गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

डेली पैसेंजर

मैंने उसे कुछ भी तो नहीं दिया

इसे प्यार भी तो नहीं कहेंगे

एक धुँधले-से स्टेशन पर वह हमारे डब्बे में

चढ़ी

और भीड़ में खड़ी रही कुछ देर सीकड़ पकड़े

पाँव बदलती

फिर मेरी ओर देखा

और मैंने पाँव सीट से नीचे कर लिए

और नीचे उतार दिया झोला

उसने कुछ कहा तो नहीं था

वह गई

और मेरी बग़ल में बैठ गई

धीरे से पीठ तख़्ते से टिकाई

और लंबी साँस ली

ट्रेन बहुत तेज़ चल रही थी

आवाज़ से लगता था

ट्रेन बहुत तेज़ चल रही थी

झोंक रही थी हवा को खिड़कियों की राह

बेलचे में भर-भर

चेहरे पर

बाँहों पर

खुल रहा था रंध्र-रंध्र

कि सहसा मेरे कंधे से

लग गया

उस युवती का माथा

लगता है बहुत थकी थी

वह कामगार औरत

काम से वापस घर लौट रही थी

एक डेली पैसेंजर।


- अरुण कमल।

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