गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

इसी दो-राहे पर

अब न उन ऊँचे मकानों में क़दम रखूँगा 
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी 
अपनी नादार मुहब्बत की शिकस्तों के तुफैल
ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी झुँझलाई  थी 
और ये अहद किया था कि ब-ईं हाल-ए-तबाह 
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊँगा 
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा 
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊँगा 
फिर तिरे काँपते होंटों की फ़ुसूँ-कार हँसी 
जाल बुनने लगी बुनती रही बुनती ही रही 
मैं खिंचा तुझ से मगर तू मिरी राहों के लिए 
फूल चुनती रही चुनती रही चुनती ही रही 
बर्फ़ बरसाई मिरे ज़ेहन ओ तसव्वुर ने मगर 
दिल में इक शोला-ए-बे-नाम सा लहरा ही गया 
तेरी चुप-चाप निगाहों को सुलगते पाकर 
मेरी बेज़ार तबीअत को भी प्यार आ ही गया 
अपनी बदली हुई नज़रों के तक़ाज़े न छुपा 
मैं इस अंदाज़ का मफ़्हूम समझ सकता हूँ 
तेरे ज़र-कार दरीचों की बुलंदी की क़सम 
अपने इक़दाम का मक़्सूम समझ सकता हूँ 
अब न उन ऊँचे मकानों में क़दम रखूँगा 
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी 
इसी सरमाया ओ अफ़्लास के दोराहे पर 
ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी झुँझलाई थी

- साहिर लुधियानवी।
---------------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

-----------------------------------------------
नादार - दरिद्र
तुफ़ैल - प्राप्ति
अहद - प्रतिज्ञा 
मफ़्हूम - अर्थ
ज़र-कार दरीचों - आलीशान (समृद्ध) झरोखों
मक़्सूम - अंजाम(भाग्य)
सर्माया - पूँजी
अफ़्लास - ग़रीबी
-----------------------------------------------

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें