सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

फूल झर गए

फूल झर गए
क्षण-भर की ही तो देरी थी
अभी-अभी तो दृष्टि फेरी थी
इतने में सौरभ के प्राण हर गए
फूल झर गए

दिन-दो दिन जीने की बात थी,
आख़िर तो खानी ही मात थी;
फिर भी मुरझाए तो व्यथा हर गए
फूल झर गए

तुमको औ’ मुझको भी जाना है
सृष्टि का अटल विधान माना है
लौटे कब प्राण गेह बाहर गए
फूल झर गए।

फूलों-सम आओ, हँस हम भी झरें
रंगों के बीच ही जिएँ औ’ मरें
पुष्प अरे गए, किंतु खिलकर गए
फूल झर गए।

- कीर्ति चौधरी।
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विजया सती के सौजन्य से 

रविवार, 29 अक्तूबर 2023

माँ

माँ,
इस बार जब घर आऊँ 
तो मत थमाना चुपके से कुछ पैसे,
मत बाँधना पोटलियाँ, दालों, मडवे, चावल और च्यूड़े की 
मत देना अपनी नातिन के लिए हँसुली और धागुली
मत जाना नदी पार के गाँव, मेरे लिए कुछ अखरोट लाने
माँ, हो सके तो दे देना
मेरे बचपन की वो पाजेब जिसे पहन 
मैं नापती थी धरती और आकाश,
सुनना चाहती हूँ
उन आज़ाद क़दमों और उस पाजेब का संगीत
मैं जानती हूँ तुमने संभाल रखें होंगे,
मेले ना जाने देने पर टपके हुए आँसू,
और लुका-छिपी के खेल में, दबाई हुई मेरी हँसी,
दोनों देना,
दोनों को मिलाकर भर दूँगी अपनी बेरंग शामें।
इस बार देना ही चाहो तो देना,
बाँज की कुछ पौध और आँगन की थोड़ी सी मिट्टी
मैं रोप दूँगी उन्हें हर उस जगह 
जहाँ खुद होना चाहती हूँ।
अपनी दरांती और अपनी हिम्मत भी देना,
मैं अक्सर डरती हूँ शाम को घर लौटते हुए
माँ, मत विदा करना इस बार नम आँखों से,
बस मेरा छूटा हुआ सब साथ कर देना
और थोड़ी सी खुद भी चली आना मेरे साथ।

-दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।
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विजया सती की पसंद

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हंसुली धागुली - उत्तराखंड में नवजात शिशु को नामकरण संस्कार में दिए जाने वाले आभूषण

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शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

औरतें यहाँ नहीं दिखतीं

औरतें यहाँ नहीं दिखतीं
वे आटे में पिस गई होंगी
या चटनी में पुदीने की तरह महक रही होंगी
वे तेल की तरह खौल रही होंगी जिसमें
घर की सबसे ज़रूरी सब्ज़ी पक रही होगी
गृहस्थाश्रम की झाड़ू बनकर
अंधेरे कोने में खड़े होकर
वे घरनुमा स्थापत्य का मिट्टी होना देखती होंगी
सीलन और अंधेरे की अपठ्य पांडुलिपियाँ होकर
वे गल रही होंगी
वे कुएँ में होंगी या धुएँ में होंगी
आवाज़ें नहीं कनबतियाँ होकर वे
फुसफुसा रही होंगी
तिलचट्टे-सी कहीं घर में दुबकी होंगी वे
घर में ही होंगी
घर के चूहों की तरह वे
घर छोड़कर कहाँ भागेंगी
चाय पिएँ यह
उनकी ही बनाई है।

- देवी प्रसाद मिश्र।
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

बस स्टेशन पर दो बूढ़ी स्त्रियांँ

आधी सदी बाद 
मिली हैं शहर के बस स्टेशन पर
दो बूढ़ी स्त्रियांँ - सगी बहनें 
जो पली-बढ़ी थीं एक साथ 
यमुना के कछार के किसी गाँव में।

बाढ़ का पानी कई-कई बार 
जैसे उनके ऊपर से 
गुज़रा था आधी सदी के दौरान।

उनके चेहरों पर थीं 
समय की सलवटें 
जैसे उतरती नदी का पीछे हटता पानी 
बालू और मिट्टी पर 
अपने निशान छोड़ जाता है।

उनके हाथों की उँगलियाँ आपस में 
गुँथी हुई हैं किसी बूढ़े बरगद के 
उघड़ी पड़ी जड़ों की तरह।

हाथों की उभरी हुई नसें 
जैसे नदी किनारे खड़ी डोंगी में बिखरी
पड़ी पटुए की उलझी हुई रस्सी।

उनकी आँखें दिप-दिप कर रही थीं 
जैसे झिरझिर बहती मंद बयार में 
झोंपड़ियों की देहरी पर रखे दिए।

समय रेत की तरह झर रहा था 
बिना किसी आवाज़ के 
आसपास के शोर से अप्रभावित।

- कात्यायनी।
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विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

इसी दो-राहे पर

अब न उन ऊँचे मकानों में क़दम रखूँगा 
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी 
अपनी नादार मुहब्बत की शिकस्तों के तुफैल
ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी झुँझलाई  थी 
और ये अहद किया था कि ब-ईं हाल-ए-तबाह 
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊँगा 
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा 
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊँगा 
फिर तिरे काँपते होंटों की फ़ुसूँ-कार हँसी 
जाल बुनने लगी बुनती रही बुनती ही रही 
मैं खिंचा तुझ से मगर तू मिरी राहों के लिए 
फूल चुनती रही चुनती रही चुनती ही रही 
बर्फ़ बरसाई मिरे ज़ेहन ओ तसव्वुर ने मगर 
दिल में इक शोला-ए-बे-नाम सा लहरा ही गया 
तेरी चुप-चाप निगाहों को सुलगते पाकर 
मेरी बेज़ार तबीअत को भी प्यार आ ही गया 
अपनी बदली हुई नज़रों के तक़ाज़े न छुपा 
मैं इस अंदाज़ का मफ़्हूम समझ सकता हूँ 
तेरे ज़र-कार दरीचों की बुलंदी की क़सम 
अपने इक़दाम का मक़्सूम समझ सकता हूँ 
अब न उन ऊँचे मकानों में क़दम रखूँगा 
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी 
इसी सरमाया ओ अफ़्लास के दोराहे पर 
ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी झुँझलाई थी

- साहिर लुधियानवी।
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

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नादार - दरिद्र
तुफ़ैल - प्राप्ति
अहद - प्रतिज्ञा 
मफ़्हूम - अर्थ
ज़र-कार दरीचों - आलीशान (समृद्ध) झरोखों
मक़्सूम - अंजाम(भाग्य)
सर्माया - पूँजी
अफ़्लास - ग़रीबी
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बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

फूलन देवी

मोरी हसिया में दे दे धार 
ओ लोहार 
जड़ काटूँगी मैं इस बार 
ओ लोहार 

नार जनम मोरी जात न कोउ 
जात न कोउ पात न कोउ
मैं बाग की बिछुड़ी डार 
ओ लोहार 

पिय बाबुल ने जान रेहन दी 
जान रेहन दी आन रेहन दी 
मोरे दो-दो साहूकार 
ओ लोहार 

मुझसे जनम कर मोरे आका 
आका मोरे मो पे ही डाका 
मोरी नाव मोरी मझधार 
ओ लोहार 

मोरी हसिया में दे दे धार 
जड़ काटूँगी मैं इस बार

- दीपक तिरुवा।
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विजया सती की पसंद 

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

अल्लाह मियाँ

नील गगन पर बैठे कब तक
चाँद सितारों से झाँकोगे 
पर्वत की ऊँची चोटी से कब तक
दुनिया को देखोगे
आदर्शों के बंद ग्रंथों में कब तक
आराम करोगे
मेरा छप्पर टपक रहा है
बनकर सूरज इसे सुखाओ
खाली है आटे का कनस्तर
बनकर गेंहू इसमें आओ
माँ का चश्मा टूट गया है
बनकर शीशा इसे बनाओ
चुप-चुप हैं आँगन में बच्चे
बनकर गेंद इन्हें बहलाओ
शाम हुई है चाँद उगाओ
पेड़ हिलाओ
हवा चलाओ
काम बहुत है हाथ बटाओ
अल्लाह मियाँ 
मेरे घर भी आ ही जाओ
अल्लाह मियाँ!

- निदा फ़ाज़ली।
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

माँ कभी स्कूल नहीं गई

माँ कभी स्कूल नहीं गई
इसीलिए नहीं पढ़ पाई 
कभी कोई किताब
बस दस तक गिन पाती है
उंगलियों में 

........रही हमेशा गाँव में 
सो शहर भी बहुत कम देखा
माँ बहुत कम लोगों से मिली
शायद ही कभी सुनी हो 
किसी बहुत पढ़े-लिखे की कोई बात
धीरे-धीरे बूढी होती माँ
सारी उम्र अपने पालतुओं के बीच रही
इंसानों से ज्यादा 
जंगलों में अकेले भटकती रही
एक-एक मुठ्ठी घास के लिए

ग़ुस्से, प्यार और दुख के अलावा
शायद नहीं जानती कोई मानवीय भाव
नहीं समझती 
शायद 
नागरिक होने के अपने अधिकार
टीवी में खबरों वाले वक़्त 
रसोई में सेंक रही होती है रोटियाँ
दुनिया का मतलब समझती है 
अपना परिवार और गाँव

बहुत सरल और साहसी मेरी माँ
बस एक बात जानती है
कि जंगल, घर और कहीं भी बाहर
बिना दरांती नहीं जाना है
इंसान जानवर नहीं 
कि सिर्फ़ भूखे पेट ही हमलावर हों
इंसान 
कहीं भी घात लगाए मिल सकते हैं।

- दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 22 अक्तूबर 2023

जंग

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल ए आदम का ख़ून है आख़िर 
जंग मशरिक में हो या मग़रिब में
अम्न ए आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है
फ़तेह का जश्न हो या हार का सोग
ज़िंदगी मय्यतों पे रोती है

जंग तो खुद ही एक मसला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी
ख़ून और आग आज बरसेगी
भूख और एहतियाज कल देगी

इसलिए ए शरीफ़  इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आंगन में
शम्मा जलती रहे तो बेहतर है।

- साहिर लुधियानवी।
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संपादकीय पसंद 

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

अपना कमरा

यहाँ मेरी चीजें नहीं खोतीं
जहाँ रखती हूँ उतार कर बेध्यानी में 
ठीक उसी जगह मिलते हैं कर्णफूल, अँगूठी और क्लचर
इतनी कोमल सहृदयता से भरा है यह कमरा
कि शॉल की तरह ओढ़ सकती हूँ इसे शीत में
चौमासे में छाते की तरह तान सकती हूँ सर पर
यहाँ रो सकती हूँ हुमक-हुमक कर हिचकियों में
हँस सकती हूँ सबसे अटपटे स्वर वाली फूहड़ हँसी 
बिना लजाए यहाँ दे सकती हूँ गाली
यहाँ खोल सकती हूँ 
कंचुकी की हर डोरी, आत्मा का हर बंधन
देख सकती हूँ खुद को आदमकद आईने में निर्वस्त्र
सीख सकती हूँ 
दुख को जिजीविषा में ढाल लेने का हुनर
इसकी शहतीरों खंभों और दीवारों से 
देर रात तक सुन सकती हूँ 
किशोरी अमोनकर और कुमार गंधर्व के रेकॉर्ड्स 
जैज़ संगीत पर देर तक थिरक सकती हूँ
दीवारों पर टाँग सकती हूँ
हिक़मत, निज़ार क़ब्बानी और पाश के कविता पोस्टर
जानती हूँ कि 
चाहे बाहर लगे आग, बज्जर पड़े, फट जाए बादल;
इस कमरे के भीतर 
गा सकती है एक चिड़िया
आज़ादी के सबसे मीठे गीत हर मौसम में
 
यह आश्वस्ति कम है क्या 
कि सिटकनी लगाते ही एक दुनिया से कर सकती हूँ पर्दा!
हो सकती हूँ अदृश्य सबके लिए
यहाँ चूम सकती हूँ किसी को बेधड़क 
अबाध लिख सकती हूँ कविता
कर सकती हूँ प्यार 
यहाँ कोई अजनबी दस्तक नहीं देता....

- सपना भट्ट।
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

जाहिल मेरे बाने

मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूँ 
मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ 

मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ 
मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूँ 

आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर 
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर 

आप सभ्य हैं क्योंकि धन से भरी आपकी कोठी 
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ लेते हैं पोथी 

आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं 
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े ख़ून सने हैं 

आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे 
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे 

मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने 
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटे हूँ याने!

- भवानीप्रसाद मिश्र।
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संपादकीय पसंद 

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

दुश्चरित्र महिलाएँ

पढ़ा गया हमको 
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़ 
बच्चों की फटी कॉपियों का 
चनाज़ोर-गर्म के लिफ़ाफ़े बनाने के पहले!

देखा गया हमको 
जैसे कि कुफ़्त हो उनींदे 
देखी जाती है कलाई घड़ी 
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद! 

सुना गया हमको 
यों ही उड़ते मन से 
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने 
सस्ते कैसेटों पर 
ठसाठस्स भरी हुई बस में! 

भोगा गया हमको 
बहुत दूर के रिश्तेदारों के 
दुख की तरह! 

एक दिन हमने कहा 
हम भी इंसान हैं-

हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर 
जैसे पढ़ा होगा बी०ए० के बाद 
नौकरी का पहला विज्ञापन! 

देखो तो ऐसे 
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है 
बहुत दूर जलती हुई आग! 

सुनो हमें अनहद की तरह 
और समझो जैसे समझी जाती है 
नई-नई सीखी हुई भाषा! 

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई 
एक अदृश्य टहनी से 
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें 
चीखती हुई चीं-चीं 
‘दुश्चरित्र महिलाएँ, दुश्चरित्र 
महिलाएँ-
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूलीं-फैलीं 
अगरधत्त जंगली लताएँ! 

खाती-पीती, सुख से ऊबी 
और बेकार बेचैन, आवारा महिलाओं का ही 
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ...। 

फिर ये उन्होंने थोड़े ही लिखी हैं 
(कनखियाँ, इशारे, फिर कनखी) 
बाक़ी कहानी बस कनखी है। 

हे परमपिताओ, 
परमपुरुषो-
बख़्शो, बख़्शो, अब हमें बख़्शो!

- अनामिका।
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विजया सती की पसंद 

बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

ऐसा करना

कभी पास बैठो तो 
छलकी-छलकी आँखें देखना 
मुस्कुराहटें फ़रेब देती हैं 
और मैं अक्सर ही मुस्कुराती हूँ। 

साथ चलो तो ध्यान आगे बढ़ने पर नहीं 
मेरे छोटे क़दमतालों पर रखना 
मैं अक्सर पीछे छूट जाती हूँ। 

मिलो कभी तो औचक मिलना 
किसी दिन-बार और समय का मशविरा किए बग़ैर 
मैं अक्सर तैयारियों से घबराती हूँ। 

मेरा हाथ थाम लेने का साहस जुटा पाओ 
तो गले लगाने की उदारता भी दिखाना 
मैं एक विवश दूरी पर ठिठकी खड़ी सकुचाती हूँ। 

बिन कहे मेरी पीर समझना 
बंजर आँखों का नीर समझना 
मैं तुमको याद करती हूँ, मगर कहते लजाती हूँ। 

- सपना भट्ट।
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विजया सती की पसंद 

मंगलवार, 17 अक्तूबर 2023

पहाड़ की लड़कियाँ

पहाड़ की लड़कियों को
जब शहरों में बसना पड़ता है
बसा लेती हैं अपने आस-पास एक छोटा-सा पहाड़!
मायके से लौटते हुए भर लाती हैं कंडाली 
और फ्योली की पौध रोपती हैं
ठीक दरवाजे के पास वाले गमले में
इनके किचन से उठती है हर दूसरे दिन
फांणु और चैसें की महक
जिसे सबके जाने के बाद फर्श पर बैठ खाती हैं
इनके बटुए से ज्यादा इनके संदूक में होते हैं
देवता के नाम के सिक्के
हारी-बीमारी और पति की शराब छुड़ाने के नाम पर निकाले हुए
पहाड़ की लड़कियाँ
सावन और चैत में हो जाती हैं बेवजह उदास
हर पहाड़ी बोलने वाले से 
खोज लाती हैं नानके, दादके का कोई रिश्ता
और देती हैं घर आने का न्यौता
माँ के भेजे घी को कंजूसी से खर्च करती हैं 
और फेंकती नहीं पार्सल से बंधी हुई सुतली भी
पहाड़ की लड़कियाँ 
पहाड़ से दूर हों तब भी पहाड़ इनसे दूर नहीं होता

- दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।

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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 16 अक्तूबर 2023

फ़नकार

मैंने जो गीत तिरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे 
आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ 

आज दुक्कान पे नीलाम उठेगा उनका 
तूने जिन गीतों पे रखी थी मोहब्बत की असास 

आज चाँदी के तराज़ू में तुलेगी हर चीज़ 
मेरे अफ़्कार मिरी शाइरी मेरा एहसास 

जो तिरी ज़ात से मंसूब थे उन गीतों को 
मुफ़लिसी जिंस बनाने पे उतर आई है 

भूक तेरे रुख़-ए-रनगीं के फ़सानों के एवज़ 
चंद अशिया-ए-ज़रूरत की तमन्नाई है 

देख इस अरसा-ए-गह-ए-मेहनत-ओ-सरमाया में 
मेरे नग़्में भी मिरे पास नहीं रह सकते 

तेरे जल्वे किसी ज़रदार की मीरास सही 
तेरे ख़ाके भी मिरे पास नहीं रह सकते 

आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ 
मैंने जो गीत तिरे प्यार की ख़ातिर लिक्खे 

- साहिर लुधियानवी।
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असास = नींव
अफ़्कार = विचार 
मंसूब = सम्बद्ध
जिंस = भोग्य वस्तु
अरसा-ए-गह-ए-मेहनत-ओ-सरमाया = मेहनत और पूँजी का रणक्षेत्र 
मीरास = विरासत
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हरप्रीत सिंह की पसंद

रविवार, 15 अक्तूबर 2023

दीवार

जैसे-जैसे लड़की बड़ी होती है 
उसके सामने दीवार खड़ी होती है
क्रांतिकारी कहते हैं, दीवार तोड़ देनी चाहिए 
पर लड़की है समझदार और संवेदनशील 
वह दीवार पर लगाती है खूँटियाँ
पढ़ाई-लिखाई और रोज़गार की
और एक दिन धीरे से उन पर पाँव धरती
दीवार के दूसरी तरफ पहुँच जाती है।
      
- ममता कालिया।
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

नसरीन

कल दोपहर बड़े बेमन से उठी 
कि गैस जलाकर कुछ अपने लिए पका लूँ!
अन्नपूर्णा चार दिन से छुट्टी पर है 
खाने का शार्टकट 
सब्ज़ियाँ और दाल चावल साथ-साथ 
यानी खिचड़ी!
तभी कॉल बेल बजी 
नई उँगलियों की छुअन पर 
नए अंदाज़ में सरसराती सी 
कुछ काँपती सी
सामने देखा तो 
आँखों को यक़ीन दिलाना पड़ा 
हाँ, यह वही तो है 
प्यारी सी नसरीन!
हथेली में क्रोशिये के कवर से ढंकी थाली 
मुझे थमाई उसने 
और पैर छूने को नीचे झुक गई! 
कंधों से थामा उसे 
गले से लगाया!
"ईद मुबारक" सुनते कहते गला भर आया 
फ़ेसबुक और व्हाट्स एप्प की आदी 
उँगलियों को 
एक इंसान की छुअन ने 
भीतर तक भिगो दिया!
भर-भर आँखें 
घर का हर ओना-कोना निहारा उसने
सब कुछ वैसा ही है दीदी 
कुछ भी तो नहीं बदला!
हाँ, बदल जाते हैं उसमें रहने वाले लोग 
कुर्सियाँ मेज़ और सोफ़े कहाँ बदलते हैं 
परदे बदरंग हो जाएँ 
खिड़कियाँ दरवाज़े तो वही रहते हैं!
तुम अपनी सुनाओ नसरीन 
कहाँ हैं कबीर? 
कहाँ हैं हमारी लाडो ज़बीन?
पहले मुँह मीठा करें दीदी 
थाली पर से उसने जालीदार कवर हटाया 
सकुचाते हुए देखा मेरी ओर!
ईद की मीठी सेवइयाँ  
ऊपर काजू किशमिश का छिड़काव… 
और अब तक याद थी उसे मेरी पसंद 
दो परांठे मूली के भी!.... 
स्वाद वही 
जो नसरीन के हाथों का था!
आज तो अपने ईश्वर से कुछ और भी माँग लेती 
तो मिल जाता मुझे नसरीन! 
कभी कभी वक़्त कितना दरियादिल हो जाता है !
अब बताओ 
कैसे हैं बच्चे?
आँखें नम हुईं और बात पहुँची मुझ तक 
ज़बीन ने ब्याह कर लिया भागकर 
एक कुजात से 
मेरी रज़ामंदी के बग़ैर!
रोक लगा दी उसके घर आने पर
फिर भी हर माह पैसे भेज देती है नामुराद 
बैंक में ऊँची नौकरी पर जो लग गई है …
ऐसे क्यों किया नसरीन 
यही सिखाया था तुम्हें 
राजी ख़ुशी विदा करती उसे 
आने देती अपने घर!
वो बात नहीं दीदी!
इतनी तंगदिल माँ नहीं मैं 
डर है तो बस यही 
आने दिया तो मारे जाऐंगे दोनों 
अपने ही लोगों के हाथों!
मोहल्ले का क्या भरोसा...
अब जहाँ भी है 
सुकून तो है उनके बचे होने का!
और कबीर?
वह बहन की तरह पढ़ा-लिखा नहीं 
लेकिन गैरेज में मेकैनिक है 
इतनी बरकत है 
कि खोली में दो बेला जलता है अलाव 
और पकती है रोटी 
एक तृप्त मुस्कान उसकी आँखों तक थी!
"खाओ न दीदी! 
आपको तो बहुत पसंद है 
इसलिए लाई 
मूली है मीठी 
मैंने पहले चखकर देखा फिर उसे कसा!"
"ले, तू यह संदेश खा 
नोलेन गुड़ 'जल भरा' 
कोलकाता से भाई लाया था 
यह आख़िरी तेरे ही नाम का होगा 
इसलिए बचा रह गया!"
उसने खाया संदेश 
और मैंने सेवइयाँ  
विदा देते वक़्त 
मुँह से निकला - ख़ुश रहो नसरीन!
सुनते ही आँखें डबडबा आईं उसकी 
और रुंधे गले से उसने कहा -
"आपने नाम लिया 
मैं तो भूल ही गई थी अपना नाम 
सब कबीर की अम्मी ही कहते हैं 
भूले से भी कोई ज़बीन की अम्मी नहीं कहता!
और नाम से तो कोई बुलाता ही नहीं 
ऐसा क्यों दीदी?''
कुछ सवाल सवाल ही बने रहते हैं 
सबके जवाब हमारे पास कहाँ होते हैं! 

- सुधा अरोड़ा।
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

कम सुनना

याद रखना वह कहेंगे -

कम बोलो... कम खाओ... कम सजो 
कम घूमो... कम हँसो... कम खिलखिलाओ 
कम बनाओ दोस्त 
कम करो सपने 
कम हो... रहो कम 

मेरी दोस्त! 
तुम कम सुनना..!!

- शैलजा पाठक।
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विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

डेली पैसेंजर

मैंने उसे कुछ भी तो नहीं दिया

इसे प्यार भी तो नहीं कहेंगे

एक धुँधले-से स्टेशन पर वह हमारे डब्बे में

चढ़ी

और भीड़ में खड़ी रही कुछ देर सीकड़ पकड़े

पाँव बदलती

फिर मेरी ओर देखा

और मैंने पाँव सीट से नीचे कर लिए

और नीचे उतार दिया झोला

उसने कुछ कहा तो नहीं था

वह गई

और मेरी बग़ल में बैठ गई

धीरे से पीठ तख़्ते से टिकाई

और लंबी साँस ली

ट्रेन बहुत तेज़ चल रही थी

आवाज़ से लगता था

ट्रेन बहुत तेज़ चल रही थी

झोंक रही थी हवा को खिड़कियों की राह

बेलचे में भर-भर

चेहरे पर

बाँहों पर

खुल रहा था रंध्र-रंध्र

कि सहसा मेरे कंधे से

लग गया

उस युवती का माथा

लगता है बहुत थकी थी

वह कामगार औरत

काम से वापस घर लौट रही थी

एक डेली पैसेंजर।


- अरुण कमल।

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संपादकीय पसंद