मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

कभी-कभी

कभी-कभी हम बेसबब खुश होते हैं
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर
अनगिन फूल खिले हैं 
तितलियाँ मँडरा रही हैं भँवरे झूम रहे हैं 

कभी-कभी हम बेसबब उदास होते हैं
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष के
पत्ते झर रहे हैं
और नई तीतियाँ फूट नहीं रही हैं 

कभी-कभी हम बेसबब निराश होते हैं
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर का वृक्ष सूख रहा है 
झकर चल रही है 
धधक रहा है सूर्य 
बचे-खुचे जल को उड़ाता

कभी-कभी हम बेसबब संकल्पित होते हैं
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष की जड़ें
चट्टानों को पार कर 
गहरे उतर रही हैं 
पाताल में 

कभी-कभी हम बेसबब खुरदुरे होते हैं 
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष की छाल
कड़ी दर कड़ी हो रही है हर साल 

कभी-कभी हम बेसबब स्निग्घ होते हैं 
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर आपादमस्तक
बारिशें गिर रही हैं - धीमी, मद्धम ,धारासार 
और भीतर का जल
उससे ताल मिला रहा है 

कभी-कभी हम बेसबब अकेले में हँसते हैं 
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर बैठी चिड़ियाँ
आसमान में उड़ रही हैं 
चहचहाती एक साथ

कभी-कभी हम बेसबब शांत होते हैं
समझ नहीं पाते कि
हमारे भीतर के वृक्ष के पात हिल नहीं रहे हैं
चिड़ियाँ स्तब्ध हैं
घुटा है आसमान 
गिलहरियाँ चुप हैं

कभी-कभी हम बेसबब मन ही मन रोते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर 
कोई
कुल्हाड़ी से निशान कर गया है
जड़ों में मट्ठा डाल गया है

- विनोद पदरज।
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विजया सती के सौजन्य से 

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