बुधवार, 27 दिसंबर 2023

युग की संध्या

युग की संध्या कृषक वधु-सी 
किसका पंथ निहार रही? 
उलझी हुई समस्याओं-सी 
बिखरी लटें सँवार रही! 

धूलि धूसरित अस्त-व्यस्त वस्त्रों की 
शोभा मन मोहे, 
माथे पर रक्ताभ चंद्रमा की 
सुहाग-बिंदिया सोहे, 
उचक-उचक ऊँची खूँटी से 
नया सिंगार उतार रही! 

रँभा रहा है बँधा-बँधा बछड़ा 
बाहर के आँगन में, 
गूँज रही अनुगूँज भूख की 
युग की संध्या के मन में! 
जंगल से आती सुमंगला धेनु 
सुदूर पुकार रही! 

युग की संध्या कृषक वधु-सी 
किसका पंथ निहार रही? 

जाने कब आएगा मालिक, 
मनोभूमि का हलवाहा? 
कब आएगा युग-प्रभात, 
जिसको युग-संध्या ने चाहा? 
सूने छाया-पथ पर संध्या 
लोचन-तारक वार रही! 

युग की संध्या कृषक वधु-सी 
किसका पंथ निहार रही?

- नरेंद्र शर्मा।
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संपादकीय चयन 

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