रविवार, 28 सितंबर 2025

ज़ख़्म ज़माने से मिले

 दाग़ दुनिया ने दिए ज़ख़्म ज़माने से मिले 

हम को तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले 

हम तरसते ही तरसते ही तरसते ही रहे 

वो फ़लाने से फ़लाने से फ़लाने से मिले 

ख़ुद से मिल जाते तो चाहत का भरम रह जाता 

क्या मिले आप जो लोगों के मिलाने से मिले 

माँ की आग़ोश में कल मौत की आग़ोश में आज 

हम को दुनिया में ये दो वक़्त सुहाने से मिले 

कभी लिखवाने गए ख़त कभी पढ़वाने गए 

हम हसीनों से इसी हीले बहाने से मिले 

इक नया ज़ख़्म मिला एक नई उम्र मिली 

जब किसी शहर में कुछ यार पुराने से मिले 

एक हम ही नहीं फिरते हैं लिए क़िस्सा-ए-ग़म 

उन के ख़ामोश लबों पर भी फ़साने से मिले 

कैसे मानें कि उन्हें भूल गया तू ऐ 'कैफ़' 

उन के ख़त आज हमें तेरे सिरहाने से मिले 

      

- कैफ़ भोपाली

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-हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 



शनिवार, 27 सितंबर 2025

अब इसे छोड़ के जाना

अब इसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम

और घर  इतना  पुराना भी नहीं चाहते हम

सर भी  महफूज़  इसी में  है  हमारा लेकिन

क्या करें सर को झुकाना भी नहीं चाहते हम

हाथ और पांव किसी के हों किसी का सर हो

इस तरह क़द को बढ़ाना भी नहीं चाहते हम

अपनी ग़ैरत के लिए फ़ाक़ा कशी भी मंज़ूर

तेरी  शर्तों पे  ख़ज़ाना  भी  नहीं चाहते  हम

आंख जब दी है नज़ारे भी आता कर यारब

एक  कमरे  में  ज़माना  भी  नहीं चाहते हम


 -  हसीब सोज़

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


 

गुरुवार, 25 सितंबर 2025

हाइकु

० बात सबसे
   करते हैं, मगर
   मन की नहीं

० अकेली तो हूँ
   मगर भीड़ को भी
   ओढ़ लेती हूँ

० विश्वास टूटा
   मानवता का एक
   पाठ पा लिया

० भोग्या - नारी
    विज्ञापन जग के
    नशे से बचो 

० माँ ने भी जब
   छोटी बात बनाई
   लगी पराई

- ऋतु पल्लवी 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 24 सितंबर 2025

फूल अगर कुम्हलाएँगे

फूल अगर कुम्हलाएँगे
गुंचे फिर खिल जाएँगे

कितनी अच्छी बस्ती है
हम भी घर बनवाएँगे

हाथ तुम्हारा थामा है
अब तो साथ निभाएँगे

अपना दुख मत कहना तुम
सुनकर लोग चिढ़ाएँगे

भीगी आँखों ने पूछा
कब तक धुआँ उड़ाएँगे

- एम आई ज़ाहिर
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 23 सितंबर 2025

आँगन से होकर आया है

सारा वातावरण तुम्हारी साँसों की खुशबू से पूरित,
शायद यह मधुमास तुम्हारे आँगन से होकर आया है।

इससे पहले यह मादकता, कभी न थी वातावरणों में,
महक न थी ऐसी फूलों में, बहक नहीं थी आचरणों में,
मन में यह भटकाव, न मौसम में इतना आवारापन था,
मस्ती का माहौल नहीं था, जीवन में बस खारापन था,
लेकिन कल से अनायास ही मौसम में इतना परिवर्तन,
शायद यह वातास तुम्हारे मधुबन से होकर आया है।

आज न जाने अरुणोदय में, शबनम भी सुस्मित सुरभित है,
किरणों में ताज़गी सुवासित कलियों का मस्तक गर्वित है,
आकाशी नीलिमा न जाने क्यों कर संयम तोड़ रही है,
ऊषा का अनुबंध अजाने पुलकित मन से जोड़ रही है,
ऐसा ख़ुशियों का मौसम है, बेहोशी के आलम वाला,
शायद पुष्पित हास तुम्हारे गोपन से होकर आया है।

मेरे चारों ओर तुम्हारी ख़ुशियों का उपवन महका है,
शायद इसीलिए बिन मौसम मेरा मन पंछी चहका है,
मलयानिल चंदन के बन से खुशबू ले अगवानी करता,
उन्मादी मधु ऋतु का झोंका सबसे छेड़ाखानी करता,
सिंदूरी संध्या सतवंती साज सँवारे मुस्काती है,
यह चंदनी सुवास तुम्हारे उपवन से हो कर आया है।

- कृष्ण मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 22 सितंबर 2025

लिखो!

एक ने कहा लिखो भजन सूर-मीरा-से

दूजी ने कहा लिखो प्यानो के लिए गीत- 
बाब डिलन, प्रेस्ले, बैज जैसे गाते हैं।

तीसरी ने कहा लिखो कुछ जो हम समझ सकें।

चौथे ने कहा लिखो घोषणा-पत्र।

पंचम ने कहा लिखो जंग, आग, इंक़लाब।

कहा कवि त्रिलोचन ने लिखो वाक्य पूरा।

- गिरधर राठी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 21 सितंबर 2025

हाइकु

1. नभ में पंछी
    सागर - तन मीन
    कहाँ बसूँ मैं?

2. कितना लूटा 
    धन संपदा यश
    घर न मिला

3. चंदन - सांझ
    रच बस गई है 
    मन खाली था

4. स्याही से मत
    लिखो, रचनाओं को 
    मन उकेरो

5. बच्चे को मत
    पढ़ाओ तुम, मन 
    उसका पढ़ो

- ऋतु पल्लवी 
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 20 सितंबर 2025

सारंगी

जब तारों पर
हड्डियाँ रगड़ता है बजवैया

तब फूटता है
कोई स्वर
सारंगी का

- कुमार मंगलम
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

इस्लाह

हमें भी एक दिन
एक दिन हमें भी
देना होगा जवाब
इसलिए
लिखें अगर डायरी
सही-सही लिखें
और अगर याचिका लिखनी है
लिखें समझ-बूझकर


लेकिन अगर चैन न हो हमारा आराध्य
और हम रह सकें बिना अनुताप के
तब न करें स्याह ये
धौले-उजले पन्ने!

- गिरधर राठी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

गुरुवार, 18 सितंबर 2025

मन में सपने अगर नहीं होते

मन में सपने अगर नहीं होते
हम कभी चाँद पर नहीं होते

सिर्फ़ जंगल में ढूँढते क्यूँ हो
भेड़िये अब किधर नहीं होते

कब की दुनिया मसान बन जाती
इस में शाइ'र अगर नहीं होते

किस तरह वो ख़ुदा को पाएँगे
ख़ुद से जो बे-ख़बर नहीं होते

पूछते हो पता ठिकाना क्या
हम फ़क़ीरों के घर नहीं होते

- उदय भानु हंस
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 17 सितंबर 2025

घूम रहा है तन्हा चाँद

यादों की आबाद गली में 
घूम रहा है तन्हा चाँद 

इतने घने बादल के पीछे 
कितना तन्हा होगा चाँद 

आँसू रोके नूर नहाए 
दिल दरिया तन सहरा चाँद 

इतने रौशन चेहरे पर भी 
सूरज का है साया चाँद 

जब पानी में चेहरा देखा 
तूने किस को सोचा चाँद 

बरगद की इक शाख़ हटाकर 
जाने किस को झाँका चाँद 

बादल के रेशम झूले में 
भोर समय तक सोया चाँद 

रात के शाने पर सर रक्खे 
देख रहा है सपना चाँद 

सूखे पत्तों के झुरमुट पर 
शबनम थी या नन्हा चाँद 

हाथ हिलाकर रुख़सत होगा 
उसकी सूरत हिज्र का चाँद 

सहरा-सहरा भटक रहा है 
अपने इश्क़ में सच्चा चाँद 

- परवीन शाकिर
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विजया सती की पसंद 

मंगलवार, 16 सितंबर 2025

उदास हो चला गया वसंत

इस हाथ से
उस हाथ के लिए कविता
जिसे थामना था
इस शहर के
कोलाहल के ठीक बीचोबीच
मगर इस बार भी उदास ही
चला गया वसंत

बादलों ने घेर लिया
तुम्हारी आँखों में
चमकते सूरज और चाँद को
काश थोड़ी भी शर्म होती
इन ज़ुल्फ़ों में
होंठों पर तैरती नदी
आज उदास थी
तुम्हारे चेहरे के आब में
डूबता रहा वर्ष भर
कि पँखुड़ियाँ थोड़ी और नम हो जातीं
सूख गए कुएँ, तालाब भी सूख गया
सूख रही नदी, सूख चुकी ख़रीफ़
और अब रबी भी उसी राह पर
चाहे कितना भी ओढ़ लो नक़ाब
भीतर का सूखा आख़िर बाहर कब तक हरा रहेगा
खोजते रहो पृथ्वी के बाहर भी
पानी और पहाड़
जीवन को बचाने के लिए कुछ और चाहिए

अपने मस्तक पर ढोती तोपों से
चूल्हे की आग नहीं बचाई जा सकती।

- रविशंकर उपाध्याय
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रविवार, 14 सितंबर 2025

सबसे सुंदर

सबसे सुंदर समुद्र 
अभी तक लांघा नहीं गया 

सबसे सुंदर बच्चा
अभी बड़ा नहीं हुआ 

हमारे सबसे सुंदर दिन
अभी देखे नहीं हमने 

और सबसे सुंदर शब्द 
जो मैं तुमसे
कहना चाहता था 
अभी कहे नहीं मैंने 

- नाज़िम हिक़मत
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 13 सितंबर 2025

लौटना

जाने के कई रास्ते होते हैं 
लौटने का सिर्फ एक रास्ता होता है 
रास्तों को खुशबू से पहचानना पड़ता है 
खुशबू पहचानने के लिए 
वक्त की देह से लिपट जाना पड़ता है 
अगर खुशबू को नहीं पहचान पाए 
तो लौटना मुश्किल हो जाता है 

- श्रीधर करुणानिधि 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

आज़ादी

सुनो भइया, 
कितनी सुंदर होती है वह आज़ादी 
जो केवल अपने लिए होती है

सुनो भइया, 
कितनी सुंदर होती है वह बहस 
जिसमें निर्णय तो लिए जाएँ 
पर न किया जाए उन्हें लागू किसी के हित में

सुनो भइया, कितनी सुंदर होती है वह दुनिया 
जिसमें हम दिन-रात सपने देखें 
सबकी बराबरी के 
मगर जागते हुए मौन रह जाएँ 
बराबरी के सवाल पर

सुनो भइया, 
कितने सुंदर होती हैं वे औरतें 
जो दहलीज़ फाँद जाती हैं 
पर घर की औरत रहे दहलीज़ में 
इसके लिए करते हैं प्राण-प्रण 
पूरी कोशिश।

- अनिता भारती 
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विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 11 सितंबर 2025

नमक

था तो चुटकी भर ज़्यादा 
लेकिन पूरे स्वाद पर उसी का असर है 
सारी मेहनत पर पानी फिर गया 

अब तो जीभ भी इंकार कर रही है 
उसे नहीं चाहिए ऐसा स्वाद जो 
उसी को गलाने की कोशिश करे

ग़लती नमक की भी नहीं है 
उसने तो सिर्फ़ यही जताया है कि 
चुटकी-भर नमक भी क्या कर सकता है 

- शंकरानंद
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विजया सती की पसंद 

बुधवार, 10 सितंबर 2025

ज़िंदगी को जिया मैंने

ज़िंदगी को जिया मैंने 
इतना चौकस होकर 
जैसे नींद में भी रहती है सजग 
एक चढ़ती उम्र की लड़की 
कि उसके पैरों से कहीं चादर न उघड जाए

- अलका सिन्हा
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 9 सितंबर 2025

फूल-सा बिखरना

जैसे फूल बिखेरता है 
अपनी पँखुड़ियाँ धरती पर 
बिखेरता हूँ मैं 
तुम पर अपने को 
ठीक वैसे ही 

फिर समेट नहीं पाता हूँ अपने को ही 
जैसे समेट नहीं पाता फूल 
अपनी बिखरी पँखुड़ियाँ 
और फिर 
फूल नहीं रह पाता है फूल 

- आनंद हर्षुल 
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 8 सितंबर 2025

दोस्त

जिन्हें
कहती है दुनिया दोस्त
चुटकियों में नहीं बनते

पहचाने जा सकते हैं
चुटकियों में

पड़ जाते है जो
एक ही आँच में लाल
दुनिया उन्हें
दोस्त नहीं मानती

दोस्ती
धीरे-धीरे तपती है
और
तपती ही जाती है
फिर पकती है कहीं
करोड़ों पलों के
मौन से गुज़रकर

मैं भी धीरे-धीरे
पकना चाहता हूँ।

- अनिल करमेले
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 7 सितंबर 2025

ब्याहताएँ

देहरी लीपकर मांड आई हूँ मांडना
ताकि बनी रहे संसबरक्कत घर में 
चुन पछोरकर 
अनाज भर दिया है कोठी में 
कि मेरी अनुपस्थिति में भी 
कुछ रोज़ ज्योनार बन सके आसानी से

देखो न बाबा
भोर से संध्या हो गई है 
लेस दिया है लालटेन और 
लटका आई हूँ बूढ़े बरगद की डालियों पर 
ताकी अँधेरे में वो खूसट 
अपनी जटाओं से डराए नहीं 
राहगीरों को 

चलो न बाबा 
निपटा आई हूँ सारे काम 
अब ले चलो न अपने घर 
गोधूलि से पहले ही 
क्योंकि 
ब्याहताएँ अँधेरे में विदा नहीं होती 

- अपराजिता अनामिका 
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 6 सितंबर 2025

सुंदर

जो सुंदर था 
गतिमान भी था वही
पकड़ा न गया

पकड़ा गया मैं 
जकड़ा गया

- वीरेन डंगवाल 
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

सौ-सौ सूरज

रात के
गहन अँधेरे में
सूरज
अपना वादा
तोड़कर
चाँद को
यूँ अकेला
छोड़कर
चल दिया

नज़र के
आसमान से दूर
देखता रहा
चाँद
उसके मिटते
निशान को
हर पल
मद्धम हो रहे
उसके प्रकाश को

उसके हर
क़दम के साथ
उसने
एक उम्मीद बाँधी
अपने प्रेम की
बेड़ी के साथ
उसके
क़दमों के नीचे
सपनों की नींव डाली

वो कदम
तो नहीं लौटे
जो उस रात
नहीं रूके थे
लेकिन
सपनों के बीजों से
एक घना पेड़
उग आया
जिस पर
एक नहीं
सौ-सौ सूरज उगे थे

- किरण मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

मेरी भाषा

मेरी भाषा
कक्षा में पढ़ाई जाने वाली कोई भाषा नहीं थी
वो न तो हिंदी थी
न अँग्रेज़ी
न संस्कृत की तरह अभिजात
न उर्दू जितनी चाशनी लिपटी हुई

वो भाषा थी मेरी माँ के झुँझलाने की
पानी गिरा हो और उसने कहा हो कि
“ध्यान कहाँ है तेरा?”
वो भाषा थी पिता की खामोशी की
जिसमें तंबाकू की गंध
और थकान की चुप्पी लिपटी रहती थी

मेरी भाषा वह थी
जिसमें दादी ने पहली बार मुझे डाँटा था 
“तू फिर खेल में लगी है!”
और फिर उसी में
थाली खिसकाकर चुपचाप खाना परोस दिया था

जिसमें मेरी बहन ने पहला झूठ बोला
'ठीक हूँ'
और फिर बहुत देर तक रोती रही

मेरी भाषा की कोई लिपि नहीं थी
वो आँखों की कोर से फिसलती रही
रसोई के चूल्हे से उठती रही
छत पर सूखते कपड़ों के बीच फड़फड़ाती रही

जब मैंने किताबों में भाषा पढ़ी
तो जाना
मेरी भाषा को अपशब्द कहते हैं
मेरे मुहावरे अशिष्ट हैं
मेरी बोली गँवारू है

तब मैं चुप हो गई 
शब्दों को रुई की तरह दबाकर रखने लगी
कि कहीं कोई सुन न ले
मेरी असल भाषा

लेकिन जब मैंने पहली बार प्यार किया
तो वो भी मेरी भाषा में हुआ
जिसमें ‘हाँ’ कहना
‘जा’ कहने जितना तीखा था
और 'रुक' कहना
मिट्टी जैसी कोमलता लिए होता था

अब मैं अपनी भाषा में लिखती हूँ 
बिना किसी व्याकरण
बिना किसी अनुवाद के
जिसे जो समझना है समझे

मेरी भाषा
मेरे जैसी है 
थोड़ी टूटी
थोड़ी रूखी
पर पूरी तरह सच्ची।

- मालिनी गौतम
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विजया सती की पसंद 

बुधवार, 3 सितंबर 2025

जिनकी भाषा में विष था

जिनकी भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुख था

दुखों के पीछे अपेक्षाएँ थीं
अपेक्षाओं में दौड़ थी
दौड़ने में थकान थी
थकान से हताशा थी
हताशा में भाषा थी

भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुख था

- बाबुषा कोहली 
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

बहनें

जब बाप गरज रहे होते हैं 
बाप जैसे 

माँ रो रही होती है 
माँ जैसी 

भाई खड़े रहते हैं 
भाई जैसे 

तब 
कुछ भाई
कुछ माँ 
कुछ बाप जैसी 
प्रार्थना में 
झुकी रहती हैं 
बहनें 

- विनोद कुमार श्रीवास्तव 
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 1 सितंबर 2025

कविता के अरण्य में

यदि तुम देख सको
कविता में उगता है एक पेड़
उस पर बैठती है एक नन्हीं चिड़िया
यदि तुम सुन सको
यहाँ बहती है एक नदी
अपने ही दुखों से सिहरती

कविता के अरण्य में 
कवि बहुत हैं
मनुष्य तुम्हें खोजने होंगे।

- रश्मि भारद्वाज 
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विजया सती की पसंद