बुधवार, 31 जुलाई 2024

दरख़्त-सी कविता

दरख़्त-सी कविता
तनी रहती है, खड़ी रहती है
झंझावातों को हँसकर भगा देती है
बिजली, वर्षा, ओलों की चोटों के बाद भी
देती रहती है हरियाली
विचारों के अकाल में
आसान नहीं होता दरख़्त-सी कविता को
ढहा देना
'यदा यदा हि धर्मस्य' की ग्लानि के लिए
शताब्दी में आता है कोई कलयुगपुरुष
'जानामि अधर्मं, न च मे निवृत्ति' की तरह
जब पैदा होता है कोई दुर्योधन, कोई कंस
तब बड़ी साजिशों के साथ
आरा, कुल्हाड़ा चलाकर
काटे जाते हैं ऐसी कविता के हाथ पाँव
भूलकर कि फिर कोपलें फूट आती हैं
जैसे प्रेम अँखुआता ही है
भेद के जहरीले संसार में भी
जैसे हर दंगे में घुली होती है
बचाने वाले की भी कहानी
बस तपस्वी-सा
देना पड़ता है दरख़्त बनने-सा समय कविता को
और छाया मिलती रहती है पीढ़ी दर पीढ़ी।


- प्रकाश देवकुलिश
----------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

चाय

आओ बैठें साथ-साथ
और चाय पिएँ,
बस इतना ध्यान रखना
कप ऊपर तक मत भर देना,
कप में थोड़ी-सी चाय रहे
थोड़ी जगह खाली रहे
खाली जगह थोड़ी-सी मेरी
खाली जगह थोड़ी तुम्हारी
ताकि तुम तुम रह सको,
मैं मैं रह सकूँ,

थोड़ी-सी चाहत बाकी रहे
एक और कप चाय की
और तुम्हारे साथ की!

- नूपुर अशोक
---------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 29 जुलाई 2024

तस्वीर की लड़की बोलती है

जिस रात
अँधेरा गहराता है
चाँदनी पिघलती है
मैं हौले कदमों से
कैनवस की कैद से
बाहर निकलती हूँ
बालों को झटक कर खोलती हूँ
और उन घनेरी ज़ुल्फों में
टाँकती हूँ जगमगाते सितारे
मेरे बदन से फूटती है खुश्बू
हज़ारों चँपई फूल खिलते हैं
आँखों के कोरों से कोई
सहेजा हुआ सपना
टपक जाता है
मदहोश हवा में
अनजानी धुन पर
अनजानी लय से
पैर थिरक जाते हैं
रात भर मैं झूमती हूँ।

पौ फटते ही
बालों को समेटती हूँ
जूड़े में...
बदन की खुशबू को ढकती हूँ
चादर से,
पलकों को झपकाती हूँ
और कोई अधूरा सपना
फिर कैद हो जाता है
आँखों में।

एक कदम आगे बढ़ाती हूँ
और कैनवस की तस्वीर वाली
लड़की बन जाती हूँ।
तुम आते हो
तस्वीर के आगे ठिठकते हो
दो पल,
फिर दूसरी तस्वीर की ओर
बढ़ जाते हो...
मेरे होंठ बेबस, कैद हैं
कैनवस में
बोलना चाहती हूँ... पर...
क्या तुम नहीं देख पाते
तस्वीर की लड़की के
होंठों की ज़रा सी टेढ़ी
मुस्कुराहट
और नीचे सफेद फर्श पर
गिरे दो चँपई फूल?

- प्रत्यक्षा
----------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 28 जुलाई 2024

हे पंथी पथ की चिंता क्या?

तेरी चाह है सागरमथ भूधर,
उद्देश्य अमर पर पथ दुष्कर
कपाल कालिक तू धारण कर
बढ़ता चल फिर प्रशस्ति पथ पर

जो ध्येय निरंतर हो सम्मुख
फिर अघन अनिल का कोई हो रुख
कर तू साहस, मत डर निर्झर
है शक्त समर्थ तू बढ़ता चल

जो राह शिला अवरुद्ध करे
तू रक्त बहा और राह बना
पथ को शोणित से रंजित कर
हर कंटक को तू पुष्प बना

नश्वर काया की चिंता क्या?
हे पंथी पथ की चिंता क्या?

है मृत्यु सत्य माना पाति
पर जन्म कदाचित महासत्य
तुझे निपट अकेले चलना है
हे नर मत डर तू भेद लक्ष्य

इस पथ पर राही चलने में
साथी की आशा क्यों निर्बल
भर दंभ कि तू है अजर अमर
तेरा ध्येय तुझे देगा संबल

पथ भ्रमित न हो लंबा पथ है
हर मोड़ खड़ा दावानल है
चरितार्थ तू कर तुझमें बल है
है दीर्घ वही जो हासिल है

बंधक मत बन मोह पाशों का
ये मोह बलात रोकें प्रतिपल
है द्वंद्व समर में मगर ना रुक
जो नेत्र तेरे हो जाएँ सजल

बहते अश्रु की चिंता क्या
हे पंथी पथ की चिंता क्या?

- अमित कपूर
---------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 27 जुलाई 2024

तुम नहीं हो?

है धुंधलका
हल्का हल्का
ठहरा ठहरा
पाँव पल का
मन हिंडोला डोलता है
मूक अश्रु पूछता है
तुम नहीं हो?
चासनी से
छन रहे हो
चाँदनी से
झर रहे हो
छुप रहे हो
छल रहे हो
बस तुम्ही-तुम
हर कहीं हो
तुम नहीं हो?
हो जो भीतर
क्यूँ न बाहर
बीच क्यूँ है
काली चादर
आस बे-पर
साँस बे-घर
शेष फिर भी
ढाई आखर
सब ग़लत बस
तुम सही हो
तुम नहीं हो?
जानते हो
जान-से हो
क्यूँ बने
अनजान से हो
दूरियों में
जल रहे हो
मुझमें पल-पल
ढल रहे हो
सोचते हो
के नहीं हो
पर यहीं हो
तुम यहीं हो
तुम यहीं हो
तुम यहीं हो!

- अंजु वर्मा
------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

संदेह का लाभ

यूँ तो अपराधी कई थे,
पर हमेशा और बड़ी तादाद में
चींटियाँ ही मारी गईं
वे रात के अँधेरे में चुपचाप
करते थे हमला
चींटियाँ घूमती थी
दिन के उजाले में
झुंड की झुंड बेख़ौफ़
अपराध करते हुए देखी गईं चींटियाँ
और सजा उन्हें ही मिली
बाकी निर्दोष छूट गए
संदेह का लाभ लेकर...!

- अलकनंदा साने
------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 25 जुलाई 2024

फिर मन में ये कैसी हलचल?

वर्षों से जो मौन खड़े थे
निर्विकार निर्मोह बड़े थे
उन पाषाणों से अब क्यूँकर 
अश्रुधार बह निकली अविरल
फिर मन में ये कैसी हलचल?

निश्चल जिनको जग ने माना
गुण-स्वभाव से स्थिर नित जाना
चक्रवात प्रचंड उठते हैं क्यूँ 
अंतर में प्रतिक्षण, प्रतिपल
फिर मन में ये कैसी हलचल?

युग बीते जिनसे मुख मोड़ा
जिन स्मृतियों को पीछे छोड़ा
अब क्यूँ बाट निहारें उनकी 
पलपल होकर लोचन विह्वल?
फिर मन में ये कैसी हलचल?

- अर्चना गुप्ता
---------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 24 जुलाई 2024

प्रेम

किसी चट्टान की
खुरदुरी सतह पर उभरी
किसी दरार पर
हौले से अपना हाथ यूँ रखो
मानो पूछ रहे हो
उससे उसकी खैरियत।

तुम देखना
कुछ समय बाद
वहाँ कोई कोंपल फूट गई होगी
अथवा
उस दरार में
पानी के निशान होंगे।
 
- सुरेश बरनवाल
------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 23 जुलाई 2024

एक गीत मेरा भी गा दो

एक गीत मेरा भी गा दो।

स्वर की गलियों के बंजारे
मेरे छंद करो उजियारे
किरन-किरन में बाँध लुटा दो।
एक गीत मेरा भी गा दो।

स्वर बाला के राजदुलारे
उठा गीत-नग नेक चुरा रे
स्वर की सुषमा से चमका दो।
एक गीत मेरा भी गा दो।

स्वर मधुबन के कुँवर कन्हैया
मेरा गीत एक ग्वालनिया
लय की बाँहों से लिपटा दो।
एक गीत मेरा भी गा दो।

- श्रीकांत जोशी
-----------------

संपादकीय चयन 

सोमवार, 22 जुलाई 2024

लौट आए

हम समय के देवता का मान रखने के लिए ही
इक अधूरी प्यास लेकर पनघटों से लौट आए 

एक अनचाही डगर में डगमगाते पाँव धरके
और नयनों के घटों में आँसुओं का नीर भरके
इक अभागे स्वप्न ने चाहा कि उसको रोक लूँ पर
जा चुका था वो हमारी देह को निष्प्राण करके
इक नदी के तीर जलती लकड़ियों के साथ में ही
एक दुनिया फूँककर हम मरघटों से लौट आए 

गीत का मधुमास लेकर, प्राण का उल्लास लेकर
दूर हमसे हो गए हैं सुख सभी संन्यास लेकर 
उम्र का आकाश पीड़ा के कुहासे में ढका है
स्वप्न सब निश्छल हमारे जी रहे वनवास लेकर
सब मनोरथ हो नहीं सकते कभी पूरे, तभी तो
बाँसुरी के स्वर सदा वंशीवटों से लौट आए 

जब कभी निकलें सफ़र में काटता है पैर कोई
और वो अपना नहीं है और ना ही ग़ैर कोई
कौन कारण कौन कारक सत्य यह भी है उजागर
ठन गया है क्या विधाता का हमीं से वैर कोई
धीर हारा है, न हारेगा कभी संकल्प मन का
बोलकर ये बात मठ की चौखटों से लौट आए 

- निकुंज शर्मा
--------------

चिराग जैन के सौजन्य से 

रविवार, 21 जुलाई 2024

मैं उनका ही होता

मैं उनका ही होता, जिनसे 
मैंने रूप-भाव पाए हैं। 

वे मेरे ही लिए बँधे हैं 
जो मर्यादाएँ लाए हैं। 

मेरे शब्द, भाव उनके हैं, 
मेरे पैर और पथ मेरा, 
मेरा अंत और अथ मेरा, 
ऐसे किंतु चाव उनके हैं। 

मैं ऊँचा होता चलता हूँ 
उनके ओछेपन से गिर-गिर, 
उनके छिछलेपन से खुद-खुद, 
मैं गहरा होता चलता हूँ। 

- गजानन माधव मुक्तिबोध
-----------------------------

संपादकीय चयन 

शनिवार, 20 जुलाई 2024

वक़्त ज़रा थम जा

वक्त
ज़रा थम जा
मुझे और अभी कहना है 

खिलते चले जा रहे हैं
अभी
ढेर ताजे़ फूल

अंजलि में भर-भर
उन्हें
धारा को देना है।

- गिरिजाकुमार माथुर
-----------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

चराग़ दिल का मुक़ाबिल हवा के

चराग़ दिल का मुक़ाबिल हवा के रखते हैं 
हर एक हाल में तेवर बला के रखते हैं 

मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में 
हम अपनी आँख का पानी बचा के रखते हैं 

हमें पसंद नहीं जंग में भी मक्कारी 
जिसे निशाने पे रक्खें बता के रखते हैं 

कहीं ख़ुलूस कहीं दोस्ती कहीं पे वफ़ा 
बड़े क़रीने से घर को सजा के रखते हैं 

अना पसंद हैं ‘हस्ती’-जी सच सही लेकिन 
नज़र को अपनी हमेशा झुका के रखते हैं 

- हस्तीमल हस्ती
------------------

विजय नगरकर के सौजन्य से 

गुरुवार, 18 जुलाई 2024

इतिहास का पहिया

चुटकुला कुछ यूँ था
एक आदिम विज्ञानी ने
चौकोर पहिए का इजाद किया था
उसका कहना था
गोल पहिए पीछे भी सरक सकते हैं

बात में दम तो है

इतिहास का पहिया गोल है
हर पहिए की तरह
वह आगे सरकता है
जब जनता
उसे सामने की ओर धकेलती है
ख़ासकर जब रास्ता चढ़ाई का हो
वर्ना वह पीछे सरक सकती है

इतना तो ख़ैर तय है

दिक्कत सिर्फ़ इतनी है
उसे धकेलने वालों की अगली पाँतों में
कुछ ऐसे भी शख़्स हैं
जिनके दिमाग चौकोर हैं
और वे हमेशा इस फ़िराक़ में रहते हैं
गोल पहिए को चौकोर बना दिया जाए 
ताकि वह पीछे की ओर न सरके

- उज्ज्वल भट्टाचार्य
---------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 17 जुलाई 2024

एक अदद तारा मिल जाए

एक अदद तारा मिल जाए 
तो इस नीम अँधेरे में भी
तुमको लंबा ख़त लिख डालूँ।

छोटे ख़त में आ न सकेंगी
पीड़ा की पर्वतमालाएँ
और छटपटाहट की नदियाँ।
पता नहीं क्या वक़्त हुआ है,
सिर्फ़ भाप है कलाइयों पर,
बारिश में भीगीं यूँ घड़ियाँ।

एक अदद माचिस मिल जाए 
तो मैं बुझी काँगड़ी से भी
कुछ नीले अंगार उठा लूँ।

लिख डालूँ तड़के दरवाज़े,
बंद ड्योढ़ियाँ, घुप बरामदे,
लहूलुहान हुई तहज़ीबें।
लिख दूँ सतही तहक़ीक़ातें,
चतुर दिलासे, झूठे ढाढस,
उलझाने वाली तरक़ीबें।

एक अदद पारस मिल जाए 
तो इन लौह पलों को भी मैं
कंचन की आभा में ढालूँ।

मत पूछो यह दुनिया क्या है
कोई साही खड़ी हुई हो
ज्यों अपने काँटे फैलाए।
है हर रंज ताड़ से ऊँचा,
हर तकलीफ़ कुएँ से गहरी,
कोई कैसे स्वप्न बचाए?

एक अदद माँदल मिल जाए 
तो मैं शूलों के सम्मुख भी
फूलों की पीड़ाएँ गा लूँ।

महज़ कमीज़ों से क्या होगा,
हम मनुष्यता भी तो पहनें,
धारण करें बड़प्पन भी तो।
मन-मयूर नाचेगा हर पल
और पपीहा भी हुलसेगा,
आसमान में हों घन भी तो।

एक अदद मधु ऋतु मिल जाए 
तो बेरंग अहातों में भी
सतरंगी तितलियाँ बुला लूँ।

आकर निंदियायी टहनी पर
हुदहुद का चुपचाप बैठना
ठकठक की शुरुआत तो नहीं।
नीरस-सी मुस्कानों वाले
ये निढाल-से चेहरे हैं जो,
पतझर वाले पात तो नहीं?

एक अदद आँधी मिल जाए 
तो मैं उड़े चँदोवों में भी
उत्सव के उद्गार सजा लूँ।

- सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
-------------------------

संपादकीय चयन 

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

जब प्रेम

नींद के साथ अभी-अभी रात का जादू टूटा है
सूरज मुझे नरम हाथों से सहला रहा है
और मेरे दोनों हाथ
पलाश की पंखुडी में अटके
एक मोती की अभ्यर्थना में उठ गए हैं
 
सुबह की सफ़ेद झालर से छिटका
रौशनी का एक कतरा
मेरी चेतना में टपका है
और मेरी बासी देह
एक असीम शक्ति से फैलती जा रही है
 
एक दूधिया कबूतर
आकाश की नीलिमा को पंखों में बाँधने
उड़ान भरता है
साथ उसके उड़ता मैं
दिगंत में अदृश्य हो जाता हूँ 
 
मंत्रों की सौंधी वास धीरे-धीरे
मेरे मन के उलझे रेशों को गूँथ रही है
और सदियों से दुबका एक स्वप्न
चारों ओर उजाले की तरह फैल रहा है
 
ज़मीन सोनल धूप में उबल रही है
आहिस्ता-आहिस्ता
पृथ्वी के बचे रहने की गंध में
पूरा इलाका मदहोश है
 
हो रहा यह सब मेरे समय के हिस्से में
कि जब प्रेम एक पूरा ब्रह्मांड
और मैं
इस होने का
एकांत साक्षी...

- विमलेश त्रिपाठी
--------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 15 जुलाई 2024

संगीत

सारंगी इसलिए बनी थी
कि प्रकृति किसी कंधे की टेक ले
सुना सके
पीड़ा की तान पर
प्रेमियों के बिछोह के गीत

तबला बना
इसलिए कि वो बाँध सके
उन तानों को
अंतहीन आवर्तनों के अहाते में
जो आते-जाते उन गीतों के आघातों से
बस!
टूटने टूटने को होते
कि तभी
तुम थाम लेती हो  
उन गिरते अहातों को
कंठ से फूटे
एक कसे हुए आलाप में

ईश्वर ने पृथ्वी पर प्रेम रखा
और उसके अंजाम पर ठिठक गया खुद
तुम आई
कि उस घबराए हुए ईश्वर
को चाहिए थी तुम्हारी तान की टेक
अपने शोक गीतों के लिए 
चाहिए था
एक स्त्री के हृदय भर का आसमान

- जया पाठक श्रीनिवासन
----------------------------

अनूप भार्गव की पसंद 

रविवार, 14 जुलाई 2024

जी भर गाओ

मुझ पर प्यारे शोध करो मत
मुझको जी भर गाओ।

चीर-फाड़ कविता के तन की
अच्छी बात नहीं
खून-पसीने की फ़सलें
मिलतीं ख़ैरात नहीं
मुझको माला पहनाओ मत
मुझको जी भर गाओ।

रोकर गाती है जैसे
बुधनी बकरी मरने पर
रोकर गाओ, हँसकर गाओ
तुम भी जी करने पर
मेरी बातें याद करो मत
मुझको जी भर गाओ।

दो दिन या दो सदी जिएँगे
ये कविवर, क्या जानें
हमें जिलाएँगी आकाश-
कुसुम-सी ये संतानें 
ज़्यादा मेरा नाम रटो मत
मुझको जी भर गाओ। 

- बुद्धिनाथ मिश्र
-----------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 13 जुलाई 2024

कायाकल्प

देखते ही देखते
मेरी आँखों के सामने
ए० टी० एम० मशीन
सुंदरी राजकन्या बन गई।
मैंने उसे बाँहों में भर लिया।
सुंदरी राजकन्या ने
मुझे अपनी बाँहों में भर लिया।
और मैं ए० टी० एम० मशीन बन गया।

- उज्ज्वल भट्टाचार्य
----------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

पासवर्ड

मेरे पिता के पिता के पिता के पास
कोई संपत्ति नहीं थी।

मेरे पिता के पिता को अपने पिता का
वारिस अपने को सिद्ध करने के लिए भी
मुक़द्दमा लड़ना पड़ा था।

मेरे पिता के पिता के पास
एक हारमोनियम था
जिसके स्वर उसकी निजी संपत्ति थे।

मेरे पिता के पास उनकी निजी नौकरी थी
उस नौकरी के निजी सुख-दुख थे।

मेरी भी निजता अनंत 
अपने निर्णयों के साथ।

इस पूरी निजी परंपरा में मैंने
सामाजिकता का एक लंबा पासवर्ड डाल रखा है। 

- विवेक निराला
-----------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 11 जुलाई 2024

प्रवासी परिंदे

वे घुड़सवारी करते हैं बर्फ़िली हवाओं के अश्वों की,
अपनी चहक फूँकते हैं विश्व के सबसे ऊँचे पर्वतों के बूढ़े कानों में और
हज़ारों मील चले आते हैं बस दिशाओं पर भरोसा कर
भरोसा कभी चूकता नहीं, 
ये उनसे बेहतर कोई नहीं समझा सकता
जब वे सुनते हैं कि मुई जी.पी.एस बड़ी नई ईजाद है दिमाग वालों की
वे एक साथ एक तिरछी मुस्कान उछालते हैं, 
अपने परों को खुजलाते हैं
और साइबेरिया से उड़ान भरते हुए आ बैठते हैं 
हिंदुस्तान के उसी जंगल की उसी शाख पर
जहाँ वे पिछले जाड़े में आ बैठे थे
चूक शब्द के मायने वे नहीं जानते
वे अकेले नहीं आते
साथ में बाँध लाते हैं ढेरों क़िस्से एक बर्फ़ के देश के
अगर कभी बूझ सको इन पंछियों की भाषा
तुम सुनोगे लोक कथाएँ साइबेरिया की
मैना, कबूतर और गौरैया हैरत से सुना करते हैं कि
होता है एक बर्फ़ का देस जहाँ केवल प्रेम की गर्माहट होती है और
सर्द इग्लू के भीतर सिर्फ़ मन सुलगते हैं
हमारा पीपल जानता है स्लेज वाले बूढ़े और मेंढकी राजकुमारी को
ठीक वैसे ही रूस के दरख़्त हीर और रांझे को खूब पहचानते हैं
दरअसल उनके परों पर क़िस्से सफ़र करते हैं
हमने कबूतर के सिवाय किसी को डाकिया नहीं माना
ये हमारी ज़हानत नहीं बल्कि नादानी है
उनकी चोंच में टंगे होते हैं चिल्का के ख़त 
जो उन्हें बैकाल को सौंपने हैं
उनके पंजों में दबे होते हैं कुछ रंग-बिरंगे पंख जो
तोहफा हैं किसी झक्क सफ़ेद नन्हे ध्रुवीय भालू के लिए
उनके पंखों पर बेतरतीब पड़े हैं कुछ स्पर्श जो
स्मृतियाँ बनेंगे विरह के मौसमों में
कि उन्हें मिले केवल दो ही मौसम संग के
उनका विरह से जलता दिल ग्रीष्म बनता है और
उनका छलछलाए नेत्र तब्दील होते हैं  
बरसात के मौसम में
वे नहीं आते जाड़े से घबराए हुए
ये तो दिमागदारों की एक बेदिल-सी खोज भर है
वे तो उड़े चले आते हैं क्योंकि
किसी अमलतास की डाल पर मन बिंधा रह गया है
किसी हंसिनी की आँखों में जान अटक कर रह गई है
किसी झील की लहर पर एक प्यास मचलती छूट गई है
वे तो उड़े चले आते हैं क्योंकि
पिछले मौसम की कोई कसम पुकारती है
कोई छूटा हुआ साथी मुसलसल याद आता है
मन्नत का वो लाल धागा बारहा कसकता है
वे तो उड़े चले आते हैं क्योंकि
सुंदर मौसमों वाले एक नगर में झील के किनारे
उनकी बीते जन्मों की एक साथिन
उनकी प्रतीक्षा में बैठी कविताएँ लिखती है...

- पल्लवी त्रिवेदी
-----------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 10 जुलाई 2024

अद्वैत

बहुत
दिनों बाद
मैंने सींचा पौधों को
आश्वस्त
हुआ मैं
कि आश्वस्त हुए पौधे।

- परमेन्द्र सिंह 
---------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 9 जुलाई 2024

अनुपस्थित

मैंने उसे बोलते सुना है
उसकी अनुपस्थिति में
जबकि उपस्थित होते हुए 
वह अक्सर ख़ामोश ही रहा है
उपस्थित देह बड़ी मामूली बात होती है
अनुपस्थिति में आदमी ज़्यादा ठोस तरीकों से उपस्थित होता है
अनुपस्थिति में सुने जा सकते हैं उन शब्दों के अर्थ 
जो जल्दबाज़ी में बोल भर दिए गए
पढ़े जा सकते हैं इत्मीनान से चेहरे के वो भाव 
जो उसके जाने के बाद मेज़ पर किताब की तरह छूटे रह गए
महसूस की जा सकती है 
स्मृतियों की संतरे के छिलके-सी गंध देर तक
उसे भी यूँ ही ज़्यादा देखा, ज़्यादा जाना, ज़्यादा सुना मैंने
साकार उपस्थिति का एक दिन देता है 
कई दिन निराकार उपस्थिति के
यूँ ही आते रहा करो दोस्त 
जाते रहने के लिए

- पल्लवी त्रिवेदी
------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 8 जुलाई 2024

गति

यहाँ कोई गति नहीं पा सकता
बिना शुल्क दिए
चाहे वह रोहित ही क्यों न हो
देना ही होगा
शुल्क तुम्हें
शैव्या!
चाहे वह फटा वस्त्र ही क्यों न हो
यही आदेश है
इसी का पालन कर्तव्य है।
किसे मिलती है गति
बिना शुल्क दिए
कहाँ जलता है शव
कहाँ करता है जीव
अंतरिक्ष गमन
बिना शुल्क दिए।
चुकाना ही होगा कर
जो निर्धारित है
मुझसे विवाद अकारथ है
विवाद से नहीं चलतीं व्यवस्थाएँ
वे अनुगमन से ही जीवित हैं
विवाद से मनुष्य जीता है
लेकिन गति नहीं पाता।
कोई नहीं पाता गति
बिना शुल्क दिए
वह तुम्हें चुकाना ही होगा।

- पुरुषोत्तम अग्रवाल 
----------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 7 जुलाई 2024

नदी किनारे

नदी किनारे
बैठ रेत पर
घने कदंब के तले
होगे बजा रहे
वंशी
तुम मेरे प्रिय साँवले
एक हाथ से दिया बारूँ
एक हाथ से आँखें पोंछूँ
सोचूँ
मुझसे भी होंगे क्या
बिरह ताप के जले

- ठाकुरप्रसाद सिंह
--------------------

हरप्रीत सिंह के सौजन्य से 

शनिवार, 6 जुलाई 2024

बारिश

बारिश का होना केवल काले बादलों से बूँदों का गिरना थोड़े ही है
बूँदें बारिश नहीं होतीं
वे तो बारिश लाती हैं
बताऊँ, क्या होते हैं बारिश के मायने...

धड़कनों का मोर बन जाना है बारिश
बदन का मुस्कराहट बन जाना है बारिश
आँखों का जुगनू बन जाना है बारिश
बाहों का झप्पी बन जाना है बारिश
सड़कों का संतूर बन जाना है बारिश
पहाड़ों को कहवे की तलब उठना है बारिश
नदियों की गुल्लक भर जाना है बारिश
जंगलों का किलकारी बन जाना है बारिश
रांझों का जोगी हो जाना है बारिश
हीरों का नटनी हो जाना है बारिश
ख़ुदा के पैरहन का कच्चा हरा रंग छूट जाना है बारिश
रातों का झींगुर हो जाना है बारिश
धरती का खुशबू हो जाना है बारिश
सूरज का एक झपकी मार लेना है बारिश
रेनकोट के भीतर तरबतर हो जाना है बारिश
यादों की इक सूखी पत्ती का हरिया जाना है बारिश
आसमान का टिप-टिप हो जाना है बारिश
शहरों का छप-छप हो जाना है बारिश
मौसम का रिमझिम हो जाना है बारिश
रागों का घन-घन हो जाना है बारिश
नज़्मों के चेहरों पर बूँदों का झिलमिलाना है बारिश
सीले ख़्वाबों का सुलग उठना है बारिश
मन का सबसे कच्चा कोना रिसने लगना है बारिश
बूढ़ी पृथ्वी के जोड़ों में इक कसक है बारिश
पुराने एल्बम पलटना है बारिश
ड्राफ्ट्स में सहेजा एक ख़त दसियों बार पढ़ना है बारिश
गुलज़ार, पंचम और ब्लैक कॉफ़ी है बारिश
छतरी ठेले से टिका भुट्टे खाना है बारिश
और
तुम्हारा हौले से मेरा माथा चूम लेना है बारिश

- पल्लवी त्रिवेदी 
-----------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

नीड़ का निर्माण फिर-फिर

नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर!

वह उठी आँधी कि नभ में छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने भूमि को इस भाँति घेरा,
रात-सा दिन हो गया, फिर रात आ‌ई और काली,
लग रहा था अब न होगा इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्पात-भय से भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर!

वह चले झोंके कि काँपे भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित घोंसलों पर क्या न बीती,
डगमगा‌ए जबकि कंकड़, ईंट, पत्थर के महल-घर;
बोल आशा के विहंगम, किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता गर्व से निज तान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर!

क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के कंठ में खग पंक्ति गाती;
एक चिड़िया चोंच में तिनका लि‌ए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन उनचास को नीचा दिखाती!
नाश के दुख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टि का नव गान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर!

- हरिवंशराय बच्चन
---------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 4 जुलाई 2024

बूँदें

बरसती हैं बूँदें
झूमते हैं पत्ते
पत्ता-पत्ता जी रहा है
पल पल को
आने वाले कल से बेख़बर

- कुसुम जैन
--------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 3 जुलाई 2024

अश्वमेध

तुम बहुत सरपट दौड़े हो
थोड़ा ठहर जाओ
न, तुम नहीं थके,
जानता हूँ
लेकिन तुम्हारी दौड़ ने बहुतों को कुचला है
ठहर जाओ।

तुम्हारी रगों में फड़कती बिजली
तुम पर नहीं
दूसरों पर गिरती है
कोई वल्गा नहीं तुम्हारे मुँह में
फिर भी तुम्हारी पीठ खाली नहीं
वहाँ सवार है पताका
जिसकी फहराती नोंक
तुम्हें नहीं दूसरों को चुभती है
ठहर जाओ।

तुम पूजित हो, अलंकृत हो
ऊर्जा तुममें छटपटाती है
सारी दूब को रौंदकर जब तुम लौटोगे
बिना थके भूमंडल को नाप लेने के
उन्माद से काँपते, सिर्फ़, सिर्फ़ उत्तेजना के कारण
हाँफते
तब तुम्हें काट डालेंगे
वे ही लोग – जिनके लिए तुम दौड़े थे।

वे काट डालेंगे
तुम्हारा प्रचंड मस्तक।
तुम्हारा मेध
उनका यज्ञ है।

-  पुरुषोत्तम अग्रवाल
-----------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 2 जुलाई 2024

छंद

मैं सभी ओर से खुला हूँ 
वन-सा, वन-सा अपने में बंद हूँ 
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी 
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।

- अज्ञेय
--------

संपादकीय चयन 

सोमवार, 1 जुलाई 2024

जीवन दीप

मेरा एक दीप जलता है।
अँधियारों में प्रखर प्रज्ज्वलित,
तूफ़ानों में अचल, अविचलित,
यह दीपक अविजित, अपराजित।
मेरे मन का ज्योतिपुंज
जो जग को ज्योतिर्मय करता है।
मेरा एक दीप जलता है।
सूर्य किरण जल की बूंदों से
छन कर इंद्रधनुष बन जाती,
वही किरण धरती पर कितने
रंग बिरंगे फूल खिलाती।
ये कितनी विभिन्न घटनाएँ,
पर दोनों में निहित
प्रकृति का नियम एक है,
जो अटूट है।
इस पर अडिग आस्था मुझको
जो विज्ञान मुझे जीवन में
पग पग पर प्रेरित करता है।
मेरा एक दीप जलता है।
यह विशाल ब्रह्मांड
यहाँ मैं लघु हूँ
लेकिन हीन नहीं हूँ।
मैं पदार्थ हूँ
ऊर्जा का भौतिकीकरण हूँ।
नश्वर हूँ,
पर क्षीण नहीं हूँ।
मैं हूँ अपना अहम‌
शक्ति का अमिट स्रोत, जो
न्यूटन के सिद्धांत सरीखा
परम सत्य है,
सुंदर है, शिव है शाश्वत है।
मेरा यह विश्वास निरंतर 
मेरे मानस में पलता है।
मेरा एक दीप जलता है।

- विनोद तिवारी
----------------

अनूप भार्गव के सौजन्य से