रविवार, 29 अक्तूबर 2023

माँ

माँ,
इस बार जब घर आऊँ 
तो मत थमाना चुपके से कुछ पैसे,
मत बाँधना पोटलियाँ, दालों, मडवे, चावल और च्यूड़े की 
मत देना अपनी नातिन के लिए हँसुली और धागुली
मत जाना नदी पार के गाँव, मेरे लिए कुछ अखरोट लाने
माँ, हो सके तो दे देना
मेरे बचपन की वो पाजेब जिसे पहन 
मैं नापती थी धरती और आकाश,
सुनना चाहती हूँ
उन आज़ाद क़दमों और उस पाजेब का संगीत
मैं जानती हूँ तुमने संभाल रखें होंगे,
मेले ना जाने देने पर टपके हुए आँसू,
और लुका-छिपी के खेल में, दबाई हुई मेरी हँसी,
दोनों देना,
दोनों को मिलाकर भर दूँगी अपनी बेरंग शामें।
इस बार देना ही चाहो तो देना,
बाँज की कुछ पौध और आँगन की थोड़ी सी मिट्टी
मैं रोप दूँगी उन्हें हर उस जगह 
जहाँ खुद होना चाहती हूँ।
अपनी दरांती और अपनी हिम्मत भी देना,
मैं अक्सर डरती हूँ शाम को घर लौटते हुए
माँ, मत विदा करना इस बार नम आँखों से,
बस मेरा छूटा हुआ सब साथ कर देना
और थोड़ी सी खुद भी चली आना मेरे साथ।

-दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।
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