शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

अपना कमरा

यहाँ मेरी चीजें नहीं खोतीं
जहाँ रखती हूँ उतार कर बेध्यानी में 
ठीक उसी जगह मिलते हैं कर्णफूल, अँगूठी और क्लचर
इतनी कोमल सहृदयता से भरा है यह कमरा
कि शॉल की तरह ओढ़ सकती हूँ इसे शीत में
चौमासे में छाते की तरह तान सकती हूँ सर पर
यहाँ रो सकती हूँ हुमक-हुमक कर हिचकियों में
हँस सकती हूँ सबसे अटपटे स्वर वाली फूहड़ हँसी 
बिना लजाए यहाँ दे सकती हूँ गाली
यहाँ खोल सकती हूँ 
कंचुकी की हर डोरी, आत्मा का हर बंधन
देख सकती हूँ खुद को आदमकद आईने में निर्वस्त्र
सीख सकती हूँ 
दुख को जिजीविषा में ढाल लेने का हुनर
इसकी शहतीरों खंभों और दीवारों से 
देर रात तक सुन सकती हूँ 
किशोरी अमोनकर और कुमार गंधर्व के रेकॉर्ड्स 
जैज़ संगीत पर देर तक थिरक सकती हूँ
दीवारों पर टाँग सकती हूँ
हिक़मत, निज़ार क़ब्बानी और पाश के कविता पोस्टर
जानती हूँ कि 
चाहे बाहर लगे आग, बज्जर पड़े, फट जाए बादल;
इस कमरे के भीतर 
गा सकती है एक चिड़िया
आज़ादी के सबसे मीठे गीत हर मौसम में
 
यह आश्वस्ति कम है क्या 
कि सिटकनी लगाते ही एक दुनिया से कर सकती हूँ पर्दा!
हो सकती हूँ अदृश्य सबके लिए
यहाँ चूम सकती हूँ किसी को बेधड़क 
अबाध लिख सकती हूँ कविता
कर सकती हूँ प्यार 
यहाँ कोई अजनबी दस्तक नहीं देता....

- सपना भट्ट।
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विजया सती की पसंद 

1 टिप्पणी:

  1. एक स्त्री का अंतस... उसकी अपनी दुनिया...
    जहाँ किसी का हस्तक्षेप नहीं.
    नितांत उसकी अपनी दुनिया... उसका अपना स्वर्ग...!

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