युग की संध्या कृषक वधु-सी
किसका पंथ निहार रही?
उलझी हुई समस्याओं-सी
बिखरी लटें सँवार रही!
धूलि धूसरित अस्त-व्यस्त वस्त्रों की
शोभा मन मोहे,
माथे पर रक्ताभ चंद्रमा की
सुहाग-बिंदिया सोहे,
उचक-उचक ऊँची खूँटी से
नया सिंगार उतार रही!
रँभा रहा है बँधा-बँधा बछड़ा
बाहर के आँगन में,
गूँज रही अनुगूँज भूख की
युग की संध्या के मन में!
जंगल से आती सुमंगला धेनु
सुदूर पुकार रही!
युग की संध्या कृषक वधु-सी
किसका पंथ निहार रही?
जाने कब आएगा मालिक,
मनोभूमि का हलवाहा?
कब आएगा युग-प्रभात,
जिसको युग-संध्या ने चाहा?
सूने छाया-पथ पर संध्या
लोचन-तारक वार रही!
युग की संध्या कृषक वधु-सी
किसका पंथ निहार रही?
- नरेंद्र शर्मा।
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संपादकीय चयन
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