समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर
अनगिन फूल खिले हैं
तितलियाँ मँडरा रही हैं भँवरे झूम रहे हैं
कभी-कभी हम बेसबब उदास होते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष के
पत्ते झर रहे हैं
और नई तीतियाँ फूट नहीं रही हैं
कभी-कभी हम बेसबब निराश होते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर का वृक्ष सूख रहा है
झकर चल रही है
धधक रहा है सूर्य
बचे-खुचे जल को उड़ाता
कभी-कभी हम बेसबब संकल्पित होते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष की जड़ें
चट्टानों को पार कर
गहरे उतर रही हैं
पाताल में
कभी-कभी हम बेसबब खुरदुरे होते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष की छाल
कड़ी दर कड़ी हो रही है हर साल
कभी-कभी हम बेसबब स्निग्घ होते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर आपादमस्तक
बारिशें गिर रही हैं - धीमी, मद्धम ,धारासार
और भीतर का जल
उससे ताल मिला रहा है
कभी-कभी हम बेसबब अकेले में हँसते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर बैठी चिड़ियाँ
आसमान में उड़ रही हैं
चहचहाती एक साथ
कभी-कभी हम बेसबब शांत होते हैं
समझ नहीं पाते कि
हमारे भीतर के वृक्ष के पात हिल नहीं रहे हैं
चिड़ियाँ स्तब्ध हैं
घुटा है आसमान
गिलहरियाँ चुप हैं
कभी-कभी हम बेसबब मन ही मन रोते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर
कोई
कुल्हाड़ी से निशान कर गया है
जड़ों में मट्ठा डाल गया है
- विनोद पदरज।
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विजया सती के सौजन्य से
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