शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

नसरीन

कल दोपहर बड़े बेमन से उठी 
कि गैस जलाकर कुछ अपने लिए पका लूँ!
अन्नपूर्णा चार दिन से छुट्टी पर है 
खाने का शार्टकट 
सब्ज़ियाँ और दाल चावल साथ-साथ 
यानी खिचड़ी!
तभी कॉल बेल बजी 
नई उँगलियों की छुअन पर 
नए अंदाज़ में सरसराती सी 
कुछ काँपती सी
सामने देखा तो 
आँखों को यक़ीन दिलाना पड़ा 
हाँ, यह वही तो है 
प्यारी सी नसरीन!
हथेली में क्रोशिये के कवर से ढंकी थाली 
मुझे थमाई उसने 
और पैर छूने को नीचे झुक गई! 
कंधों से थामा उसे 
गले से लगाया!
"ईद मुबारक" सुनते कहते गला भर आया 
फ़ेसबुक और व्हाट्स एप्प की आदी 
उँगलियों को 
एक इंसान की छुअन ने 
भीतर तक भिगो दिया!
भर-भर आँखें 
घर का हर ओना-कोना निहारा उसने
सब कुछ वैसा ही है दीदी 
कुछ भी तो नहीं बदला!
हाँ, बदल जाते हैं उसमें रहने वाले लोग 
कुर्सियाँ मेज़ और सोफ़े कहाँ बदलते हैं 
परदे बदरंग हो जाएँ 
खिड़कियाँ दरवाज़े तो वही रहते हैं!
तुम अपनी सुनाओ नसरीन 
कहाँ हैं कबीर? 
कहाँ हैं हमारी लाडो ज़बीन?
पहले मुँह मीठा करें दीदी 
थाली पर से उसने जालीदार कवर हटाया 
सकुचाते हुए देखा मेरी ओर!
ईद की मीठी सेवइयाँ  
ऊपर काजू किशमिश का छिड़काव… 
और अब तक याद थी उसे मेरी पसंद 
दो परांठे मूली के भी!.... 
स्वाद वही 
जो नसरीन के हाथों का था!
आज तो अपने ईश्वर से कुछ और भी माँग लेती 
तो मिल जाता मुझे नसरीन! 
कभी कभी वक़्त कितना दरियादिल हो जाता है !
अब बताओ 
कैसे हैं बच्चे?
आँखें नम हुईं और बात पहुँची मुझ तक 
ज़बीन ने ब्याह कर लिया भागकर 
एक कुजात से 
मेरी रज़ामंदी के बग़ैर!
रोक लगा दी उसके घर आने पर
फिर भी हर माह पैसे भेज देती है नामुराद 
बैंक में ऊँची नौकरी पर जो लग गई है …
ऐसे क्यों किया नसरीन 
यही सिखाया था तुम्हें 
राजी ख़ुशी विदा करती उसे 
आने देती अपने घर!
वो बात नहीं दीदी!
इतनी तंगदिल माँ नहीं मैं 
डर है तो बस यही 
आने दिया तो मारे जाऐंगे दोनों 
अपने ही लोगों के हाथों!
मोहल्ले का क्या भरोसा...
अब जहाँ भी है 
सुकून तो है उनके बचे होने का!
और कबीर?
वह बहन की तरह पढ़ा-लिखा नहीं 
लेकिन गैरेज में मेकैनिक है 
इतनी बरकत है 
कि खोली में दो बेला जलता है अलाव 
और पकती है रोटी 
एक तृप्त मुस्कान उसकी आँखों तक थी!
"खाओ न दीदी! 
आपको तो बहुत पसंद है 
इसलिए लाई 
मूली है मीठी 
मैंने पहले चखकर देखा फिर उसे कसा!"
"ले, तू यह संदेश खा 
नोलेन गुड़ 'जल भरा' 
कोलकाता से भाई लाया था 
यह आख़िरी तेरे ही नाम का होगा 
इसलिए बचा रह गया!"
उसने खाया संदेश 
और मैंने सेवइयाँ  
विदा देते वक़्त 
मुँह से निकला - ख़ुश रहो नसरीन!
सुनते ही आँखें डबडबा आईं उसकी 
और रुंधे गले से उसने कहा -
"आपने नाम लिया 
मैं तो भूल ही गई थी अपना नाम 
सब कबीर की अम्मी ही कहते हैं 
भूले से भी कोई ज़बीन की अम्मी नहीं कहता!
और नाम से तो कोई बुलाता ही नहीं 
ऐसा क्यों दीदी?''
कुछ सवाल सवाल ही बने रहते हैं 
सबके जवाब हमारे पास कहाँ होते हैं! 

- सुधा अरोड़ा।
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विजया सती की पसंद 

1 टिप्पणी:

  1. हर्फ़ ब हर्फ़ सच बयाँ करती वास्तविकता. स्त्री अपना नाम भूल जाती है, रह जाते है केवल सम्बोधन..!
    वही उसकी पहचान बन जाते हैं

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