
मेरी आँखें
जिसके तटों को
छू-छू के रह जाती हैं
तुम्हारी पलकों की नाव।

- राकेश मिश्र
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

भूलना

हमने विस्मृति के बीज डाले
तो यादों का दरख़्त उग आया
कुछ चीज़ों को भूलना कितना कठिन है

जैसे इस उम्र में
कुछ चीज़ों को याद रखना!

- मदन कश्यप
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गुरुवार, 2 जनवरी 2025

रफ़ू

जहाँ से धोखा हुआ धागों को आपसी रिश्तों में
खुली है अंदर की बात सबसे पहले वहीं पर
परेशान हैं धागे कैसे बची रहेगी
गुलबूटों की मैत्री की अविभक्त मजबूती
और कपड़े के समाज में उनकी पारस्परिकता
तार-तार होने से बचानी है
संबंधों की अटूट डोर

ऐसे में किसी को आया है ख़याल
रफ़ू के बारे में
सिलनी होंगी अब सारी खुली सीवनें
गूँथना होगा एक दूसरे को
फिर उसी तटस्थ भाव से

पुराने दिनों को याद करके
रूठ गए हर धागे को मनाना होगा
पच्चीकारी की रंगीन दुनिया से
निरपेक्ष रहकर
मिटानी होंगी धागों को आपसी ग़लतफ़हमियाँ
और उनके बीच बढ़ी हुई दूरी
एक बार नए सिरे से

नाज़ुक धरातल पर बुना हुआ यह सहमेल
रिश्तों की मज़बूत बुनियाद के बारे में
बहुत कुछ सिखाता है हमें।

- यतीन्द्र मिश्र
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 1 जनवरी 2025

नन्ही बेटी की हँसी

वह इतनी छोटी है
इतनी हल्की
कि उठाते हुए अतिरिक्त सावधान रहना होता है

वह बढ़ रही है
प्रकृति की तय गति से
अब हँसने लगी है
हँसती है तो लुढ़क जाती है
एक तरफ़
ऐसा लगता है कि बोझ मुक्त कलुष रहित
उसके भारहीन मन पर
एक मुस्कान भी भारी है।

- योगेश कुमार ध्यानी
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