तुम बहुत सरपट दौड़े हो
थोड़ा ठहर जाओ
न, तुम नहीं थके,
जानता हूँ
लेकिन तुम्हारी दौड़ ने बहुतों को कुचला है
ठहर जाओ।
थोड़ा ठहर जाओ
न, तुम नहीं थके,
जानता हूँ
लेकिन तुम्हारी दौड़ ने बहुतों को कुचला है
ठहर जाओ।
तुम्हारी रगों में फड़कती बिजली
तुम पर नहीं
दूसरों पर गिरती है
कोई वल्गा नहीं तुम्हारे मुँह में
फिर भी तुम्हारी पीठ खाली नहीं
वहाँ सवार है पताका
जिसकी फहराती नोंक
तुम्हें नहीं दूसरों को चुभती है
ठहर जाओ।
तुम पूजित हो, अलंकृत हो
ऊर्जा तुममें छटपटाती है
सारी दूब को रौंदकर जब तुम लौटोगे
बिना थके भूमंडल को नाप लेने के
उन्माद से काँपते, सिर्फ़, सिर्फ़ उत्तेजना के कारण
हाँफते
तब तुम्हें काट डालेंगे
वे ही लोग – जिनके लिए तुम दौड़े थे।
वे काट डालेंगे
तुम्हारा प्रचंड मस्तक।
तुम्हारा मेध
उनका यज्ञ है।
- पुरुषोत्तम अग्रवाल
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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