हम समय के देवता का मान रखने के लिए ही
इक अधूरी प्यास लेकर पनघटों से लौट आए
इक अधूरी प्यास लेकर पनघटों से लौट आए
एक अनचाही डगर में डगमगाते पाँव धरके
और नयनों के घटों में आँसुओं का नीर भरके
इक अभागे स्वप्न ने चाहा कि उसको रोक लूँ पर
जा चुका था वो हमारी देह को निष्प्राण करके
इक नदी के तीर जलती लकड़ियों के साथ में ही
एक दुनिया फूँककर हम मरघटों से लौट आए
गीत का मधुमास लेकर, प्राण का उल्लास लेकर
दूर हमसे हो गए हैं सुख सभी संन्यास लेकर
उम्र का आकाश पीड़ा के कुहासे में ढका है
स्वप्न सब निश्छल हमारे जी रहे वनवास लेकर
सब मनोरथ हो नहीं सकते कभी पूरे, तभी तो
बाँसुरी के स्वर सदा वंशीवटों से लौट आए
जब कभी निकलें सफ़र में काटता है पैर कोई
और वो अपना नहीं है और ना ही ग़ैर कोई
कौन कारण कौन कारक सत्य यह भी है उजागर
ठन गया है क्या विधाता का हमीं से वैर कोई
धीर हारा है, न हारेगा कभी संकल्प मन का
बोलकर ये बात मठ की चौखटों से लौट आए
- निकुंज शर्मा
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चिराग जैन के सौजन्य से
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