पहाड़ की लड़कियों को
- दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।
जब शहरों में बसना पड़ता है
बसा लेती हैं अपने आस-पास एक छोटा-सा पहाड़!
मायके से लौटते हुए भर लाती हैं कंडाली
और फ्योली की पौध रोपती हैं
ठीक दरवाजे के पास वाले गमले में
इनके किचन से उठती है हर दूसरे दिन
फांणु और चैसें की महक
जिसे सबके जाने के बाद फर्श पर बैठ खाती हैं
इनके बटुए से ज्यादा इनके संदूक में होते हैं
देवता के नाम के सिक्के
हारी-बीमारी और पति की शराब छुड़ाने के नाम पर निकाले हुए
पहाड़ की लड़कियाँ
सावन और चैत में हो जाती हैं बेवजह उदास
हर पहाड़ी बोलने वाले से
खोज लाती हैं नानके, दादके का कोई रिश्ता
और देती हैं घर आने का न्यौता
माँ के भेजे घी को कंजूसी से खर्च करती हैं
और फेंकती नहीं पार्सल से बंधी हुई सुतली भी
पहाड़ की लड़कियाँ
पहाड़ से दूर हों तब भी पहाड़ इनसे दूर नहीं होता
बसा लेती हैं अपने आस-पास एक छोटा-सा पहाड़!
मायके से लौटते हुए भर लाती हैं कंडाली
और फ्योली की पौध रोपती हैं
ठीक दरवाजे के पास वाले गमले में
इनके किचन से उठती है हर दूसरे दिन
फांणु और चैसें की महक
जिसे सबके जाने के बाद फर्श पर बैठ खाती हैं
इनके बटुए से ज्यादा इनके संदूक में होते हैं
देवता के नाम के सिक्के
हारी-बीमारी और पति की शराब छुड़ाने के नाम पर निकाले हुए
पहाड़ की लड़कियाँ
सावन और चैत में हो जाती हैं बेवजह उदास
हर पहाड़ी बोलने वाले से
खोज लाती हैं नानके, दादके का कोई रिश्ता
और देती हैं घर आने का न्यौता
माँ के भेजे घी को कंजूसी से खर्च करती हैं
और फेंकती नहीं पार्सल से बंधी हुई सुतली भी
पहाड़ की लड़कियाँ
पहाड़ से दूर हों तब भी पहाड़ इनसे दूर नहीं होता
- दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।
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