गुरुवार, 31 जुलाई 2025

गज़ल

वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नए किरदार में है

खुशी के साथ ग्लोबल आपदाएँ
भई खतरा तो हर व्यापार में है

नहीं समझेगा कोई दर्द तेरा
तड़पना, टूटना बेकार में है

कोई उम्मीद हो जिसमें, खबर वो 
बताओ क्या किसी अखबार में है

घरों में आज सूनापन है केवल 
यहाँ रौनक तो बस बाज़ार में है

- विनय मिश्र

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संपादकीय चयन 

बुधवार, 30 जुलाई 2025

शहर के दोस्त के नाम पत्र

हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं

बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं

अभ्रक और कोयला तो 

थोक और खुदरा दोनों भावों से 

मंडियों में रोज सजाए जाते हैं


यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी

फूल की तरह खिलते हैं

इन्हें बेचने के लिए 

सैनिकों के स्कूल खुले हैं, 

शहर के मेरे दोस्त

ये बेमौसम के फूल हैं

इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती

अपने जुड़े के लिए गजरे

मेरी माँ नहीं बना सकती

मेरे लिए सुकटी या दाल

हमारे यहाँ इससे कोई त्योंहार नहीं मनाया जाता

यहाँ खुले स्कूल

बारहखड़ी की जगह

बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं


बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है

मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता

यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है


कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा

उससे पहले नदी गई

अब खबरल फैल रही है कि

मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है


शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें

तो उनका ख़याल ज़रूर रखना

यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में

मैंने नमी देखी थी

और हाँ

उन्हें शहर का रीति-रिवाज भी तो नहीं आता

मेरे दोस्त उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए

अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।


- अनुज लुगुन

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-संपादकीय चयन 



मंगलवार, 29 जुलाई 2025

जो समय बदलते हैं

घड़ी की सुइयों के बीच भी

अँधेरा रहता है 

शाम होने के बाद 

वह धीरे-धीरे 

गहराने लगता है

चंद्रमा की चमक

उसकी रफ़्तार पर नहीं पड़ती

शायद इसीलिए

बहुत रात के बाद 

उसके चलने की आवाज़

और तेज हो जाती है

जैसे अपने हिस्से की 

रौशनी माँग रही हो

हालांकि वह कभी 

मिलने वाली नहीं

फिर भी बल्ब जलाने से 

घड़ी का चेहरा

खिल जाता है

जो दूसरों का समय बदलते हैं

वे ऐसे ही रौशनी के लिए

तरसते रहते हैं

अनवरत चलते हुए

एक दिन रुक जाते हैं सहसा 

चुपचाप

जैसे घड़ी बंद मिलती है

किसी सुबह।


- शंकरानंद

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संपादकीय चयन 



सोमवार, 28 जुलाई 2025

अजब सफ़र है

अजब सफ़र है 

मैं अपनी मुट्ठी से रेत बनकर फिसल रहा हूँ 

 वह रेत दामन  में भर रही है

मैं थोड़ा मुट्ठी में रह गया हूँ

मैं थोड़ा दामन में गिर चुका हूँ 

मैं बाक़ी दोनों के दरमयाँ हूँ 

मुझे यह डर है 

मैं ज्यों ही मुट्ठी को खोल दूँगा 

वह अपने दामन को झाड़ देगी

-अम्मार इक़बाल

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 27 जुलाई 2025

प्रार्थना से प्रेम

वर्षा हो 

अन्न हो

सुख हो

शांति हो

शुभ हो

सुपुत्र हों, सुपुत्रियाँ भी 

संग हो 

विवाह हो

प्रेम हो

प्रेम विवाह हो 

और तलाक न हो !


 - अविनाश मिश्र

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विजया सती के सौजन्य से

शनिवार, 26 जुलाई 2025

दुलारी धिया

पी के घर जाओगी दुलारी धिया 

लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के

सपनों का खूब सघन गुच्छा 

भुइया में रखोगी पाँव

महावर रचे

धीरे-धीरे उतरोगी 

सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया 

पोंछा बन

दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी 

कछारी जाओगी पाट पर 

सूती साड़ी की तरह

पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया 

दुलारी धिया 

छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें

उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी 

पी घर में राज करोगी दुलारी धिया 

दुलारी धिया, दिन भर 

धान उसीनने की हँड़िया बन

चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी 

अकेले में कहीं छुप के 

मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी 

सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया 

बाबा ने पूरब में ढूँढा

पश्चिम में ढूँढा

तब जाके मिला है तेरे जोग घर

ताले में कई-कई दिनों तक 

बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया 

पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन

कूटोगी धान

पुरइन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया 


पी घर से निकलोगी

दहेज की लाल रंथी पर

चित्तान लेटे

खोइछे में बाँध देगी

सास-सुहागिन, सवा सेर चावल 

हरदी का टूसा

दूब

पी घर को न बिसारना, दुलारी धिया।


 - बद्रीनारायण

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- विजया सती के सौजन्य से 


शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

अब तक नहीं लिखा

जाने क्या-क्या लिखा अभी तक

लेकिन जो लिखना था हमको, 

अब तक नहीं लिखा। 


किसने सोखे थे सपनों के 

रंग उजाले वाले, 

किसने जगा दिए निद्रा पर

चिंताओं के ताले 

किसके डर से रही काँपती,

मन की दीपशिखा

अब तक नहीं लिखा।


किसके आश्वासन से टूटी

आशाओं की हिम्मत,

किसने कर्म छीनकर हमसे

दे दी खोटी किस्मत

घोर गरीबी का यह रस्ता,

किसने दिया दिखा

अब तक नहीं लिखा।


किसने सत्य, अहिंसा मारे

किसने शांति चुराई

किसने छीनी है वाणी से

शब्दों की अँगड़ाई

भाषा के सीने पर किसने, 

आरा तेज रखा

अब तक नहीं लिखा।

 
- अश्वघोष

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- विजया सती के सौजन्य से

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

कल से प्रेम

सुबह तीन बजे उठूँगा 

तानपूरा सुनूँगा 

ध्यान करूँगा 

ऋचाएँ पढूँगा 

रहस्यों पर सोचूँगा 

सत्य को जानूँगा 

प्यार को सोने दूँगा 

उसे जगाऊँगा नहीं 

निशब्द पुकारूँगा 

काली काफी बनाऊँगा-पीऊँगा

सब कुछ बहुत धीमी गति से करूँगा 

इधर-उधर जाता रहूँगा 

केंद्र को केंद्र नहीं रहने दूँगा

इच्छाओं को शर्म से बाधित करूँगा 

जड़ता को श्रम से 

घड़ी से ज्यादा सही चलूँगा 

नई किताबें शुरू करूँगा 

नई कथाएँ 

कम काम लूँगा 

ज्यादा काम करूँगा।


 - अविनाश मिश्र

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- विजया सती के सौजन्य से

बुधवार, 23 जुलाई 2025

मेरे सुग्गे तुम उड़ना


दगा है उड़ना

धोखा है उड़ना

कोई कहे-

छल है, कपट है उड़ना


पर मेरे सुग्गे, तुम उड़ना

तुम उड़ना

पिंजड़ा हिला

सोने की कटोरी गिरा

अनार के दाने छींट

धूप में करके छेद

हवाओं की सिकड़ी बजा

मेरे सुग्गे, तुम उड़ना।


 - बद्रीनारायण

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-विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

मजदूरी से प्रेम


मैं एक मनुष्य था 

मैं एक कवि था 

मुझमें कहीं एक उपन्यासकार भी था 

लेकिन मुझमें कहीं एक मजदूर भी था


अगर यह मजदूर नहीं होता 

तब मैं भूख से मर जाता।

 

 - अविनाश मिश्र

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-विजया सती के सौजन्य से

सोमवार, 21 जुलाई 2025

मत होना उदास


कुछ जून ने बुना

कुछ जुलाई ने

नदी ने थोड़ा साथ दिया

थोड़ा पहाड़ ने

बुनने में रस्सी मूँज की।


प्रभु की प्रभुताई बाँधी जाएगी

यम की चतुराई 

हाथी का बल

सोने-चाँदी का छल बाँधा जाएगा

बाँधा जाएगा

विषधर का विष 


कुछ पाप बाँधा जाएगा

कुछ झूठ बाँधा जाएगा


रीति तुम चुप रहना

नीति मत होना उदास।


- बद्रीनारायण

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- विजया सती के सौजन्य से

रविवार, 20 जुलाई 2025

अनुकरण से प्रेम


मैंने किसी का अनुकरण नहीं किया 

जिन्होंने किसी का अनुकरण नहीं किया 

मैंने उनका अनुकरण किया


मैं मौलिक नहीं हूँ 

मैंने पूर्णविराम चुराए हैं।


 - अविनाश मिश्र

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संपादकीय चयन 


शनिवार, 19 जुलाई 2025

चौमासा

आषाढ़-सा उठाव
सावन-सा भराव
भादों-सा इकसार
आश्विन-सा अमृत-छिड़काव

चौमासे की तरह
तुम्हारे प्यार के भी
कई ढंग हैं।

- नंदकिशोर आचार्य
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गुरुवार, 17 जुलाई 2025

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में
नज़र पे चिपके हुए हैं कुछ चिकने-चिकने से रौशनी के धब्बे
जो पलकें मूँदूँ तो चुभने लगती हैं रौशनी की सफ़ेद किरचें
मुझे मेरे मखमली अँधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप्प अँधेरों के फाए रख दो
यह रौशनी का उबलता लावा न अंधा कर दे।

- गुलज़ार
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वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें

 

वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें।

उम्र की उतरन बूढ़ी आँखें।


कौन समझ पाएगा पीड़ा

ओढ़े सिहरन बूढ़ी आँखें।


जीवन के सोपान यही हैं

बचपन, यौवन, बूढ़ी आँखें।


चप्पा-चप्पा बिखरी यादें

बाँधे बंधन बूढ़ी आँखें।


टूटा चश्मा घिसी कमानी

चाह की खुरचन बूढ़ी आँखें।


एक इबारत सुख की खातिर

बाँचे कतरन बूढ़ी आँखें।


सपनों में देखा करती हैं

‘वर्षा’-सावन बूढ़ी आँखें।

 

 - वर्षा सिंह

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- संपादकीय चयन 

बुधवार, 16 जुलाई 2025

कबूतर लौटकर नभ से


कबूतर लौटकर नभ से सहमकर बुदबुदाते हैं

वहाँ पर भी किसी बारूद का

षडयंत्र जारी है


हवा में भी

बिछाया जा रहा घातक सुरंगों को

धरा से व्योम तक पहुँचा रहे

कुछ लोग जंगों को


गगन में गंध फैली है किसी नाभिक रसायन की

धरा पर दीखती विध्वंस की

व्यापक तैयारी है


वहाँ पर शांति,

सह-अस्तित्व जैसे शब्द बौने हैं

यहाँ पर सभ्यता के हाथ

एटम के खिलौने हैं


वहाँ से पंचशीलों में लगा घुन साफ़ दिखता है

मिसाइल के बटन से जुड़ गई

किस्मत हमारी है


शांति की आस्थाओं को 

चलो व्यापक समर्थन दें

युद्ध से जल रही भू को

नया उद्दाम जीवन दें


किसी हिरोशिमा की फिर कहीं न राख बन जाए

युद्ध तो युद्ध केवल युद्ध है

विध्वंसकारी है


 - जगदीश पंकज

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- संपादकीय चयन 


मंगलवार, 15 जुलाई 2025

इच्छा

 

मैंने 

हवाओं के छोर से

बाँध दिया

इच्छाओं का दामन


देखती हूँ

वे कहाँ तक जाती हैं।


 - मधु शर्मा

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संपादकीय चयन 



सोमवार, 14 जुलाई 2025

जेठ तपा मधुमास

संदर्भों के होठ सिले हैं

व्याख्या हुई उदास

किस प्रसंग की बात कर रहा

जेठ तपा मधुमास


आँगन की बौराई बिल्ली

तुलसी घेर रही

चींटी बाँध बनाकर गाए

बाढ़ तुम्हारी आस


ऐसी पुरुवा बही रात भर

बादल सुलग गए

पछुआ ने सूरज से पूछा

कहाँ रहोगे आज

    

दूब जली, मेंहदी झुलसाई

दुल्हन सेज सजी

कैसा सावन आने वाला

जिससे लगती लाज


राग गड़ रही, गीत चुभ रहे

सगुन धुआँ के गाँव

आँझ पराती आँसू-आँसू

आँख लगे नाराज

    

आना अबके लगन लगे है

अगन-मनन की ओर

रुँध गई देहरी गगन की

ऐसी है आवाज़ 


चाँद सितारे नाच न पावें

नदी न गाए गीत

झरनों ने संगीत हड़प ली

पर्वत पी गए साज

    

संदर्भों के होठ सिले हैं

व्याख्या हुई उदास

किस प्रसंग की बात कर रहा

जेठ तपा मधुमास


 - संजय तिवारी

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संपादकीय चयन 



रविवार, 13 जुलाई 2025

जहाँ सुख है

जहाँ सुख है
वहीं हम चटककर
टूट जाते हैं बारंबार 

जहाँ दुख है
वहाँ पर एक सुलगन
पिघलाकर हमें
फिर जोड़ देती है।

- अज्ञेय
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शनिवार, 12 जुलाई 2025

इसी काया में मोक्ष

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था
पिछले कई जन्मों से।

एक ऐसा आदमी जिसे पाकर
यह देह रोज़ ही जन्मे, रोज़ ही मरे
झरे हरसिंगार की तरह
जिसे पाकर मन
फूलकर कुप्पा हो जाए।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
अगर पूरी दुनिया अपनी आँखों नहीं देखी
तो भी यह जन्म व्यर्थ नहीं गया।

बहुत दिनों से मैं
किसी को अपना कलेजा
निकालकर दे देना चाहता हूँ
मुद्दतों से मेरे सीने में
भर गया है अपार मर्म
मैं चाहता हूँ कोई
मेरे पास भूखे शिशु की तरह आए
कोई मथ डाले मेरे भीतर का समुद्र
और निकाल ले सारे रतन।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही
भक्क से बर जाए आँखों में लौ
और लगे कि दीया लेकर खोजने पर ही
मिलेगा धरती पर ऐसा मनुष्य
कि पा गया मैं उसे
जिसे मेरे पुरखे गंगा में नहाकर पाते थे।

बहुत दिनों से मैं
जानना चाहता हूँ
कैसा होता है मन की सुंदरता का मानसरोवर
छूना चाहता हूँ तन की सुंदरता का शिखर
मैं चाहता हूँ मिले कोई ऐसा
जिससे मन हज़ार बहानों से मिलना चाहे।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मों के पाप मिट गए
कट गए सारे बंधन
कि मोक्ष मिल गया इसी काया में।

- दिनेश कुशवाह
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

अनुसरण

गाँधी बाबा
आप यह नहीं कह सकते कि
आपकी कोई चीज़
हमने
नहीं अपनाई,

आपकी लाठी
हमें
बहुत पसंद आई।

- देवी प्रसाद मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

स्त्री

कई नदियाँ मरती हैं 
उसके भीतर जाकर 

कोई स्त्री इतनी आसानी से 
समुद्र की तरह खारी नहीं होती 

- किरण 'मर्म'
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विजया सती की पसंद

बुधवार, 9 जुलाई 2025

होते आए घड़े अछूत

होते आए घड़े अछूत
बुझी नहीं है अब तक प्यास
इस जड़ता की जय!

रहे बजाते ताली-थाली
डाल बुद्धि पर ताला
नहीं करेंगे साफ़, क़सम ली
जाति-धर्म का जाला

हमने पाले अहम अकूत
भेद-भाव के इसी अनय पर
टूटी जीवन-लय!

दुत्कारों के वही कथानक
गिने-चुने निर्देशक
पीढ़ी-दर-पीढ़ी झेली हैं
पीड़ाएँ बन याचक

दर्द नहीं यह सद्य प्रसूत
एक घड़ा क्या सबके मालिक
इसका क्या आशय!

- अनामिका सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

विरासत

वो कहानियाँ सुनाती थी 
जाने क्या था उसके सुनाने में 
आज तक कानों में सुनाई दे रही हैं 

जब कहती मैं, अरे इत्ती छोटी, और सुनाओ 
तो वह कहती, 
असली कहानी, कहानी कह देने के बाद शुरू होती है और कभी ख़त्म नहीं होती 

जैसे चाँद निकलता है बादलों की ओट से 
हर बार पूरा ताज़ा और भरपूर सफ़ेद 

ज्यों-ज्यों उम्र बीत रही है 
परतें खुलती चली जा रही हैं 
समझ आता है, सही कहती थी वह

शेर-चूहे की कहानी में
बात शेर की नहीं, चूहे की नहीं 
शेर और चूहा होने की थी 
शेर बस शेर ही नहीं, चूहा भी था - जब जाल में था 
चूहा, चूहा ही नहीं, शेर भी था - जब जाल कुतर रहा था 
समय था, समय का फेर था 

रानी सुरुचि ने ध्रुव को उसके पिता की गोद से उतारा 
माँ सुनीति विकल नहीं हुई 
बोली, पिता की गोद से भी बड़ी गोद है
तपस्या से मिलेगी 
सुनीति जानती थी, 
श्रम से अर्जित किया हुआ स्थान कोई छीन नहीं सकता 
ध्रुव है- स्थिर, अटल 
श्रम का प्रतिफल है 

कबूतर फँस गए थे 
और मिलकर ले उड़े थे जाल
साथ उड़ने के लिए फँसना शर्त नहीं 
साथ उड़ पाना कला है, हासिल है 

कमाल यह नहीं था कि अर्जुन ने लक्ष्य भेद दिया 
वह तो कौशल था
कमाल यह था कि उसे अपना लक्ष्य पता था 

वह नहीं है अब 
उसकी परतदार कहानियाँ हैं 
उसकी कहानियों के क़िरदार
मेरी विरासत हैं

- ऋचा जैन
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अनूप भार्गव की पसंद 

सोमवार, 7 जुलाई 2025

विश्वरूप

मत मर्म-व्यथा छूने, विद्युत बन, आओ;
बन निबिड़-श्याम घन, प्राणों में छा जाओ।

किरणों की उलझन क्षणिक, न बनो सवेरा;
बन निशा डुबा दो छवि में जीवन मेरा।

अस्थिर जीवन-कण बन न नयन ललचाओ;
बन शांत मरण-सागर असीम, लहराओ।

जो टूट पड़े क्षण में विनाश-इंगित पर,
वह तारक बन मत ध्यान भंग कर जाओ;

जिसकी अंचल-छाया में सोवे त्रिभुवन,
वह अंतहीन आकाश नील बन आओ।

फिर उसी रूप से नयनों को न भुलाओ;
अभिनव अपूर्व छवि जीवन को दिखलाओ।

दर्शन-सुख की परिभाषा नई बनाओ;
लघु दृग-तारों में नहीं, हृदय में आओ।

वह विश्वरूप बन आओ, मेरे सुंदर,
जो रेखाओं का बंदी बने न पट पर;

जिसको भर रखने को तपकर जीवन-भर
उर बने एक-दिन अंतहीन नीलांबर।

अनुभव को नयनों तक सीमित न बनाओ;
छवि से जीवन के अणु-अणु को भर जाओ।

हर झाँकी में विस्तृततर बनकर आओ;
जग के प्राणों की प्रतिक्षण परिधि बढ़ाओ।

- जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
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रविवार, 6 जुलाई 2025

वंशी करो मुखर


गूँज उठे युग की साँसों में

नव जीवन का स्वर।

 

सदियों की सोई मानवता

ज्योति नयन खोले,

मिटे कलुष तम तोम

प्रभाती स्वर्णरंग घोले!

उतरें देव स्वर्ग से

मधु के कलश लिए भू पर।

वंशी करो मुखर। 

 

वाणी की वाणी पर

शाश्वत सरगम लहराये,

नये स्वरों में नये भाव भर

कवि का मन गाये!

फूटें जड़ चट्टानों से

रस के चेतन निर्झर।

वंशी करो मुखर

 

-    डॉ० रवींद्र भ्रमर 

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 5 जुलाई 2025

हवा से कह दो।

घर में अभी मुखौटों वाले

चेहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

अभी झरोखों से दीवारें

तन से मन से दूर नहीं हैं

हैं मजबूत इरादों वाली

लेकिन दिल से क्रूर नहीं हैं

आपस में मतभेद किसी में

गहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

आने जाने और नाचने

गाने पर प्रतिबंध नहीं है

हाँ उसका सम्मान न होगा

जिसमें कोई गंध नहीं है

खनक नृत्य की सुनने वाले

बहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

आँगन में तुलसी का चौरा

बहुत ठीक है दुखी नहीं है

सबसे बात कर रहा हँसकर

सुगना अंतर्मुखी नहीं है

अभी खिड़कियाँ खुली हुई हैं

ठहरे नहीं 

हवा से कह दो। 


- मयंक श्रीवास्तव


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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

गीत – गली के वासी

हमें न भायी

जग की माया

हम हैं गीत- गली के वासी

 

वहाँ, साधुओं

सिर्फ नेह की

बजती है शहनाई

जो लय हमने साधी उस पर

वह है होती नहीं पराई

 

गीत – गली में ही

काबा है  

गीत – गली में ही है कासी

 

वह दुलराते

हर सूरज को

गीत – गली की हमें कसम है

उसमें जाते ही मिट जाता

हाट- लाट का सारा भ्रम है

 

वहाँ साँस

जो छवियाँ रचती

होती नहीं कभी वे बासी

 

कल्पवृक्ष है

उसी गली में

जिसके नीचे देव विराजे

लगते हमें भिखारी सारे

दुनिया के राजे - महराजे

 

महिमा

गीत – गली की ऐसी

कभी न रहतीं साँसें प्यासी


-कुमार रवींद्र

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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

   

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

शब्द

 शब्द

शब्द अगर आना तो –                                 

कोई शुभ्र अर्थ लाना,

तुमको रच, अपने गीतों का

कोष सँवारूँगा।

अर्थ कि वह ताजा – टटका

जो मन पीड़ा हरदे

हृदय- कुंड खारे पानी को

जो मीठा कर दे

 

मित्र सार्थक बनकर

मन के पन्नों छा जाना,

मिले भाव- नवनीत, सृजन की-

रई बिलोड़ूँगा।

दीन- दुखी कर दर्दों का-

मरहम लाना भाई

घीसू’ हरषे और असीसे

जुमम्न’ की माई

मुल्ला- पंडित गले मिलें

वह युक्ति साथ लाना,

आपस में जो पड़ी बैर-

की, गाँठें खोलूँगा।

वंचित को हो चना – चबैना

भूखा पेट भरे

सन्नाटों को चीर – चिरइया

होकर मुक्त उड़े

बच्चों की बेलौस हँसी

अक्षर – अक्षर दमके,

अपनी कलम उतार, धुंध के

बादल छाटूँगा। 

 

- श्यामलाल ‘शामी’

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


बुधवार, 2 जुलाई 2025

निज़ाम बदल जाने से नहीं बदल जाते मुक़ाम

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाता है उनका मुक़ाम
जो साथ रहते हैं इक ज़माने से

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाती है धूप
क्या छोड़ देती है किसी आँगन को

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाता है पानी का बहाव
क्या किसी मुहल्ले से चला जाता है दूर

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाती है हवा
क्या किसी के साथ चलने से कर देती है इनकार

निज़ाम बदल जाने से
क्या किसी पर कम
किसी पर ज़्यादा झुक आता है आसमान

निज़ाम बदल जाने से
क्या ज़्यादा घूमने लगती है पृथ्वी
किसी के पक्ष में

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाते हैं देवता
वे तो सबकी सुबह और शाम के हैं
कहाँ किसी निज़ाम के हैं

निज़ाम बदल जाने से
नहीं बदल जाते जीने के काम
नहीं बदल जाते किसी के नाम

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

कुंभन बन पाना और बात है

गीत बाँचकर
मंचों पर
ताली बजवाना
और बात है
पर, गीतों में
पानी को
पानी कह पाना और बात है

सुविधाएँ
अच्छी लगती हैं
सभी चाहते हैं सुविधाएँ
सुविधा लेकर
सुविधाओं का
मोल चुकाना और बात है
गीत बाँचकर...

यूँ तो
सबकी देखा-देखी
उसने भी ऐलान कर दिया
पर
अपने ही निर्णय पर
टिककर रह पाना और बात है
गीत बाँचकर...

पदक और पैसों की
ढेरी पर चढ़कर
ऊँचे लगते हैं
लेकिन
युग-कवियों का फिर
कुंभन बन पाना और बात है
गीत बाँचकर...

- जगदीश व्योम
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद