जब-जब खिला मेहल
देखते रहे बंजर खेत
चोर भँवरों ने चखा
उसके माखनी फूलों का पराग
शहद हुआ डिब्बाबंद
उपेक्षित पड़ा रहा पहाड़ और मेहल
जलावन था मेहल
माखनी फूलों का यह बेनाम गुलदस्ता
वसंत के दिनों पहाड़ों को चूमता हुआ
सबसे मटमैले पहाड़ों को बहुरंग बनाता हुआ
सबसे पथरीली ज़मीनों पर उठ खड़ा हुआ
हुलसते नई उम्र के
युवाओं की तरह उपेक्षित
जिनके सारे स्वप्न बेचकर
काट कर जिनका आसमान
जिसके तनों पर रोप दी गई
मुनाफ़े वाली उन्नत फलों की किस्में
अपनी ज़मीनों पर
अपने ही तनों
अपनी जड़ों पर
कलम कर दिया गया
मेहल का पेड़
बावजूद
सरकारें बदली
फिर बदली
फिर-फिर बदली
फिर खिला
फिर-फिर खिला मेहल
- अनिल कार्की।
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विजया सती के सौजन्य से
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