रविवार, 30 जून 2024

मैं तो वही खिलौना लूँगा

मैं तो वही खिलौना लूँगा मचल गया दीना का लाल
खेल रहा था जिसको लेकर राजकुमार उछाल-उछाल।
व्यथित हो उठी माँ बेचारी- था सुवर्ण-निर्मित वह तो!
"खेल इसी से लाल, नहीं है राजा के घर भी यह तो"!

"राजा के घर! नहीं-नहीं माँ, तू मुझको बहकाती है,
इस मिट्टी से खेलेगा क्या राजपुत्र, तू ही कह तो"।
फेंक दिया मिट्टी में उसने, मिट्टी का गुड्डा तत्काल,
"मैं तो वही खिलौना लूँगा"- मचल गया दीना का लाल।

"मैं तो वही खिलौना लूँगा"- मचल गया शिशु राजकुमार,
वह बालक पुचकार रहा था पथ में जिसको बारंबार।
वह तो मिट्टी का ही होगा, खेलो तुम तो सोने से। 
दौड़ पड़े सब दास-दासियाँ राजपुत्र के रोने से 

मिट्टी का हो या सोने का, इनमें वैसा एक नहीं,
खेल रहा था उछल-उछलकर वह तो उसी खिलौने से 
राजहठी ने फेंक दिए सब अपने रजत-हेम-उपहार,
"लूँगा वही, वही लूँगा मैं!" मचल गया वह राजकुमार। 

- सियारामशरण गुप्त
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 29 जून 2024

उसने पत्तियों को चूमा

जंगल से गुज़रते हुए उसने
ओक के पेड़ की पत्तियों को चूमा
जैसे अपनी माँ की हथेलियों को चूमा

कहा- यह मेरी माँ का हाथ पकड़कर बड़ा हुआ है
इसके पास आज भी उसका स्पर्श है
जंगल का हाथ पकड़कर
मेरे पुरखे भी बड़े हुए

वे नहीं हैं पर यह आज भी वहीं खड़ा है
इसने मेरे पुरखों की स्मृतियों
और स्पर्शों को बचाकर रखा है
उन्हें महसूस करने के लिए
मैं इन्हें छूता हूँ, चूमता हूँ
मैं इनसे प्यार करता हूँ

जानती हो?
एक पेड़ के उखड़ने से
वह एक बार उखड़ता है
पर उससे जुड़ा आदमी
दो बार उखड़ता है
एक बार अपनी ज़मीन से उखड़ता है
और दूसरी बार अपनों की
स्मृतियों के स्पर्श से उजड़ता है।

- जसिंता केरकेट्टा
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डॉ० नीरू भट्ट के सौजन्य से 

शुक्रवार, 28 जून 2024

अंत्याक्षरी

आख़िरी अक्षर को 
पहला अक्षर बनाने की बाध्यता थी 
फिर-फिर यही करना 
आख़िरी अक्षर को 
पहला अक्षर बनाकर 
बड़ी सावधानी से गाना 

सो, अपने हर दुख को 
पूरी मस्ती से गाया मैंने 
आख़िरी मानकर 
इसी विधि उसे पहले सुख में बदला हमेशा

बरसों से चल रही है इसी तरह 
यह अंत्याक्षरी प्रतियोगिता

- हरि मृदुल
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संपादकीय चयन

गुरुवार, 27 जून 2024

प्रतिबिंब

गहरी हुई दरारों को भरने का यत्न करूँ
या फिर रहूँ देखता इन दरकी दीवारों को?

चटखे हुए दर्पणों में
प्रतिबिंब बिखरते हैं
अपने चेहरे की विकृति के
वहम उभरते हैं 
किर्च-किर्च हो गए आईने से क्या मोह रखूँ
या फिर करूँ सुपुर्द इसे भी गई बहारों को?

अनगिनती थे साथ,
साथ चलने का ध्येय लिए
इसी भावना के अंतर्गत 
विष के घूँट पिए
सहता रहूँ यही दुरस्थिति,अधर सिले रख कर
या फिर कर दूँ व्यक्त हृदय में उठे गुबारों को?

किल-किल काँटे जहाँ
बनी हों शंकाएँ मन पर
दीवारें धुल सकें नहीं 
है जल इतना घन पर
खुली हुई पुस्तक जैसे अंतस की बाँह गहूँ
या फिर रहूँ निभाता इन थोथे
 व्यवहारों को?

- मुकुट सक्सेना
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शिवानंद सहयोगी के सौजन्य से 

बुधवार, 26 जून 2024

प्रतीक्षा

धूप के अक्षर
अँधेरी रात की काली स्लेट पर
आसानी से लिखे जा सकते हैं
कोई ज़रूरी नहीं कि तुम्हारे हाथों में
चँद्रमा की चॉक हो।
इसके लिए मिट्टी ही काफ़ी है
वही मिट्टी
जो तुम्हारे चेहरे पर चिपकी है
तुम्हारे कपड़ों पर धूल की शक्ल में ज़िंदा है
तुम्हारी सुंदर जिल्द वाली किताबों में
धीरे-धीरे भर रही है।
तुम सूरज के पुजारी हो न?
तो सुनो
यह मिट्टी यूँ ही जमने दो परत-दर परत।
देख लेना
किसी दिन कोई सूरज
यहीं से, बिल्कुल यहीं से
उगता हुआ दिखाई देगा
और मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा। 
 
- सिद्धेश्वर सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 25 जून 2024

पेड़ों का अंतर्मन

कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा ख़ुशी से फूल गया है
खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं हैं
विस्थापित जंगल होते हैं
मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ,
टहनियों पर बैठता हूँ
पेड़ों की खोखल में रहता हूँ 
मैं, जंगल में घिरा हूँ
किंवदंतियों में रहने वाला
आदिम ख़ुशबू से भरा जंगल
कल मौसम की पहली बारिश हुई
और आज यह दरवाज़ा
चौखट में फँसने लगा है
वह बंद होना नहीं चाहता
ठीक दरख़्तों की तरह
एक कटे हुए जिस्म में
पेड़ का खून फिर दौड़ने लगा है
और यह दरवाज़ा बचपन की स्मृतियों में खो गया है
याद आने लगा है
किस तरह वह बाँहें फैलाकर
हज़ारों हथेलियों में समेटा करता था
बारिश को
और झूमने लगता था
वह स्मृतियों में फिर हरा हुआ है। 

-  हेमंत देवलेकर
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 24 जून 2024

ख़ामोशी

मरने से ठीक पहले
वह चीखा भर होता
तो शायद बच सकता था
सिर्फ़ बचे रहने के लिए
वह उम्र भर ख़ामोश रहा

- हूबनाथ पांडेय
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 23 जून 2024

मैंने नहीं कल ने बुलाया है!

मैंने नहीं कल ने बुलाया है

ख़ामोशियों की छतें,
आबनूसी किवाड़ें घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छेणियाँ लेकर बुलाया है
मैंने नहीं कल ने बुलाया है

सीटियों से
साँस भरकर भागते
बाज़ार-मिलों दफ़्तरों को
रात के मुर्दे
देखती ठंडी पुतलियाँ
आदमी अजनबी
आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है
मैंने नहीं कल ने बुलाया है

बल्ब की रौशनी
शेड में बंद है
सिर्फ परछाईं उतरती है
बड़े फुटपाथ पर
ज़िंदगी की जिल्द के
ऐसे सफ़े तो पढ़ लिए
तुम्हें अगला सफ़ा पढ़ने बुलाया है
मैंने नहीं कल ने बुलाया है

- हरीश भादानी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 22 जून 2024

नयन अबोले

इक पल मूँदे इक पल खोले
बोल गए दो नयन अबोले।

बात सहज थी अरथ अबूझे
वह पागल जो इनसे जूझे
जिसका मन हो फूल सुबह का
वह सब जाने उसको सूझे
इक पल बैठे युग दे बैठे
हम ऐसे अनजाने भोले।

जल गहरा था तट बहरा था
फिर भी मन यह रुका न रोके
जिस पर कभी नहीं पहरा था
मगन हुआ वह बंदी होके
दो नयनों पर जनम अनगिने
मिली तराज़ू हमने तौले।

इक पल मूँदे इक पल खोले
बोल गए दो नयन अबोले।

- श्रीकांत जोशी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 21 जून 2024

जाओ बादल

जाओ बादल,
तुम्हें मरुस्थल बुला रहा है।

वेणुवनों की वल्लरियाँ अब
पुष्पित होना चाह रहीं हैं,
थकी स्पृहायें शीतलता में
जी भर सोना चाह रहीं हैं।
स्वप्न तुम्हारा
कब से झूला झुला रहा है।
उसके ऊपर निष्प्रभाव है
दुनिया भर का जादू टोना,
जिसने भी चाहा जीवन में
मरुथल जाकर बादल होना।
द्वार सफलता
का उसके हित खुला रहा है।
फिर भी मेरी एक विनय है
अतिवादी होने से बचना,
सम्यक वृष्टि चाहिए इसको
जटिल धरा की है संरचना।

उसे जगाना
ताप जिसे भी सुला रहा है।

- ज्ञान प्रकाश आकुल
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

गुरुवार, 20 जून 2024

पहल

बच्चों को शोर मचाने से रोको मत
बच्चों को सोने को मत कहो

बच्चे सो जाएँगे तो जागेगा फिर कौन
बच्चे चुप हो जाएँगे तो जगाएगा फिर कौन


- हरीश करमचंदाणी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 19 जून 2024

मेघ-गीत

पहली बरखा का सौंधापन
महक उठा मेरा वातायन।

सूने आकाशों को छूकर ख़ाली-ख़ाली लौटी आँखें
अब पूरे बादल भरती है जामुनिया जिनकी पोशाकें
कैसे तोड़ रही है धरती
अपने से अपना अनुशासन!

ऋतुओं की ऋतु आने पर कौन नहीं जो फिर से गाता
मैं गाता तो कौन गज़ब है पूरा विंध्याचल चिल्लाता
क्षितिज-क्षितिज से दिशा-दिशा से
सप्त स्वरांबुधि के अभिवादन।

अंतरिक्ष में नाद मूर्त है, धरती पर अँखुओं का नर्तन
मैदानों में रंग-शक्तियाँ करती गुप्त क्षणों का अंकन
प्रकृति-पुरुष के अश्व-वेग में
महाकाम के व्यक्तोन्मादन।

पहली बरखा का सौंधापन
महक उठा मेरा वातायन।

- श्रीकांत जोशी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 18 जून 2024

खुद को खुद से दूर न रखना

साथ किसी के रहना लेकिन
खुद को खुद से दूर न रखना।

रेगिस्तानों में उगते हैं
अनबोये काँटों के जंगल,
भीतर एक नदी होगी तो
कलकल-कलकल होगी हलचल,
जो प्यासे सदियों से बंधक
अब उनको मजबूर न रखना।

खंडहरों ने रोज बताया
सारे किले ढहा करते हैं,
कोशिश से सब कुछ संभव है
सच ही लोग कहा करते हैं,
भले दरक जाना बाहर से
मन को चकनाचूर न रखना।

पहले से होता आया है
आगे भी होता जायेगा,
अंगारों के घर से अक्सर
फूलों को न्योता आयेगा,
आग दिखाना नक्कारों को
शोलों पर संतूर न रखना।

- ज्ञान प्रकाश आकुल
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 17 जून 2024

दोष

नक्शा बहुत साफ़ था
मेरे मन में था
मैं चाहता था
वह निर्दोष साबित हो
क्योंकि वह निर्दोष था
और इसीलिए यह साबित करना
बहुत मुश्किल था। 

- हरीश करमचंदाणी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 16 जून 2024

ईश्वर और मनुष्य

1.
अनेक नाम हो सकते है ईश्वर को पुकारने के
पर तुम ईश्वर को हमेशा मनुष्य रूप में ही पुकारना
कम से कम इससे ईश्वर को होगी
और अधिक सहजता
क्योंकि ईश्वर के 'नाम' से अधिक ईश्वर-सा 'काम' ही है जो
पृथ्वी को और भी अधिक सुंदर बना सकता है। 

2.
किसी पेड़ में देवता वास कर सकते हैं,
किसी नदी के जल से ईश स्नान कर सकते हैं,
किसी पशु पर देव सवारी कर सकते हैं,
और तो और एक पत्थर में भी प्रभु दिख सकते हैं,
फिर तुम तो मनुष्य ठहरें ना,
तुम बेशक ईश्वर न बन सको पर ईश्वर सरीखे तो बन ही सकते हो। 

3.
ईश्वर तुम्हें कब, कहाँ और कैसे मिलेगा
यह तुम नहीं जानते हो,
पर उससे मिलने की संभावनाएँ बनी रहें इसलिए
इन सभी प्रश्नों के परे
"वह मुझसे क्यों मिलेगा?"
को सोचते हुए
मैं स्वयं को नित्य संवार रही हूँ।

- हर्षिता पंचारिया
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 15 जून 2024

बादल लिखना

मेहंदी-सुर्खी
काजल लिखना
महका-महका
आँचल लिखना!

धूप-धूप
रिश्तों के
जंगल
ख़त्म नहीं
होते हैं
मरुथल
जलते मन पर
बादल लिखना!

इंतज़ार के
बिखरे
काँटे
काँटे नहीं
कटे
सन्नाटे
वंशी लिखना
बादल लिखना!

- हरीश निगम
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 14 जून 2024

अनजान होना

चिड़िया को नहीं मालूम कितना मीठा गाती है
मोगरा भी है बेखबर अपनी महक से
और हवा जो बहती रहती हरदम
नहीं पता उसे कितनी ज़रुरी है वह
और आदमी जो जानता इतना इतना

अनजान होना हमेशा बुरा तो नहीं होता

- हरीश करमचंदाणी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 13 जून 2024

ग्यारह साल की लड़की

प्यासी धरती पर
गिरती पसीने की बूँदें
पूछती हैं साँवली लड़की से
नदी का अता-पता

हैरान लड़की लिखना चाहती है
रिपोर्ट गुमशुदा नदी की
जो बहती थी
पिछले साल तक

लड़की परेशान है
पानी के बग़ैर
सनेगा कैसे मकई का आटा
देगची में कैसे पकेगी दाल
चावल पड़े हैं
बग़ैर धुले हुए
दादी ने अभी तक नहीं लिया है
चरणामृत
माँ ने दिया नहीं अभी तक
अर्घ्य सूर्य को
और तुलसी के बिरवे को पानी
श्यामा गाय प्यासी है
तीन दिन से नहीं लिपि है झोंपड़ी

सोचते-सोचते
अभी से सयानी हो गई
ग्यारह साल की लड़की।

-  त्रिलोक महावर
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 12 जून 2024

पिता

पिता के मुस्कुराने भर से, कहाँ टलता है माँ का ग़ुस्सा
माँ की शिकायत पत्रों की पेटी होते हैं पिता
माँ की चुप्पियों की चाबी होते हैं पिता
माँ जानती है कि चाबी के ना होने पर टूट जाते हैं ताले
इसलिए माँ हमेशा पल्लू में बाँधे रखती है चाबी
और संसार कहता है,
पिता
"बँधे हुए हैं माँ के पल्लू से"।

पिता के कहने भर से, कहाँ थामते हैं बच्चे हाथ
बच्चों की गहरी नींद में जागते हुए सपने होते हैं पिता
ऊब की परछाइयों में
हाथ थामते पिता इतना जानते हैं कि,
अवसाद कितना भी गहरा हो
उम्मीद की तरह टिमटिमाते जुगनूओं से रख देंगे,
मुट्ठी-भर रौशनी संसार की विस्तृतता को बढ़ाते हुए
शायद इसलिए
पिता आसमान-से होते हैं।
पिता थोड़ा-थोड़ा बँट भी जाते हैं 
थोड़ा छोटे काका में, थोड़ा छोटी बुआ में
ताकि थोड़ा-थोड़ा ही सही, पर मिलता रहे उन्हें भी
पिता-सा दुलार...
जाने कैसे उनके पुकारने भर से पूरी कर जाते हैं,
हज़ारों किलोमीटर की दूरियाँ घंटे मात्र में
आज भी नहीं मानते मेरे पिता
उन्हें कभी अपने बच्चों से पृथक...
ऐसा कहते रहते हैं मेरे पिता, अपने स्वर्गीय पिता से।
कम उम्र में पिता को खोने का दुख पिता ने सहा
पिता के जाने के बाद वह अपनी माँ के पिता भी बन गए
बिवाई से लेकर उनकी हर दवाई का
उँगलियों पर हिसाब रखने वाले पिता,
जब चारों उँगलियों को बंद करते हुए
सोचते हैं कि इन उँगलियों से बंद हुई मुट्ठी ही
यदि मेरा भाग्य है
तो यही मेरे जीवित होने का साक्ष्य है।
पिता बनते-बनते पिता सब भूल जाते हैं 
यहाँ तक वे ख़ुद को भी भूल जाते हैं 
मैं उन्हें ढूँढती हूँ
तलाशती हूँ
यहाँ-वहाँ थोड़ा बहुत खोजती हूँ
और वे मंदिर में बैठे "गोपाल" की तरह मुस्कुराते हैं,
मुझे भजन सुनाते हैं...
"ओ पालनहारे
निर्गुण और न्यारे
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं"।

- हर्षिता पंचारिया
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 11 जून 2024

मीठी बोली

बस में जिससे हो जाते हैं प्राणी सारे।
जन जिससे बन जाते हैं आँखों के तारे।
पत्थर को पिघलाकर मोम बनानेवाली
मुख खोलो तो मीठी बोली बोलो प्यारे।।

रगड़ों, झगड़ों का कडुवापन खोनेवाली।
जी में लगी हुई काई को धोनेवाली।
सदा जोड़ देनेवाली जो टूटा नाता
मीठी बोली प्यार बीज है बोनेवाली।।

काँटों में भी सुंदर फूल खिलानेवाली।
रखनेवाली कितने ही मुखड़ों की लाली।
निपट बना देने वाली है बिगड़ी बातें
होती मीठी बोली की करतूत निराली।।

जी उमगाने वाली चाह बढ़ाने वाली।
दिल के पेचीले तालों की सच्ची ताली।
फैलानेवाली सुगंध सब ओर अनूठी
मीठी बोली है विकसित फूलों की डाली।।
 
- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 10 जून 2024

मैं

मैं एक भागता हुआ दिन हूँ 
और रुकती हुई रात
मैं नहीं जानता हूँ 
मैं ढूँढ़ रहा हूँ अपनी शाम 
या ढूँढ़ रहा हूँ अपना प्रात!

- श्रीकांत वर्मा
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संपादकीय चयन 

रविवार, 9 जून 2024

बेशर्म आज़ाद आवारा औरतें

बेशर्म आज़ाद आवारा औरतें
चुनती हैं सबसे शोख रंग की लिपस्टिक
नहीं डरती अपने ही कूल्हों के मटकने से
दुपट्टों को फैशन एक्सेसरीज-सा ओढ़ती हैं
खुद तय करती हैं अपने सौंदर्य के मानक
देखती हैं खुद को आईने में देखते हुए
 
बेशर्म आज़ाद आवारा औरतें
रोटियाँ बेल झट बच्चों के टिफ़िन पैक कर
निकल पड़ती हैं अपने उद्देश्य की ओर
जैसे पृथ्वी पर खेंचे सभी रास्ते
उसके अपने श्रम का मेहनताना हों
 
बेशर्म आज़ाद आवारा औरतें
प्रेम करती हैं - खुलकर
सपने देखती हैं - वैयक्तिक
हँसती हैं - ठठाकर
पढ़ती हैं - खबरें
प्रश्न उठाती हैं मुद्दों पर
 
बेशर्म आज़ाद आवारा औरतें
सहलाती हैं पृथ्वी को
जैसे वो उनकी बूढी माँ हो
देखती हैं आसमान की आँखों में
इतिहास की कराह
और जीती हैं इस तरह
मानो ये दुनिया उनकी अपनी हो!
 
-  जया पाठक श्रीनिवासन
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

शनिवार, 8 जून 2024

हाथ

उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए

- केदारनाथ सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

शुक्रवार, 7 जून 2024

हम पत्थर उठाते हैं

अजब दुनिया है नाशायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िल में दरी- चादर उठाते हैं

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब काँधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं

इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं

समुन्दर के सफ़र से वापसी का क्या भरोसा है
तो ऐ साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़ कि हम लंगर उठाते हैं

ग़ज़ल हम तेरे आशिक़ हैं मगर इस पेट की ख़ातिर
क़लम किस पर उठाना था क़लम किसपर उठाते हैं

बुरे चेहरों की जानिब देखने की हद भी होती है
सँभलना आईनाख़ानों, कि हम पत्थर उठाते हैं

- मुनव्वर राना
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अनूप भार्गव जी के सौजन्य से 

गुरुवार, 6 जून 2024

परसाई से सुना था

(१)
वह लंबी लंबी डींगें हाँकता था
अक्सर सब
सुनते थे उसकी बात
उसकी बातों में उन सबके मन का
भेड़िया झाँकता था
अक्सर जब वो बोलता था
सब भेड़ बनकर
बैठ जाते थे, सुनने
मैंने देखा -
कई बार बोलते हुए
उसके मुँह से लार टपकती थी
 
(२)
सभी भेड़ों के सीने में एक कील चुभी हुई थी
भेड़िया बोलता रहा
कीलों को गड़ाता,
चुभन बढ़ाता हुआ
सहसा, ग़दर-सा मचा
भेड़ों की भीड़ एक भेड़ पर ही झपट पड़ी
वह भेड़,
जो चैन से सो रही थी -
कील निकाल
कर,
मार डाली गई 
भेड़िया मुस्कुराता रहा देर तक

- जया पाठक श्रीनिवासन
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 5 जून 2024

कवि वही

कवि वही जो अकथनीय कहे
किंतु सारी मुखरता के बीच मौन रहे
शब्द गूँथे स्वयं अपने गूथने पर
कभी रीझे कभी खीझे कभी बोल सहे
कवि वही जो अकथनीय कहे
सिद्ध हो जिसको मनोमय मुक्ति का सौंदर्य साधन
भाव झंकृति रूप जिसका अलंकृति जिसका प्रसाधन
सिर्फ़ अपना ही नहीं सबका ताप जिसे दहे
रुष्ट हो तो जगा दे आक्रोश नभ का
द्रवित हो तो सृष्टि सारी साथ-साथ बहे।

शक्ति के संचार से
या अर्थ के संभार से
प्रबल झंझावात से
या घात-प्रत्याघात से
जहाँ थकने लगे वाणी स्वयं हाथ गहे।

शांति मन में क्रांति का संकल्प लेकर टिकी हो
कहीं भी गिरवी न हो ईमान जिसका
कहीं भी प्रज्ञा न जिसकी बिकी हो
जो निरंतर नई रचना-धर्मिता से रहे पूरित
लेखनी जिसकी कलुष में डूबकर भी
विशद उज्जवल कीर्ति लाभ लहे
कवि वही जो अकथनीय कहे
 
- जगदीश गुप्त 
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 4 जून 2024

बराबर उसके कद के

बराबर उसके कद के यों मेरा कद हो नहीं सकता
वो तुलसी हो नहीं सकती मैं बरगद हो नहीं सकता

मिटा दे लाँघ जाए या कि उसका अतिक्रमण कर ले
मैं ऐसी कोई भी कमज़ोर सरहद हो नहीं सकता

जमाकर खुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है
कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता

लिए हो फूल हाथों में बगल में हो छुरी लेकिन
महज सम्मान करना उसका मकसद हो नहीं सकता

उफनकर वो भले ही तोड़ दे अपने किनारों को
रहे नाला सदा नाला कभी नद हो नहीं सकता

ख़ुशी का अर्थ क्या जाने वो मन कि शांति क्या समझे
विहँसता देख बच्चों को जो गदगद हो नहीं सकता

है 'भारद्वाज' गहरा फर्क दोनों के मिज़ाजों में
मैं रूमानी ग़ज़ल वो भक्ति का पद हो नहीं सकता
 
- चंद्रभानु भारद्वाज
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

सोमवार, 3 जून 2024

गीत का दामन

छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
जब मिलेंगे ये सहारा ही बनेंगे।।

सामने जब रेत हो पानी नहीं हो
लिख रहा हो वक्त रेतीले कथानक,
मंच पर जब पात्र सारे सज गए हों
और पर्दा गिर पड़े जैसे अचानक।

छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
ये मरुस्थल में सदा सावन रचेंगे।।

बात जब घुटने लगे यों ही हृदय में
बात वह जग के लिए अज्ञात होगी,
खूब खुलकर तुम हृदय की बात करना
बात निकलेगी तभी तो बात होगी।

छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
ये बहुत खुलकर सभी बातें करेंगे।।

ढल रहे हों अश्रु युग की आँख से जब
गीत ही बढ़कर समय की पीर लेंगे,
जबकि धीरज टूटता होगा समय का
गीत ही बढ़कर समय को धीर देंगे।

छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
कंठ में ये ही समय का विष धरेंगे।।

इस समय में भाव विकृत हो गए हैं
शब्द हैं, पर शब्द के मानी नहीं हैं,
और मन का व्याकरण इतना जटिल है
आँख है, पर आँख का पानी नहीं है।

छोड़ना मत गीत का दामन कभी तुम
गीत भावों को सदा जीवित रखेंगे।।

- चित्रांश वाघमारे
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 2 जून 2024

चेतना जागी

चेतना जागी
समय जागा
पारदर्शी हो रहे
परिदृश्य में सपने
कल तलक जो गैर थे
लगने लगे अपने
अर्धसत्यों का अंधेरा 
हार कर भागा
 
अब नहीं पड़तीं
सुनाई वर्जनाएँ
हर तरफ देतीं
दिखाई सर्जनाएँ
अब तो है निर्माण में
आगत बिना नागा
 
जो तिरस्कृत थे
वही सब खास हैं
अब सभी के मन
सभी के पास हैं
जुड़ गया फिर से अचानक
नेह का धागा

- कृष्ण शलभ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 1 जून 2024

जीवन के अर्थ

तुमने जो कहा
वो
मैं समझी नहीं 
मैंने 
जो समझा
वो
तुमने कहा नहीं 

इस
कहने-सुनने में
कितने दिन
निकल गए
और
फिर समझने में
शायद
पूरी ज़िंदगी 
निकल जाए

लेकिन
फिर भी
अगर तुम
मेरी समझ को
समझ सको
किसी दिन
ज़िंदगी को
शायद
अर्थ मिल जाए
उस दिन

- किरण मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से