हँसो, जंगल की बेटी
हँसो
कि पूस की भोर की धूप की
गुनगुनी गर्माहट-भरी उजास
फैल जाए चतुर्दिक
हँसो तुम, खिलखिल-खिलखिल
कि पूनो के चाँद की किरणें
छिटक जाएँ
चीरकर अभावों की घन-घटा को
हँसो
कि मौलश्री के फूल
कांतार में बिछ जाएँ
कि पत्थर को फोड़
फूट पड़ें अल्हड़ निर्झर
हँसो तुम
कि माँदर की थाप पर
थिरकते पदचाप में घुले गीत
घोल जाएँ कानों में अमृत
तुम हँसो
कि जलते जेठ के बरसते पानी में
भीग जाएँ तन-बदन
हँसो तुम
कि अतल सागर की फेनिल लहरें
चूम-चूम जाएँ, विस्तीर्ण तट को
हँसो
कि घने वन से छन-छन कर
दूर-दूर तक फैल जाए
बंसी की तान
हँसो
कि बज उठे पाजेब की रुनझुन
हँसो
कि वन्य सर में खिल उठें
शतदल कमल
हँसो
कि जैसे शोख़ पवन
उड़ा रहा हो
किसी दोशीजा का
शुभ्र दुकूल
हँसो तुम
कि वन-क्षेत्रों का
सारा कलुष
घुल जाए तुम्हारी उन्मुक्त निश्छल हँसी में
हँसो, जंगल की बेटी
हँसो
हँसो
कि पूस की भोर की धूप की
गुनगुनी गर्माहट-भरी उजास
फैल जाए चतुर्दिक
हँसो तुम, खिलखिल-खिलखिल
कि पूनो के चाँद की किरणें
छिटक जाएँ
चीरकर अभावों की घन-घटा को
हँसो
कि मौलश्री के फूल
कांतार में बिछ जाएँ
कि पत्थर को फोड़
फूट पड़ें अल्हड़ निर्झर
हँसो तुम
कि माँदर की थाप पर
थिरकते पदचाप में घुले गीत
घोल जाएँ कानों में अमृत
तुम हँसो
कि जलते जेठ के बरसते पानी में
भीग जाएँ तन-बदन
हँसो तुम
कि अतल सागर की फेनिल लहरें
चूम-चूम जाएँ, विस्तीर्ण तट को
हँसो
कि घने वन से छन-छन कर
दूर-दूर तक फैल जाए
बंसी की तान
हँसो
कि बज उठे पाजेब की रुनझुन
हँसो
कि वन्य सर में खिल उठें
शतदल कमल
हँसो
कि जैसे शोख़ पवन
उड़ा रहा हो
किसी दोशीजा का
शुभ्र दुकूल
हँसो तुम
कि वन-क्षेत्रों का
सारा कलुष
घुल जाए तुम्हारी उन्मुक्त निश्छल हँसी में
हँसो, जंगल की बेटी
हँसो
- अशोक प्रियदर्शी।
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बिनीता सहाय की पसंद
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