शुक्रवार, 15 दिसंबर 2023

जाल फेंक रे मछेरे

एक बार और जाल 
फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में 
बंधन की चाह हो!

सपनों की ओस 
गूँथती कुश की नोक है 
हर दर्पण में
उभरा एक दिवालोक है।

रेत के घरौंदों में
सीप के बसेरे
इस अंधेर में 
कैसे नेह का निबाह हो!

उनका मन आज हो गया 
पुरइन पात है 
भिंगो नहीं पाती' 
यह पूरी बरसात है

चंदा के इर्द-गिर्द 
मेघों के घेरे 
ऐसे में क्यों न 
कोई मौसमी गुनाह हो!

गूंजती गुफाओं में 
पिछली सौगंध है 
हर चारे में 
कोई चुंबकीय गंध है 

कैसे दे हंस 
झील के अनंत फेरे 
पग-पग पर लहरें 
जब बाँध रही छाँह हों! 

कुंकुम-सी निखरी 
कुछ भोरहरी लाज है
बंसी' की डोर
बहुत काँप रही आज है 

यों ही ना तोड़ अभी
बीन रे सँपेरे!
जाने किस नागिन में
प्रीत का उछाह हो!

- डॉ० बुद्धिनाथ मिश्र।
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विजया सती के सौजन्य से 

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