रविवार, 31 दिसंबर 2023

ताकत

मैं एक पहाड़ के पास गया
और पाया कि अगाध करुणा से भर गया हूँ मैं
मैं एक नदी के पास गया
और पाया कि उसकी कोमलता
मेरे भीतर प्रवेश कर रही है
मैं खेत के पास गया
और देखा नमी उतर रही है मेरे भीतर
मैं जंगल के पास गया
और पाया कि एक दुर्लभ संगीत से
मेरी आत्मा के तार झंकृत हो रहे हैं
विस्मय से भर कर
जब मैंने निहारा आकाश को
खुद को पाया विशालता के आगोश में
एक पक्षी, एक पशु और एक पेड़ ने
मेरे दिल के कोने में बनाई जगह
और अंत में
जब मैं एक मनुष्य के पास गया
तो पाया कि मेरे भीतर बची हुई है
प्रेम करने की ताकत

- प्रत्यूष चंद्र मिश्रा।
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विजया सती के सौजन्य से 

शनिवार, 30 दिसंबर 2023

आज नहीं तो कल आओगे

लाख रोकना चाहो ख़ुद को पर तुम रोक नहीं पाओगे।
आज नहीं तो कल आओगे।

अब तक रस्ता देख रहे हैं
कल भी रस्ता देखेंगे हम।
सूखा मौसम देख रहे हैं
मेघ बरसता देखेंगे हम।
मन की धरा हुई जो प्यासी बनकर तुम बादल आओगे।
आज नहीं तो कल आओगे।

कैसे कह दें याद तुम्हारी
करने को बेचैन न आए।
जो न दिखाए ख़्वाब तुम्हारे
ऐसी कोई रैन न आए।
जिस दिन होंगी सूनी आँखें बनकर तुम काजल आओगे।
आज नहीं तो कल आओगे।

अपने दिल के ज़ख्मों को हम
अभी छुपाए रह सकते हैं।
दर्द अभी है सीमाओं में
दर्द अभी हम सह सकते हैं।
धूप दर्द की तेज़ हुई तो बनकर तुम आँचल आओगे।
आज नहीं तो कल आओगे।

- कमलेश द्विवेदी।
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता

दिसंबर सर्द है ज़्यादा इस बार 
पहाड़ों पर बर्फ़ गिर रही है लगातार

दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता 
आख़िरी नहीं लगतीं उसकी शामें 
नई भोर की गुज़र चुकी रात नहीं है यह 
भूमिका है उसकी
इस सर्द महीने के रूखे चेहरे पर 
यात्रा की धूल है 
फटी एड़ियों में इस यात्रा की निरंतरता 

दिसंबर के पास सारे महीने छोड़ जाते हैं
अपनी कोई न कोई चीज़ 
जुलाई बारिश 
नवंबर पतझड़ 
मार्च सुगम संगीत 

तेज़ ठंड ने फ़िलहाल धकेल दिया है सभी चीज़ों को 
पृष्ठभूमि में
“पारा शून्य को छूते-छूते रह गया है” 
समाचारों में बताया गया 

ऐसी ही एक सुबह मैं देखती हूँ 
एक तस्वीर
रात है... कुहरा छाया है
अनमना हो आया है कुहरे में बिजली का खंबा
चादर ओढ़े फ़ुटपाथ पर कोई सो रहा है
नीचे लिखा है -

जिन्हें नाज़ है हिंद पर...!

- निर्मला गर्ग।
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विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

जाते साल के नाम

चेहरे पर बढ़ी कुछ और लकीरें, 
कृष्ण कुंतलों की श्वेत हुई तासीरें, 
बदल गई कुछ अक्षरों की तस्वीरें, 
उलाहने पाती रहीं कुछ और तक़दीरें, 
धुँधली पड़ी उम्मीदों की ताबीरें। 
चढ़े नज़र पर नज़र के चश्मे, 
चाक पर चढ़े कुछ और रिश्ते, 
अहसासों की चुकी कुछ और किश्ते, 
दामन में आस लिए पूजे जाते रहे फ़रिश्ते 
हालातों की आँच में भाप बन 
लम्हा-लम्हा उड़ती रही मासूमियत, 
नश्तरों-सी चुभती रही 
नंबरों को पार करती तारीख़ें। 
भावनाओं के भँवर में डूबती रही 
नसीहतों की कश्तियाँ। 
और हो गया एक और वर्षांत।

- श्रद्धा आढ़ा।
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 27 दिसंबर 2023

युग की संध्या

युग की संध्या कृषक वधु-सी 
किसका पंथ निहार रही? 
उलझी हुई समस्याओं-सी 
बिखरी लटें सँवार रही! 

धूलि धूसरित अस्त-व्यस्त वस्त्रों की 
शोभा मन मोहे, 
माथे पर रक्ताभ चंद्रमा की 
सुहाग-बिंदिया सोहे, 
उचक-उचक ऊँची खूँटी से 
नया सिंगार उतार रही! 

रँभा रहा है बँधा-बँधा बछड़ा 
बाहर के आँगन में, 
गूँज रही अनुगूँज भूख की 
युग की संध्या के मन में! 
जंगल से आती सुमंगला धेनु 
सुदूर पुकार रही! 

युग की संध्या कृषक वधु-सी 
किसका पंथ निहार रही? 

जाने कब आएगा मालिक, 
मनोभूमि का हलवाहा? 
कब आएगा युग-प्रभात, 
जिसको युग-संध्या ने चाहा? 
सूने छाया-पथ पर संध्या 
लोचन-तारक वार रही! 

युग की संध्या कृषक वधु-सी 
किसका पंथ निहार रही?

- नरेंद्र शर्मा।
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

कविता जम गई है

नहीं छोड़ती स्याही चौखट कलम की
नहीं स्वर उमड़ता गले की गली में
लिखूँगा कैसे कविता तुम्हीं अब बताओ
घुले भाव सब चाय की केतली में

ठिठुर कँपकँपाती हुई उँगलियाँ अब
न कागज़ ही छूती, न छूती कलम ही
यही हाल कल था, यही आज भी है
है संभव रहेगा यही हाल कल भी

गए दिन सभी गाँव में कंबलों के
छुपी रात जाकर लिहाफ़ों के कोटर
खड़ीं कोट कोहरे का पहने दिशाएँ
हँसे धुंध, बाहों में नभ को समोकर

परवाज़ है पाखियों की कहीं भी
न मिलता कबूतर का कोई कहीं पर
शिथिलता है छाई, लगा रुक गया सब
न कटती है सुबह, न खिसके है दुपहर

निकल घर के बाहर कदम जो रखा तो
बजीं सरगमें दाँत से झनझनाकर
हवा उस पे सन सन मजीरे बजाती
जो लाई है उत्तर के ध्रुव से उठाकर

न दफ़्तर में कोई करे काम, चर्चा
यही आज कितना ये पारा गिरेगा
पिये कितने काफ़ी के प्याले अभी तक
भला कितने दिन और ऐसा चलेगा

न लिखने का दम है न पढ़ने की इच्छा
ये सुईयाँ घड़ी की लगे थम गई हैं
मिलें आपसे अब तो सप्ताह दस में
ये कविता मेरी आजकल जम गई है

- राकेश खंडेलवाल।
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 25 दिसंबर 2023

मेरी तुम

गठरी-सा बँधा बैठा है 
जाड़े का दिन 
कि बस, अब 
तुम्हारा हाथ लगे 
और खुल जाए।

- शंभु यादव।
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संपादकीय चयन 

रविवार, 24 दिसंबर 2023

नीली धारियों वाला स्वेटर

कैसी भी रही हो ठंड 
ठिठुरा देने वाली या गुलाबी 
एक ही स्वेटर था मेरे पास 
नीली धारियों वाला 
बहिन के स्वेटर बुनने से पहले 
किसी की उतरी हुई जॉकिट 
पहनता था मैं 
जॉकिट में गर्माहट थी पर 
जॉकिट पहनकर 
ख़ुशी नहीं मिलती थी मुझे 
एक उदासी छा जाती थी 
मेरे चेहरे पर 

बहिन मेरे चेहरे पर छाई 
उदासी पढ़कर 
ख़ुद भी उदास हो जाया करती थी 
बहिन ने थोड़े-थोड़े पैसे बचाकर 
ख़रीदें सफ़ेद नीले ऊन के गोले 
एक सहेली से 
माँगकर लाई सलाइयाँ 
किसी पत्रिका के बुनाई विशेषांक से 
सीखी डिजाइन 
दो उल्टे एक सीधा 
एक उल्टा दो सीधे डाले फँदे 
कई दिनों तक 
नापती रही गर्दन 
गिनती रही फँदे 
बदलती रही सलाई 

ठिठुराती ठंड आने से पहले 
एक दिन बहिन ने 
पहना दिया मुझे नया स्वेटर 
बहिन की हथेलियों की ऊष्मा 
समा गई थी स्वेटर में 
मेरा स्वेटर देखकर 
लड़कियाँ पूछती थीं 
कलात्मक बुनाई के बारे में 
बहिन के ससुराल जाने के बाद भी 
कई वर्षों तक पहनता रहा मैं 
नीली धारियों वाला स्वेटर 
उस स्वेटर जैसी ऊष्मा 
फिर किसी स्वेटर में नहीं मिली 
उस स्वेटर की स्मृति से 
आज भी मुझे ठंड नहीं लगती

- गोविंद माथुर।
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 23 दिसंबर 2023

जब धूप तनिक खिल जाती है

कितना अच्छा लगता है जब धूप तनिक खिल जाती है।
पत्ता-पत्ता लगे विहँसने, कली-कली मुसकाती है।।

घने कुहासे के पीछे से जब सूरज दिख जाता है।
मुरझाए मुखड़ों पर जैसे गीत कोई लिख जाता है।।

थकी हुई गमगीन हवाएँ फिर बहने लग जाती हैं।
गहन उदासी की दीवारें फिर ढहने लग जाती हैं।।

मन की घाटी में अवसादी हिम उस रोज पिघलती है।
जब सीली घनघोर घटा से हल्की धूप निकलती है।।

उजियारे की बाँहें थामे पल खुशियों के आते हैं।
इसीलिए तो तम तजकर हम ज्योतित पथ पर जाते हैं।। 

- रामवृक्ष सिंह।
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विजया सती के सौजन्य से 

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

आना जब मेरे अच्छे दिन हों

(1)
आना 
जब मेरे अच्छे दिन हों।

जब दिल में 
निष्कपट ज्योति की तरह 
जलती हो 
तुम्हारी क्षीण याद 
और नीली लौ की तरह 
कभी-कभी 
चुभती हो इच्छा।

जब मन के 
अछूते कोने में 
सहेजे तुम्हारे चित्र पर 
चढ़ी न हो 
धूल की परत 
आना जैसे बारिश में अचानक 
आ जाए
कोई अच्छी सी पुस्तक हाथ 
या कि गर्मी में 
छत पर सोते हुए 
दिखे कोई अच्छा सा सपना।

(2)
जब दिमाग साफ़ हो 
खुले आसमान की तरह 
और हवा की तरह 
स्पष्ट हो दिशाएँ
समुद्र के नीले विस्तार-सा 
विशाल हो मन 
और पर्वत-सा अडिग हो 
मुझ पर विश्वास।

आना तब 
वेगवान नदी की तरह 
मुझे बहाने  
आना 
जैसे बादल आते हैं 
रूठी धरती को मनाने।

(3)
आना 
जब शहर में अमन-चैन हो 
और दहशत से अधमरी 
न हो रही हों सड़कें 

जब दूरदर्शन न उगलता हो 
किसी मदांध विश्वनेता द्वारा छेड़े 
युद्ध की दास्तान।

आना जैसे ठंडी हवा का झोंका 
आया अभी-अभी 
आना जब हुई हो 
युद्ध की समाप्ति की घोषणा 
अभी-अभी।

(4)
आना 
जब धन बहुत न हो 
पर हो।

हो यानी इतना 
की बारिश में भीगते 
ठहर कर कहीं
पी सकें 
एक प्याला गर्म चाय‌।

कि ठंड के दोपहर में 
निकल सके दूर तक 
और जेबों में 
भर सकें 
मुंगफलियाँ 

बैठ सकें रेलगाड़ी में 
फिर लौटें 
बिना टिकट 
छुपते-छुपाते 
खत्म होने पर 
अपनी थोड़ी-सी जमा पूंजी।

आना 
जब बहुत सरल 
न हुई हो ज़िंदगी।

(5)
जब आत्मदया से 
डबडबाया हो 
मेरा मन।

जब असफलताएँ
छाई हों 
घनघोर निराशा की तरह।
 
जब उठना हो 
अपनी क्षमता पर से 
मेरा विश्वास।

तब देखो 
मत आना 

मत आना 
दया या उपकार की तरह 
आ सको, तो आना 
बरसते प्यार की तरह।

(6)
छूना मुझे 
एक बार फिर 
और देखना 
बाकी है सिहरन 
वहाँ अब भी 
जहाँ छुआ था तुमने 
मुझे पहली बार।

झुकना 
जैसे धूप की ओर झुके 
कोई अधखिला गुलाब 
और देखना 
बसी है स्मृतियों में 
अब भी वही सुगंध 
वही भीनी-भीनी सुगंध 
पुकारना मुझे 
लेकर मेरा नाम 
उसी जगह से 
और सुनना 
प्रतिध्वनि में नाम 
वही तुम्हारा प्यारा नाम।

(7)
मुझे अब भी याद है 
लौटना 
तुम्हारे घर से।

रास्ते भर 
खिड़की से लगे रहना 
एक छाया का 
रास्ते भर 
बने रहना मन में 
एक खुशबू का 
रास्ते भर 
चलना एक कथा का
अनंतर।

जब घिरे 
और ढक ले मुझे 
सब ओर से 
तुम्हारी छाया 
तब आना 
खोजते हुए 
किरण की तरह 
अपना रास्ता।

(8)
इतना हल्का 
कि उड़ सकूँ
पूरे आकाश में 

इतना पवित्र 
कि जुड़ सकूँ
पूरी पृथ्वी से 

इतना विशाल 
कि समेट लूँ
पूरा विश्व अपने में।

इतना कोमल 
कि पहचान लूँ
हल्का-सा स्पर्श।

इतना समर्थ 
कि तोड़ दूँ
सारे तटबंध।

देखना 
मैं बदलूँगा एकदम
अगर तुम 
आ गई अचानक।

(9)
देखो 
तुम अब 
आ भी जाओ 
हो सकता है 
तुम्हारे साथ ही 
आ जाएँ मेरे अच्छे दिन।

- संतोष चौबे।
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संजय सिंह राठौड़ के सौजन्य से 

गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

सब्ज़ पत्ते

सब्ज पत्ते धूप की ये आग जब पी जायेंगे,
उजले फर के कोट पहने हल्के जाड़े आयेंगे।

गीले-गीले, मंदिरों में बाल खोले देवियाँ,
सोचती हैं उनके सूरज देवता कब आयेंगे।

सुर्ख़ नीले चाँद-तारे, दौड़ते हैं बर्फ़ पर,
कल हमारी तरहा ये भी धुंध में खो जायेंगे।

दिन में दफ़्तर का क़लम, मिल की मशीनें सब हैं हम,
रात आएगी तो पलकों पे सितारे आयेंगे।

दिल के इन बाग़ी फ़रिश्तों को सड़क पर जाने दो,
बच गए तो शाम तक, घर लौटकर आ जायेंगे।

- बशीर बद्र।
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बिनीता सहाय की पसंद 

बुधवार, 20 दिसंबर 2023

शरद

जा चुका बालापन
यौवन की दहलीज़ पर है शरद
नहीं पूनो, चौदस की रात
हवा में हल्की-सी ख़ुनकी
प्यार का जग रहा
जैसे पहला एहसास।

- नंदकिशोर आचार्य।
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 19 दिसंबर 2023

ओस की बूंद कहती है

ओस-बूंद कहती है, लिख दूँ
नव-गुलाब पर मन की बात।

कवि कहता है, मैं भी लिख दूँ
प्रिय शब्दों में मन की बात।

ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ
नव-गुलाब हो गया मलिन।

पर कवि ने लिख दिया ओस से
नव-गुलाब पर काव्य नवीन।

- केदारनाथ अग्रवाल।
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 18 दिसंबर 2023

शिशिर आ रहा है

धीरे-धीरे ठंडा हो रहा है मौसम
कमज़ोर पड़ रहीं हैं
पृथ्वी को गर्म रखने की
सूरज की कोशिशें
शिशिर आ रहा है 

अभी-अभी कटे धान के पुआल
और कोल्हूआर में पाक रहे गुड़ की 
नई महक के साथ 
शिशिर आ रहा है

सरसों-फूल के चटक रंग से
हमारी आँखों को चुँधियाते हुए 
हमारे रक्त में बर्फ़ के बुरादे भरते हुए 
शिशिर आ रहा है

हमारी उफ़नती बेचैनी को
मादक नशीली थपकियों से 
आहिस्ता-आहिस्ता सुला देने की कोशिश करते हुए 
शिशिर आ रहा है

इसके पहले 
कि उमस और छटपटाहटें
बढ़कर ढूँढ सकें कोई दिशा
हमारी गरमाहट को
नुकीली ठंडी हवाओं से बेधते हुए 
हमारे सपनों को
कुहरों की दीवारों में चुनते हुए
शिशिर आ रहा है

कल के कलेवे के लिए 
एक मुट्ठी भात की जुगाड़ के साथ 
पूरे वर्ष भर की रोटी के सवाल को
निर्मम ठंडेपन से दबाते हुए 
शिशिर आ रहा है

इससे पहले 
कि बर्फ़ और कुहरों से ढँक जाएँ दिशाएँ 
सुलगा लो अपने अलाव
शिशिर आ रहा है

- मदन कश्यप।
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बिनीता सहाय की पसंद 

रविवार, 17 दिसंबर 2023

ट्रेनें

ट्रेनें
एक भागता हुआ
घर होती हैं
जिनमें खिड़कियाँ ज्यादा
दरवाजे कम होते हैं
दृश्यावलियाँ ज्यादा
हस्तक्षेप कम होता है

जिनमें
चर्चाएँ बैठी रहती हैं
निष्कर्ष उतर जाते हैं

- राकेश मिश्र 
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कविता संग्रह 'कवि का शहर' से
विजया सती की पसंद 

शनिवार, 16 दिसंबर 2023

नया कवि - आत्म स्वीकार

किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ से जोड़ दिया।
कोई मधु-कोष काट लाया था,
मैंने निचोड़ लिया।
किसी की उक्ति में गरिमा थी,
मैंने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।
कोई हुनरमंद था -
मैंने देखा और कहा, 'यों!'
थका भारवाही पाया -
घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों?'
किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली,
किसी की लगाई लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली
किसी की कली थी :
मैंने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी।
मैंने मुँह से छीन ली।
यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ -
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द सराहते हुए पढ़ें।
पर प्रतिमा- अरे वह तो
जैसी आपको रुचे आप स्वयं गढ़ें।

- अज्ञेय।
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2023

जाल फेंक रे मछेरे

एक बार और जाल 
फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में 
बंधन की चाह हो!

सपनों की ओस 
गूँथती कुश की नोक है 
हर दर्पण में
उभरा एक दिवालोक है।

रेत के घरौंदों में
सीप के बसेरे
इस अंधेर में 
कैसे नेह का निबाह हो!

उनका मन आज हो गया 
पुरइन पात है 
भिंगो नहीं पाती' 
यह पूरी बरसात है

चंदा के इर्द-गिर्द 
मेघों के घेरे 
ऐसे में क्यों न 
कोई मौसमी गुनाह हो!

गूंजती गुफाओं में 
पिछली सौगंध है 
हर चारे में 
कोई चुंबकीय गंध है 

कैसे दे हंस 
झील के अनंत फेरे 
पग-पग पर लहरें 
जब बाँध रही छाँह हों! 

कुंकुम-सी निखरी 
कुछ भोरहरी लाज है
बंसी' की डोर
बहुत काँप रही आज है 

यों ही ना तोड़ अभी
बीन रे सँपेरे!
जाने किस नागिन में
प्रीत का उछाह हो!

- डॉ० बुद्धिनाथ मिश्र।
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विजया सती के सौजन्य से 

गुरुवार, 14 दिसंबर 2023

विश्वास बहुत है

सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है
विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।

धन्य-धन्य मेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता, जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अंधभक्ति को केवल इतना मंद प्रकाश बहुत है 
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।

अगणित शलभों के दल के दल एक ज्योति पर जल-जल मरते,
एक बूँद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।

मैंने आँखें खोल देख ली है नादानी उन्मादों की 
मैंने सुनी और समझी है कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में पढ़ने को इतिहास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।

ओ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।

- बलबीर सिंह रंग।
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अनूप भार्गव की पसंद 

बुधवार, 13 दिसंबर 2023

मेहल का खिलना

जब-जब खिला मेहल 
देखते रहे बंजर खेत 
चोर भँवरों ने चखा 
उसके माखनी फूलों का पराग 
शहद हुआ डिब्बाबंद 
उपेक्षित पड़ा रहा पहाड़ और मेहल

जलावन था मेहल 
माखनी फूलों का यह बेनाम गुलदस्ता 
वसंत के दिनों पहाड़ों को चूमता हुआ 
सबसे मटमैले पहाड़ों को बहुरंग बनाता हुआ 
सबसे पथरीली ज़मीनों पर उठ खड़ा हुआ 

हुलसते नई उम्र के
युवाओं की तरह उपेक्षित
जिनके सारे स्वप्न बेचकर 
काट कर जिनका आसमान
जिसके तनों पर रोप दी गई 
मुनाफ़े वाली उन्नत फलों की किस्में

अपनी ज़मीनों पर
अपने ही तनों
अपनी जड़ों पर
कलम कर दिया गया
मेहल का पेड़

बावजूद
सरकारें बदली
फिर बदली
फिर-फिर बदली
फिर खिला
फिर-फिर खिला मेहल

- अनिल कार्की।
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विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

कभी-कभी

कभी-कभी हम बेसबब खुश होते हैं
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर
अनगिन फूल खिले हैं 
तितलियाँ मँडरा रही हैं भँवरे झूम रहे हैं 

कभी-कभी हम बेसबब उदास होते हैं
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष के
पत्ते झर रहे हैं
और नई तीतियाँ फूट नहीं रही हैं 

कभी-कभी हम बेसबब निराश होते हैं
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर का वृक्ष सूख रहा है 
झकर चल रही है 
धधक रहा है सूर्य 
बचे-खुचे जल को उड़ाता

कभी-कभी हम बेसबब संकल्पित होते हैं
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष की जड़ें
चट्टानों को पार कर 
गहरे उतर रही हैं 
पाताल में 

कभी-कभी हम बेसबब खुरदुरे होते हैं 
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष की छाल
कड़ी दर कड़ी हो रही है हर साल 

कभी-कभी हम बेसबब स्निग्घ होते हैं 
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर आपादमस्तक
बारिशें गिर रही हैं - धीमी, मद्धम ,धारासार 
और भीतर का जल
उससे ताल मिला रहा है 

कभी-कभी हम बेसबब अकेले में हँसते हैं 
समझ नहीं पाते 
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर बैठी चिड़ियाँ
आसमान में उड़ रही हैं 
चहचहाती एक साथ

कभी-कभी हम बेसबब शांत होते हैं
समझ नहीं पाते कि
हमारे भीतर के वृक्ष के पात हिल नहीं रहे हैं
चिड़ियाँ स्तब्ध हैं
घुटा है आसमान 
गिलहरियाँ चुप हैं

कभी-कभी हम बेसबब मन ही मन रोते हैं
समझ नहीं पाते
कि हमारे भीतर के वृक्ष पर 
कोई
कुल्हाड़ी से निशान कर गया है
जड़ों में मट्ठा डाल गया है

- विनोद पदरज।
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विजया सती के सौजन्य से 

रविवार, 10 दिसंबर 2023

पास तुम रहो

कुछ न हुआ, न हो। 
मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल 
पास तुम रहो!
 
मेरे नभ के बादल यदि न कटे— 
चंद्र रह गया ढका, 
तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे 
लेश गगन-भास का, 
रहेंगे अधर हँसते, पथ पर, तुम 
हाथ यदि गहो। 

बहु-रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा— 
मंद सबों ने कहा— 
मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा— 
ज्ञान जहाँ का रहा, 
रहे, समझ है मुझमें पूरी, तुम 
कथा यदि कहो। 

- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला।
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शनिवार, 9 दिसंबर 2023

चिड़िया और चुरुगन

छोड़ घोंसला बाहर आया,
देखी डालें, देखे पात 
और सुनीं जो पत्ते हिलमिल 
करते हैं आपस में बात;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
"नहीं चुरुगन तू भरमाया"

डाली से डाली पर पहुँचा 
देखी कलियाँ, देखे फूल,
ऊपर उठकर फुनगी जानी 
नीचे झुककर जाना मूल;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
"नहीं चुरुगन तू भरमाया"

कच्चे-पक्के फल पहचाने 
खाए और गिराए काट 
खाने-गाने के सब साथी 
देख रहे हैं मेरी बाट;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
"नहीं चुरुगन तू भरमाया"

उस तरु से इस तरु पर जाता,
जाता हूँ धरती की ओर,
दाना कोई कहीं पड़ा हो 
चुन लाता हूँ ठोक-ठठोर;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
"नहीं चुरुगन तू भरमाया"

मैं नीले अज्ञात गगन की 
सुनता हूँ अनिवार पुकार,
कोई अंदर से कहता है 
उड़ जा, उड़ता जा पर मार;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
"आज सफल हैं तेरे डैने,
आज सफ़ल है तेरी काया"

- हरिवंश राय बच्चन।
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

यादों में पहाड़ का वज़न

यादों में पहाड़ का वज़न 
फूल से ज्यादा नहीं होता
ना ही फूलों से कम खूबसूरत लगते हैं पहाड़
यादों में संभव होता है
कि हम चूम सकें पहाड़ों को
जैसे उन्हें चूमता है आकाश

- कुमार मुकुल।
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विजया सती के सौजन्य से 

गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

स्मृतियों का समुद्र

धरी रह जाएँगी सारी की सारी
घृणाएँ, कटुताएँ
जलकर राख हो जाएँगी
रस्सी की तरह ऐंठी हुई
सारी की सारी
ईर्ष्याएँ, अहम्मन्यताएँ 

बचा रहेगा
सिर्फ एक
प्यार के लिए पछाड़ें खाता
उठता गिरता स्मृतियों का समुद्र 

- भगवत रावत।
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विजया सती के सौजन्य से 

सोमवार, 4 दिसंबर 2023

एक दिन

अभी हम झींकते है
माँ ऐसी है
माँ वैसी है
पिताजी ऐसा करते हैं
पिताजी वैसा करते हैं

फिर हमीं एक दिन
उसाँस भरेंगे
माँ ऐसी थी
माँ वैसी थी
पिताजी ऐसा करते थे
पिताजी वैसा करते थे 

- विनोद पदरज।
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विजया सती के सौजन्य से 

रविवार, 3 दिसंबर 2023

बिना पानी के

बिना पानी के
न ये घर साफ़ होगा
न दर साफ़ होगा
बिना पानी के

ये कपड़े ये लत्ते
ये गाड़ी ये घोड़े
ये रस्ते ये सड़कें
शहर के शहर ये 
नहीं साफ़ होंगे बिना पानी के

बिना पानी के
न ये तन साफ़ होगा
न मन साफ़ होगा
बिना पानी के

बिना पानी के
न तो तुम साफ़ होगे
न हम साफ़ होंगे
बिना पानी के 

- संदीप तिवारी।
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विजया सती के सौजन्य से 

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

नया शब्द

जब कोई नया शब्द 
कानों में पड़ता है, 
अर्थ जानने को हम उत्सुक 
हो जाते हैं

देखें तो शब्द वह 
पुराना ही होता है, 
कभी-कभी गर्द-धूल 
उस पर पड़ जाती है
कभी-कभी हम उससे 
बेख़बर होते हैं। 

और जब हटाकर हम 
गर्द वह, 
सुनते-देखते उसे 
एक ही क़तार में कई-कई छवियाँ 
बन जाती हैं। 

शब्दों की संपदा 
अर्थों की संपदा— 
जीवन के जीवन 
गहरे और गहरे तक 
हमें पहुँचाती है।

- प्रयाग शुक्ल।
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संपादकीय पसंद 

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

प्यार किया तुम्हें

प्यार किया तुम्हें
जैसे मिट्टी करती है 
बीज से प्यार 
और अंकुरित होता है एक पौधा 

प्यार किया तुम्हें 
जैसे राहगीर करता है 
रास्तों से प्यार और 
भर लेता है झोलियों में सफ़र 

प्यार किया तुम्हें 
जैसे सूरज करता है 
धरती से प्रेम 
और शरद की दुपहरी 
जगमगा उठती है

प्यार किया तुम्हें 
जैसे पूस की ठिठुरती रात में 
अलाव से करती हैं प्यार 
ठिठुरती हथेलियाँ 
समेटती हैं ज़िंदगी में भरोसे की ऊष्मा

- प्रतिभा कटियार।
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विजया सती के सौजन्य से